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‘आज का व्यावसायिक हिंदी सिनेमा एक उत्पाद है’


हाल के दिनों में सिनेमा पर गंभीरता से लिखने वाले जिस युवा ने सबसे अधिक ध्यान खींचा है वह मिहिर पंड्या है. मिहिर पंड्या ने यह लेख ‘कथन’ पत्रिका द्वारा भूमंडलीकरण और सिनेमा विषय पर आयोजित परिचर्चा के लिए लिखा है. समकालीन सिनेमा को समझने के लिए मुझे एक ज़रूरी लेख लगा इसलिए आपसे साझा कर रहा हूँ- जानकी पुल. 
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जब हम भूमंडलीकरण की बात करते हैं तो यहाँ स्पष्ट करना चाहिए कि यह ठीक-ठीक किस परिवर्तन की बात हो रही है’ ‘भूमंडलीकरण’ के नाम पर अभी हम जिस प्रक्रिया की चपेट में हैं इसे मैं ‘इकसारीकरण’ कहना ज़्यादा पसन्द करता हूँ. यह सभी चीज़ों के सभी जगह उपलब्ध होने का नहीं, एक ही चीज़ के सभी जगह उपलब्ध होने का दौर है. और इस प्रक्रिया के प्रभाव विश्व स्तर पर देखे जा सकते हैं. सिनेमा भी इसकी चपेट में है और लोकप्रिय सिनेमा के परिदृश्य में ‘बड़ी मछली’ द्वारा छोटी मछली को खाए जाने का दौर बेरोकटोक जारी है. हालांकि लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा ने बड़ी मछली यानी  हॉलीवुड का अभी तक सफ़लतापूर्वक सामना किया है, लेकिन खुद लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा अन्य उदाहरणों में उसी ‘बड़ी मछली’ का रूप धरकर तमाम क्षेत्रीय भाषा सिनेमा को और एक वृहत परिदृश्य में तमाम अन्य दक्षिण एशियाई लोकप्रिय कला रूपों की हत्या का दोषी है.

यहाँ यह भी स्पष्ट कर दूं कि बीते दशक में आए भोजपुरी सिनेमा के उभार को मैं इस प्रक्रिया के उलट जाने के रूप में नहीं देखता. बल्कि वो तो लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा द्वारा खुद अपने भीतर से निष्कासित कर दिए गए एक बड़े दर्शक वर्ग द्वारा रची गई स्थानापन्न व्यवस्था है उनके मनोरंजन के लिए. वह दर्शकवर्ग शायद क्रयशक्ति में बहुत पीछे छूट गया था इसलिए बाज़ार की शर्तों पर चलते लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा के लिए हाशिए पर था. लेकिन बीते दिनों ‘दबंग’ के साथ वापस आया सिनेमा का यह नया दौर उस दर्शकवर्ग की क्रयशक्ति बढ़नेए और उसके फिर बाज़ार द्वारा रची मुख्यधारा में लौटने का संकेत दिखता है.

