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उनसे ज़रूर मिलना सलीके के लोग हैं

असगर वजाहत पारंपरिक किस्सागोई के आधुनिक लेखक हैं. उनके उपन्यासों, नाटकों, संस्मरणों सबका एक निराला अंदाज़ है. उनसे जुड़े कुछ निजी अनुभव आज आपसे साझा कर रहा हूँ- प्रभात रंजन
     
असगर वजाहत पहली मुलाकात में आपको बहुत अपने-अपने से लगते हैं. मुझे याद है पहली मुलाकात में ही उन्होंने मुझे अपने उपन्यास सात आसमानकी प्रति भेंट करते हुए लिखा था, ‘प्रिय भाई प्रभात रंजन को सप्रेम- असगर वजाहत.५.१.९८ के उस दिन को हिंदी के एक मामूलीशोधार्थी के लिए हिंदी के इतने बड़ेलेखक ने पहली बार ही भाईशब्द का प्रयोग कर उसके जीवन में यादगार बना दिया था. उन दिनों वे हंगरी से आये थे वापस जामिया मिलिया इस्लामिया के अपने हिंदी विभाग में. हिंदी विभागों के प्रोफ़ेसर ब्रह्मकी तरह होते हैं. वे विद्यार्थियों से सीधे मुँह बात कर लें यह बहुत बड़ी बात समझी जाती है, लेकिन असगर वजाहत से उन दिनों जब भी मिलता तो उनकी गर्मजोशी मुझ कस्बाईको कहीं गहरे छू जाती. उनसे मिलकर अक्सर आत्मविश्वास बढ़ जाता. सर्दियों की गुनगुनी धूप में जब भी उनसे मिलता वे कुछ न कुछ देते. बाद में पाया सबको देते थे.
उन दिनों उनके ऊपर पेंटिंग और फोटोग्राफी की धुन सवार थी. कभी कोई तस्वीर या कभी आडी-तिरछी रेखाओं और अजीब-अजीब से रंगों वाली पेंटिंग्स. लेकिन एक चीज़ उन्होंने मुझे खास दी थी, जिसके बारे में मैं कह सकता हूँ कि किसी को नहीं दी. नासिर काज़मी की पहली बारिशश्रृंखला की २० ग़ज़लें अपने हाथ से उन्होंने मुझे हिंदी में करके दी थीं. प्रसंगवश, यहां बता दूँ कि उनके नाटक जिस लाहौर नहीं वेख्या ओ जन्माई नई…और उपन्यास सात आसमानमें नासिर काज़मी के शेरों की बड़ी महिमा है. आज भी उनकी वह खास सौगात मेरे पास है. उन दिनों उनकी संगत लगभग रोज़ होती और तब तक होती जब वे अच्छी बात हैनहीं कह देते थे. यह उनकी खास अदा है. शाईस्तगी उनके अंदर इतनी भरी हुई है कि वे आपको जाने के लिए भी सीधे-सीधे नहीं कहते, वे कहते हैं अच्छी बात है’, मतलब अब खिसकिये. जब तक आप जायेंगे नहीं वे बार-बार यही लाइन दुहराते रहेंगे.
लेकिन आप उनके पास फिर-फिर लौटेंगे. उनके किस्सों के लिए, उनसे मिलने वाले उस ‘’आदरके लिए, उस खुलूश के लिए जो उनके अंदर सबके लिए है. कम बोलना, महीन आवाज़ में बोलना, अपने आपको कमतर मानने की विनम्रता किसी को  भी अपना मुरीद बना लेती है. मुझे याद है वे ईरान यात्रा पर गए थे और वहां की राजधानी तेहरान में तस्वीरें खींचने के जुर्म में पकड़ लिए गए थे. क्योंकि वहां तस्वीरें उतारने की मनाही है. तब भारतीय दूतावास के हस्तक्षेप से वे छूटे थे. उनकी मदद की थी भारतीय विदेश सेवा के अधिकारी मनीष चौहान ने, जो संयोग से मेरे सहपाठी भी हैं. मनीष को महज कुछ ही घंटों में उन्होंने ऐसा प्रभावित किया कि उस बात के करीब छह साल हो गए लेकिन आज भी जब उससे बात होती है तो वह असगर वजाहत के बारे में ज़रूर पूछता है.
असगर वजाहत मूलतः किस्सागो हैं. मैंने हिंदी के कई किस्सेबाजों को करीब से देखा है, जाना है लेकिन असगर साहब जैसा किस्सागो नहीं देखा. पता नहीं कहां-कहां के किस्से. आपको उनके किस्सों की आदत पड़ जाती है. कम से कम मैं उनसे जब भी मिलता हूँ हसरत होती है कि आज वे कोई नई बात सुना दें. उनके पास फ़िल्मी दुनिया के बड़े मजेदार किस्से हैं और देश-विदेश, विशेषकर विदेश की अपनी यात्राओं के. फ़िल्मी दुनिया से उनका जुड़ाव रहा है. उन्होंने मुज़फ्फर अली की पहली फिल्म गमनके लेखन में सहयोग किया था. टेलीविजन-सिनेमा के लिए और कुछ खास किया हो ऐसा तो मुझे ध्यान नहीं आता. लेकिन वे अक्सर उन कई बड़ी फिल्मों का खुद को लेखक बताते जो आज तक परदे पर आ ही नहीं पाई. एक फिल्म मुझे याद है, मुज़फ्फर अली की जूनीथी, जो कश्मीर की कवयित्री हव्वा खातून के जीवन पर आधारित थी. इसी तरह अपने किस्सों में वे श्याम बेनेगल की कई आगामी फिल्मों के लेखक बन जाते हैं या राजा बुंदेला की आगामी फिल्मों के. सबसे अधिक किस्से उनके पास मुज़फ्फर अली के हैं, जो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उनके सहपाठी भी थे या अलीगढ़ के ही अपने जानकार लेखक राही मासूम रज़ा के, जो शायद फ़िल्मी दुनिया के सबसे सफललेखक रहे. असगर साहब ने बताया था कि कमलेश्वर ने तो पूरे जीवन में १०० के करीब फ़िल्में लिखीं जबकि राही मासूम रज़ा के पास एक समय में १०० के करीब फ़िल्में रहती थीं. राही साहब मद्रास में बनने वाली फिल्मों के स्टारलेखक थे लेकिन उनको मद्रास(अब चेन्नई) की आबो-हवा रास नहीं आती थी और रात की नींद उनको मुंबई में ही अच्छी आती थी. इसलिए वे सुबह की फ्लाईट से मद्रास जाते, सेट पर डायलॉग लिखते और रात की फ्लाईट से वापस मुंबई में.
किस तरह केतन मेहता मुज़फ्फर अली के सहायक होते थे, जो चरस पीते थे और उनसे कहते कि असगर साहब देखना मैं अपने जीवन में एक फिल्म ज़रूर बनाऊंगा. बाद में जब उनका उपन्यास आया कैसी आगि लगाईतो उसमें मुज़फ्फर अली के कई किस्से मैंने पढ़े. रम और मटन के शौक़ीन असगर साहब भी उन दिनों सुरूर में आकर अक्सर कहते कि देखना एक दिन मैं फिल्म ज़रूर बनाऊंगा. उन दिनों वे एक फ़िल्मी कहानी के बारे में अक्सर सुनाते थे जो भारत-पाकिस्तान के दो परिवारों को लेकर थी जिनमें एक बात समान थी. दोनों परिवार स्क्वैश खेलने के शौक़ीन थे. पता नहीं क्या हुआ उस कहानी का. बाद में जब मैंने उनके लिखे हुए कुछ अविस्मरणीय यात्रा-संस्मरण आदि पढ़े तो मुझे अक्सर वे उनके किस्सों की तरह ही लगे- पता नहीं क्या सच-क्या झूठ. परंपरागत दास्तानगोई के अंदाज़ में सीधे-सरल ढंग से उनकी कहानी चलती जाती है, जिसमें एक के बाद एक चरित्र आते-जाते हैं. सीधा-सरल लेकिन सपाट नहीं.
वैसे एक बात है असगर वजाहत के किस्से जितने सीधे-सरल दिखते हों अपने जीवन में वे ऐसे नहीं हैं- आपको बाद की मुलाकातों में यह पता चलने लगता है. जिन दिनों वे जामिया मिलिया के मास कम्युनिकेशन सेंटर के सद्र थे तो उन्होंने सबसे दूरी बना ली थी. ज़ल्दी मिलने का वक्त नहीं देते थे. उन दिनों एक अलग ही दुनिया उन्होंने बना ली थी. बाद में जब रिटायर हुए तो फिर से उसी मासूमियत से आम हो गए. मेरे ब्लॉग जानकी पुल के लिए उन्होंने अपने हाथ से लिखे दो लेख दिए, एक फैज़ पर था जो बाद में मैंने देखा कि एक और मशहूर ब्लॉग पर उनकी हस्तलिपि में ही छपा हुआ था. वे सबसे ऐसे मिलते हैं जैसे उसके अपने हों, लेकिन जो उनको अपना समझता है उसी के नहीं होते. मुझे उनके एक पुराने मित्र प्रोफ़ेसर अक्सर कहते थे कि असगर वजाहत अपने उपन्यास सात आसमानके पात्र मोतमुदौला की तरह हैं जो अपने सबसे करीबी आदमी को कुएं में धकेल देता है. मैं जब भी असगर वजाहत के बारे में सोचता हूँ तो मुझे यह शेर याद आ जाता है-
उनसे ज़रूर मिलना सलीके के लोग हैं
सर भी कलम करेंगे बड़े एहतराम से.
बहरहाल, वे मूलतः लेखक हैं. सच और झूठ के सीमान्त के लेखक. 

