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मैं तुम्हारी सुराही की टूटी गरदन

मनोज कुमार झा को भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार मिल चुका है. लेकिन उनकी कविताओं की मात्र यही पहचान नहीं है. उनकी कविताओं में एक अन्तर्निहित विषाद है, बासी पड़ती जाती संवेदनाओं की स्मृतियाँ हैं. वे राग के नहीं विराग के कवि हैं. मिथिला की मिटटी और भाषा की छौंक वाले इस कवि का काव्य-संसार नितांत समसामयिकता के इस दौर में सबसे अलग नज़र आता है. बानगी के तौर पर पढ़िए पांच कविताएँ-
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1.

किसी ठौर

मैं तुम्हारी सुराही की टूटी गरदन
लोट रहा चूर-चूर
सूर्य खोलता है इन्द्रधनुष का रंग
कोई निपट अकेला कभी-कभार
कसता ही जाता है रेत का घेरा
कौन बादल ले गया वो चन्द्रमा और हरीतिमा
जो बुना करती थी रेत की छाँह में ओस के रूमाल
फिर भी किसी ने तो बचा रखा होगा
मेरे लिए खजूर के पत्ते भर पानी
कोई वजीख़ाना कोई धोबीघाट कोई प्रेतघट

२.
इस तरह से जीना
यहाँ तो मात्र प्यास-प्यास पानी, भूख-भूख अन्‍न
और साँस-साँस भविष्य
वह भी तो जैसे-तैसे धरती पर घिस-घिसकर देह
देवताओं, हथेलियों पर दो थोड़ी जगह
खुजलानी हैं लालसाओं की पाँखें
शेष रखो भले पाँव से दबा बुरे दिनों के लिए
घर को क्यों धांग रहे इच्छाओं के अन्धे प्रेत
हमारी सन्दूक में तो मात्र सुई की नोक भर जीवन

सुना है आसमान ने खोल दिए हैं दरवाज़े
पूरा ब्रह्मांड जब हमारे लिए है
चाहें तो सुलगा लें किसी तारे से अपनी बीडी

इतनी दूर पहुँच पाने का सत्तू नहीं इधर
हमें तो बस थोड़ी और हवा चाहिए कि हिले यह क्षण
थोड़ी और छाँह कि बांध सकें इस क्षण के छोर।
३.
शिलालेख
बिना पैसे के दिनों और
बिना नींद की रातों की स्वरलिपियां
खुदी हैं आत्मा पर।

बने हैं निशान
जैसे फोंफियाँ छोडकर जाती हैं
पपीते के पेड़ों के हवाले।

फोंफियों की बाँसुरियाँ
महकती हैं चंद सुरों तक
और फिर चटख जाती हैं।

दूर-दूर के बटोही
रोकते हैं क़दम
इन सुरों की छाँह में

पोंछते हैं भीगी कोर
और बढ़ जाते हैं नून-तेल-लकड़ी की तरफ़।
४.
प्रतीक्षा
देह छूकर कहा तूने
हम साथ पार करेंगे हर जंगल
मैं अब भी खडा हूँ वहीं पीपल के नीचे
जहाँ कोयल के कंठ में काँपता है पत्तों का पानी।
५.
सदृश
वे भाई की हत्या कर मंत्री बने थे
चमचे इसे भी कुर्बानियों में गिनते हैं।
विपन्नों की भाषा में जो लहू का लवण होता है
उसे काछकर छींटा पूरे जवार में
फसल अच्छी हुई।
कवि जी ने गरीब गोतिया के घर से उखाडा था खम्भा-बरेरा
बहुत सगुनिया हुई सीढी
कवि जी गए बहुत ऊपर और बच्चा गया अमरीका।
गद्‍गद्‍ कवि जी गुदगुद सोफे पर बैठे थे
जम्‍हाई लेते मंत्री जी ने बयान दिया – वक़्त बहुत मुश्किल है
कविता सुनाओगे या दारू पिओगे।

 
      

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12 comments

  1. manoj g ko padhate waqt yah bat bar bar jehan me aati hai ki jagan surya ki kirne v nhi pahunchana chahti, inki drishti waha ka v dard la kr hamare samne pasar deti hain…

  2. एक ऐसे समय में जब कविता महज दोहराते जाते किसी एक वाक्य में सिमट जा रहा है, मनोज की कविता वाक्यों , अनुभवों और भाषा की विविधता और बहुलता की ओर ले जाती है. ठूठ होते समय के एहसास में यह ताकीद करती है की जिंदगी, शव्द और ताने बाने वही नहीं जो हम देखना चाहते, सुनना चाहते.

  3. फिर भी किसी ने तो बचा रखा होगा
    मेरे लिए खजूर के पत्ते भर पानी
    कोई वजीख़ाना कोई धोबीघाट कोई प्रेतघट………..मनोज आपने दौर के कवियों में सबसे अलग खड़े नज़र आते हैं और मेरे सबसे पसंदीदा कवि हैं, उनकी भाषा जिस ज़मीन से ताकत और संस्कार ग्रहण करती है उस तक बतौर पाठक पहुँचने के लिए भी हमें कुछ और परिष्कृत होने की ज़रूरत है. बहुत धन्यवाद जानकी पुल का इतनी गहरी चीज़ें परोसने के लिए
    विमल

  4. adbhut!khaskar pratiksha………pipal aur patton ki baaten .dushyant ji yaad aa gaye "ek jangal hai teri aankhon mein main jahan raah bhul jaata hoon tu kisi rail si gujarti hai main kisi pul sa thartharata hoon"yahi aag jalaye rakhiye,yehi pyas banaye rakhiye manoj ji

  5. सुंदर कविता पढ़वाने के लिए प्रभातजी धन्यवाद। वक्त बड़ा मुश्किल है ।

  6. बेशक कविता अच्छी लगी । एक और बात…कविता में मिथिला और मैथिली दोनों की महक भी है ।

  7. अच्‍छी कविताएं हैं। कितने वीतरागी भाव से उतरता ये कवि अपने इर्द-गिर्द के भाव संसार में और क्‍या अनूठे बिम्‍ब लेकर उकेरता है, टटकी कविताएं। जीओ और ऐसे ही रचते रहो।

  8. अजीब संयोग है…मनोज की कवितायें मैने भी आज ही असुविधा पर लगाई हैं…बस एक आग्रह यह दाढ़ी अब क़ुर्बान हो चुकी है तो कोई नई फोटू लगा दीजिये

  9. chahe to sulgalen kisi tare se bidi
    wah
    wah ye sabhi paanch kavitayen aaj ke samay ko rekhankit kerti hai aur es samay mein mer rehi jijivishaa ko punah jagrit kerte hue atirek ke khatre ko darshati hai ….manoj kumar jha ki kavitayen es aadhunik dour mein hindi kavya ki niranter prAGati ki ore bhi eshara ker apne nojawaan kavi hone ko pukhta kerta hai…….samy ki vedna uske rudan samy ki hansi uska utsaah usme prem ki bachi hue bhavna seedhesahaj sabdo ke dwara aaj ke samay ki lay mein gunthi hue hame kavya ke kohre ki taraf le jaati hai ..hum apne se milte hai …avaak nahi hote ..sahaj apne ko dekhte hai ..yehi en kavitaon ki vishesta hai

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