‘भारतीय सिनेमा’ एक बहुत ही व्यापक अवधारणा है. इसलिए मैं पहले लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा या जिसे हम ‘बॉलीवुड कहते हैं उसपर बात करना चाहूँगा. लोकप्रिय सिनेमा के बारे में एक स्थापित विचार यह है कि मूलतरू सत्ताशील पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की परियोजना होने के कारण लोकप्रिय सिनेमा यथास्थितिवाद का पोषक रहा है. उदाहरण के लिए महानायक अमिताभ की फ़िल्मों पर गौर करें तो आमतौर पर इनका अंत या तो सामाजिक समस्या के महानायक द्वारा नाटकीय समाधान द्वारा ;देखें . ज़ंजीर, कुली, अमर-अकबर-एंथॉनी; या नैतिकता और आदर्श की पुनरस्थापना द्वारा; देखें- दीवार, शक्ति, त्रिशूल; होता.
लेकिन यहाँ एक पेंच है. क्योंकि सिनेमा एक मास मीडियम है इसलिए इसके लोकप्रिय होने के लिए ज़रूरी है कि जन-आकांक्षाओं को वह अपने भीतर शामिल करे. और जन-आकांक्षाएं स्वभाव से ही सत्ता विरोधी होती हैं. अमिताभ की यही नाटकीय समाधान और आदर्श की पुनरूस्थापना वाली फ़िल्में सत्तर के दशक के असंतोष की एक प्रामाणिक तस्वीर भी अपने भीतर समेटे हैं. जैसा मैथिली राव लिखती हैं, ‘लोकप्रिय सिनेमा दो विरुद्धों के साथ सफ़र करता है. उसकी दिलचस्पी यथास्थिति को बनाए रखने में होती है, और इस क्रम में वह बहुसंख्य नैतिकता की व्यवस्था को भी नहीं छेड़ना चाहता है. लोकप्रिय सिनेमा अपनी युग चेतना के अनुरूप होता है, वह सामुहिक इच्छा को इस प्रकार अपने अन्दर प्रतिबिम्बित करता है कि उसके माध्यम से वह अधिक से अधिक लाभ कमा सके, चाहे फ़िल्म अपने ‘आदर्श अंत’ में शशि कपूर के नैतिक चरित्र की जीत द्वारा व्यवस्था की पुनरूस्थापना करे लेकिन यह साफ़ है कि उन तमाम फ़िल्मों का नायक हमेशा विजय ही है.

यही वह मूल द्वैध है जिनसे मिलकर लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा का ताना-बाना रचा गया है. इस द्वैध की आलोचकों ने भिन्न वजहें देखी हैं. मैं अपनी राय को माधव प्रसाद की राय के नज़दीक पाता हूँ. लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा पर हुए सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में से एक ‘आईडिऑलाजी ऑफ़ दि हिन्दी फ़िल्म’ नामक किताब में एम. माधव प्रसाद लिखते हैं, ‘लोकप्रिय सिनेमा परंपरा और आधुनिकता के मध्य परंपरागत मूल्यों का पक्ष नहीं लेता. इसका एक प्रमुख उद्देश्य परंपरा निर्धारित सामाजिक बंधनों के मध्य एक उपभोक्ता संस्कृति को खपाना है. इस प्रक्रिया में यह कई बार सामाजिक संरचना को बदलने के उस यूटोपियाई विचार का प्रतिनिधित्व करने लगता है जिसका वादा एक आधुनिक पूँजीवादी राज्य ने किया था.’

 बेशक बॉलीवुड का मतलब भारतीय सिनेमा नहीं है. बल्कि मैं तो इस टर्म को सम्पूर्ण हिन्दी सिनेमा का प्रतिनिधि भी नहीं मानता. यह टर्म लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा की उस मुख्यधारा तक सीमित है जिसके पास निर्माण से लेकर वितरण और फ़िल्म के प्रदर्शन तक अपनी एक स्थापित व्यवस्था है और जो भारतीय मध्यवर्ग के लिए सिनेमा का पर्यायवाची और मनोरंजन का सबसे प्रमुख साधन रहा है. भूमंडलीकरण के आने के साथ बॉलीवुड ग्लोबल हो गया है यह भी भ्रामक अवधारणा है. सच्चाई यह है कि आज भी प्रथम विश्व में इस बॉलीवुड मसाला सिनेमा को देखने वाले सिर्फ़ एनआरआई भारतीय हैं. आज भी विश्व सिनेमा पटल पर भारतीय सिनेमा की तक़रीबन कोई उपस्थिति नहीं है. और इसकी वजह ऐसा होना नहीं है कि विश्व सिनेमा का वितान सिर्फ़ प्रथम विश्व तक सीमित है. विश्व सिनेमा में जिनकी पूछ है उन्हें देखें तो उदाहरण के लिए दस साल पहले वह ईरान का सिनेमा था. पांच-सात साल पहले कोरिया और हॉंगकांग की फ़िल्मों की धूम रही और आज जापान और स्केंडिनेवियन देशों के सिनेमा का तहलका है. भारत के सिनेमा की उपस्थिति यहाँ आज भी नगण्य है.

लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष भी है और वो यह है कि भूमंडलीकरण के बाद के सालों में जो अच्छा सिनेमा हिन्दुस्तान में बन रहा है, क्या उसे हमारा वृहत्तर समाज देख रहा है. और जवाब है नहीं. होना तो यह चाहिए था कि भूमंडलीकरण की प्रक्रिया तमाम क्षेत्रीय और हिन्दी फ़िल्मों की उपलब्धता में वृद्धि करती, उसकी दर्शकों तक पहुँच बढ़ाती. लेकिन ऐसी कितनी ही बेहतरीन फ़िल्में हैं जिन्हें या तो सही दर्शक नहीं मिले या वो अभी तक अपनी रिलीज़ की ही इन्तज़ार में हैं. परेश कामदार की विस्मयकारी फ़िल्म खरगोश सिनेमाघरों का मुंह तक नहीं देख पाई. अमित दत्ता जैसा चमत्कारी फ़िल्मकार आज भी वृहत्तर हिन्दी समाज के लिए एक अपरिचित नाम है क्योंकि उनकी फ़िल्में कभी सार्वजनिक प्रदर्शन में आई ही नहीं. मराठी सिनेमा के उमेश विनायक कुलकर्णी, जिनकी फ़िल्म विहिर मेरी नज़र में बीते साल की सर्वश्रेष्ठ भारतीय फ़िल्म थी, की फ़िल्म को न तो उत्तर भारत में प्रदर्शन नसीब हुआ और न एक साल से ज़्यादा बीतने के बाद भी उस फ़िल्म की बाज़ार में कोई उपलब्धता है. भूमंडलीकरण की यह प्रक्रिया विविधता की दुश्मन है और स्थानीय सिनेमा की उपलब्धता बीते सालों में और कम होती गई है. दोष हमारा भी है, अगर हम अच्छे भारतीय सिनेमा को आगे बढ़कर रेखांकित नहीं करेंगे तो फिर हम यह आशा कैसे कर सकते हैं कि वो सर्वाइव करेगा और विदेशों में जाकर नाम कमाएगा.

मैं बीते इतिहास में किसी भी ‘स्वर्ण युग’ की अवधारणा को सिद्धांततः अस्वीकार करता हूँ. मैं नहीं मानता कि हमारा देश भारत कभी सोने की चिड़िया था और यहाँ दूध-घी की नदियाँ बहा करती थीं. यत्र नार्यस्तु पूज्यंतेए रमंते तत्र देवता जैसी उक्तियों को आगे कर वैदिक काल को स्वर्ण युग बताना वैसा ही है जैसे रामायण में आए पुष्पक विमान का ज़िक्र उद्धृत कर हिन्दुस्तान को वायुयान की तकनीकी का जनक बताना. जो बात इतिहास पर लागू, वही सिनेमा पर. मैं नहीं मानता कि हिन्दी सिनेमा का पहले  आया ;पढ़ें पचास का सुनहरा दशक: सब स्वर्ण युग था और अचानक इस भूमंडलीकरण रूपी दैत्य के आने के साथ सब भ्रष्ट हो गया. सिनेमा को लेकर यह समझदारी ठीक वैसी ही है जैसे नेहरू और इंदिरा के लाए, भारतीय पूंजीवादियों द्वारा समर्थित समाजवाद को आदर्श मानना और फिर नब्बे के दशक में आई एलपीजी की नीतियों को तमाम मटियामेट का श्रेय देना. राजनीति के स्तर पर समझने की बात यह है कि दरअसल यह निजीकरणए उदारीकरणए भूमंडलीकरण का नया दौर राज्य के उस पुराने कथित लोककल्याणकारी चेहरे का ही स्वाभाविक अगला चरण है.