 
      

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12 comments

  1. कोठागोई के इस लेखक की इतनी साफगोई से किसी किस्सागोई का संक्षिप्त में दिये गये परिचय में भी काफी विवरण…जानदार,शुक्रिया

  2. mujhe abhi tak vjahat sahab se roobaroo hone ka sobhagya nahi mila he per me unhe kafi karib se janta hoo unke likhe sahitya se me unke najdik hoo ve hamare aadarniy agraj he

  3. मैं भी वज़ाहत जी के करीब रहा हूं… और जो अनुभव है वो ये कि इस घोर पाषाण युग (जहाँ संवेदनाएं मर रहीं हैं) में वो अब भी खालिस इन्सान हैं.

  4. Asgar wazahat sahib ki shaksiyat pani ki lahar ke manind lagti hai-pyar se aagosh mein bhi bhar leti hai aur kabhi kabhar aziz ho ke dur bhi jhatak deti hai.Aapne apne lekhan ke zariye unki shaksiyat ke pehluon ko bakhoob quaid kiya hai

  5. अंतिम पैरा में दिए तथ्य की वज़ह कहीं बशीर साहब का शेर तो नहीं? साहित्य की दुनिया का मेरा छोटा सा अनुभव तों यही बताता है कि इस दुनिया में तपाक से गले मिलना अक्सर आँसुओं का बाइस बनता है…एक वक़्त के बाद लगता है कि थोड़ी दूरियाँ बनाए रखना बेहतर है…

  6. बहुत आत्मीय लिखा है भाई…आनंद आ गया…दिन की बढ़िया शुरुआत

  7. सुन्दर संस्मरण…!

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