ठीक इसी प्रकार हमारे लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा का सुनहरा दशक भी सत्ता के प्रति उतना ही आज्ञाकारी है जितना नब्बे के बाद आई सिनेमा की यह नई खेप बाज़ार के शहंशाहों के प्रति. हिन्दी सिनेमा के उसी सुनहरे दौर की सबसे आईकॉनिक फ़िल्म मदर इंडिया की परिणिति एक बांध के निर्माण में है. याद रखिए ऐसे ही एक बांध के निर्माणस्थल पर खड़े होकर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संभावित विस्थापितों से कहा थाए अगर कष्ट उठाने ही हैं तो उन्हें देश के लिए उठाया जाना चाहिए. और इसी राष्ट्र निर्माण ने अगले पचास वर्षों में पांच करोड़ से ज़्यादा लोगों को अपने घरों से, अपनी दुनिया से बेघर किया. मेरे लिए मदर इंडिया का यह बांध पूर्वज है उस सरदार सरोवर बांध का जिससे नर्मदा बचाओ आन्दोलनके साथी पिछले बीस साल से नर्मदा घाटी में एक अंतहीन लड़ाई लड़ रहे हैं.

उर्दू का लोप सिर्फ़ सिनेमा से ही नहीं है, सम्पूर्ण समाज से उर्दू के निशाँ बड़ी तेज़ी से मिट रहे हैं. पहले इस भाषा को एक धर्म विशेष के लोगों से जोड़ा गया और फिर उस सम्पूर्ण समाज को हाशिए पर धकेलने की कवायद के एक चरण के रूप में उर्दू का वृहत्तर समाज से लोप होता चला गया. साहित्य में नवजागरण काल की बहसों से परिचित दोस्त यह तथ्य अच्छी तरह जानते हैं कि भाषा की लड़ाई भी अंततरू आर्थिक लड़ाई है जिसे आमतौर से लिपि के रणक्षेत्र में लड़ा जाता है. किसी भी लिपि की हार दरअसल उसे इस्तेमाल करने वाले समाज की आर्थिक स्थिति को संकट में डाल देती है. इस्माइल मर्चेंट की एक बहुत की खूबसूरत फ़िल्म इन कस्टडी इस संदर्भ में मुझे रह-रह कर याद आती है. किस तरह एक भाषा का अंत एक पूरी रवायत, सम्पूर्ण संस्कृति के असमय ख़त्म हो जाने का संकेत है, इन कस्टडी इसका मुकम्मल बयान है. हमारी भाषा की लिपि देवनागरी जो खुद उर्दू की लिपि फारसी की हत्या की दोषी है, आज रोमन अंग्रेज़ी के सामने एक बहुत ही मुश्किल लड़ाई लड़ रही है.

जैसा मैंने ऊपर कहा, मेरा स्पष्ट मानना है कि लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा का राष्ट्रवाद सदा से एक हिंदूवादी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद रहा है. बेशक नब्बे के दशक में जो उग्र और हिंसक राष्ट्रवाद सिनेमा में दिखाई पड़ता है वह इसका सबसे विकृत रूप है. लेकिन अपने आप में राष्ट्रवाद एक ऐसी नियंत्रणकारी अवधारणा है जिसके तले तमाम अन्य पहचानों को दबाने का काम दशकों से होता आया है. अगर आप सच में इस नियंत्रणकारी राष्ट्रवाद से मुक्त सिनेमा देखना चाहते हैं तो आपको बॉलीवुड की तय चौहद्दियों से बाहर निकलना होगा. वह हिन्दुस्तान का वृत्तचित्र सिनेमा पटल है जिसे मैं वर्तमान दौर के सिनेमा का सबसे रोमांचकारी क्षेत्र मानता.

वर्तमान में कम से कम वृत्तचित्रकारों की तीन समांतर पीढ़ियाँ इस क्षेत्र में सक्रिय हैं. इनमें आनंद पटवर्धन जैसे दिग्गज हैं तो पारोमिता वोहरा, संजय काक, मेघनाथ, अमर कंवर, के पी ससी, राहुल राय, मधुश्री दत्ता जैसे स्थापित नाम भी शामिल हैं, जिनकी फ़िल्में भूमंडलीकरण के बाद के भारत को समझने के लिए प्राथमिक स्त्रोत जैसी हैं. फिर नितिन के, बीजू टोप्पो, सूर्यशंकर दाश, सुमित पुरोहित, अनुपमा श्रीनिवासन जैसे नए फ़िल्मकार हैं जिन्हें तकनीक पर महारत हासिल है और जिनकी राजनैतिक समझदारी उनके विषय चयन से लेकर सिनेमा की दृश्यभाषा तक साफ़ नज़र आती है. भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के विभिन्न प्रभाव, उसकी तमाम बारीकियाँ आपको जितने बेहतर तरीके से इन फ़िल्मकारों के सिनेमा में दिखाई देंगी, मुख्यधारा हिन्दी सिनेमा के लिए अभी वह बहुत दूर की कौड़ी है.

बेशक यह सच है कि लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा से गरीब, गांव और विभिन्न पेशे गायब हुए हैं और इसका सीधा संबंध मैं सिनेमा की बदलती दर्शक दीर्घा से जोड़ता हूँ. बीते दशक में मल्टीप्लेक्स के आने के साथ जिस तरह सिनेमा देखना बेतहाशा मंहगा हुआ है, सिनेमा की दर्शकदीर्घा से आम आदमी भी बाहर कर दिया गया है. ऐसे में उसके सवालों को वहाँ जगह मिलेगी यह सोचना एक भ्रम ही है. नम्रता जोशी ने पिछले दिनों आउटलुक में लिखा था कि आज जब सिनेमा शॉपिंग मॉल में दिखाया जाता है और उसे भी ठीक अन्य उपभोक्ता उत्पादों की तरह बरता जाता है तो फिर उसमें सामाजिक सोद्देश्यता की तलाश करना बेमानी है. आज का व्यावसायिक हिन्दी सिनेमा एक उत्पाद है. खुद दिबाकर बनर्जी ने पिछले दिनों एक व्यक्तिगत बातचीत में मुझे लिखा था कि आजकल फ़िल्म निर्माता सिनेमा को आलू की चिप्स समझते हैं. खाया, मरोड़ा, फैंक दिया. मेरी नज़र में दिबाकर वर्तमान हिन्दी सिनेमा परिदृश्य की सबसे महत्वपूर्ण और संभावनाशील उपस्थिति हैं, और उनका यह कहना वर्तमान सिनेमा निर्माण व्यवस्था की असलियत एकदम हमारे सामने रख देता.

लेकिन सब निराशापूर्ण नहीं है. इसी दौर में जब हम समाज और सिनेमा से लोककलाओं के लोप का रोना रो रहे हैं, ‘ओये लक्की लक्की ओये’ में दिबाकर और स्नेहा तू राजा की राजदुलारी जैसी हरियाणवी रागिनी लेकर आते हैं तो अनुषा रिज़वी और महमूद फ़ारुक़ी की पीपली लाइव में नगीन तनवीर का चोला माटी के राम आता है. ‘उड़ान’ से लेकर लव सेक्स और धोखा जैसी फ़िल्में हैं जो अपनी कहानी की ईमानदारी को बनाए रखती हैं और सफ़लता पाने के लिए किसी भी तरह का व्यावसायिक समझौता नहीं करतीं. भूमंडलीकरण के दौर में सिनेमा के लिए सबसे बड़ी लड़ाई यही है कि कैसे वह सिर्फ़ एक व्यावसायिक उत्पाद की भूमिका तक सीमित हो जाने से बचे और एक सच्चे कलारूप की तरह इस महादेश की विभिन्न कहानियों को पूरी ईमानदारी से कहने की कोशिश करता रहे.

 
      

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