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उन्होंने कुछ बताया और कुछ बनाया

हाल में ही डॉ. दिनेश्वर प्रसाद  का निधन हो गया. यह नाम हो सकता है हिंदी की दुनिया का उतना जाना-माना नाम न रहा हो, किसी सत्ता-प्रतिष्ठान से न जुड़ा हो. लेकिन वे सच्चे हिंदी सेवी और एक ईमानदार प्राध्यापक थे. वे हिंदी के सत्ता-खोजी संसार में कुछ पाने नहीं कुछ देने की आकांक्षा से आये थे. उन्होंने फादर कामिल बुल्के के साथ मिलकर हिंदी का वह कोश तैयार किया जो आज तक सबसे विश्वसनीय कोश बना हुआ है. उनको बहुत सहृदयता से याद किया है प्रसिद्ध पत्रकार-कवि-कथाकार प्रियदर्शन ने.
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यह  जुलाई 1985 की शाम थी। रांची के यूनियन क्लब हॉल में प्रेमचंद जयंती मनाई जा रही थी। वक्ताओं में डॉ श्रीकृष्ण पांडेय और डॉ.  दिनेश्वर प्रसाद थे। प्रेमचंद पर बोलते हुए श्रीकृष्ण पांडेय ने कहा कि अपने समय का ऐसा कोई विषय नहीं है जिस पर प्रेमचंद ने नहीं लिखा हो। श्रोताओं के बीच एक उत्साही किशोर के रूप में मौजूद मैं अपने मन में ऐसा विषय टटोलने लगा। मैंने प्रश्नोत्तर सत्र में श्रीकृष्ण पांडेय से पूछा कि प्रेमचंद का रचनात्मक दौर दो विश्वयुद्धों के बीच का दौर है। क्या प्रेमचंद ने कोई कहानी विश्वयुद्ध पर भी लिखी है ?
जवाब श्रीकृष्ण पांडेय ने नहीं, डॉ दिनेश्वर प्रसाद ने दिया। उन्होंने बताया कि कहानियां भले न लिखी हों, लेकिन प्रेमंचंद के संपादकीयों और लेखों में विश्वयुद्ध पर टिप्पणी मिलती है। कार्यक्रम ख़त्म होने के बाद उन्होंने पास आकर मेरे प्रश्न की प्रशंसा भी की। तब हमारा परिचय नहीं था। यह उन्हें बाद में पता चला कि मैं उनके छात्र और आत्मीय रहे विद्याभूषण का बेटा हूं। इसके बाद धीरेधीरे बनते रहे हमारे रिश्ते। आने वाले वर्षों में बहुत सारे ऐसे प्रश्नों के जवाब हमें डॉ दिनेश्वर प्रसाद से मिलते रहे जो कहीं और नहीं मिला करते थे।
कहने को डॉ दिनेश्वर प्रसाद हिंदी के प्राध्यापक और विद्वान रहे, लेकिन उनके पठनपाठन और उनकी विद्वता का दायरा हिंदी साहित्य से काफी आगे जाता था। अपने विकट अध्ययन और अपनी विलक्षण स्मृति से वे सामने वाले को  अभिभूत किया करते हैं। कम से कम जब भी मैंने उनसे किसी नए विषय के बारे में पूछा, उन्होंने हमेशा आश्वस्त भाव से बताया। जानेपहचाने विषयों पर भी कोई न कोई नई सूचना उनके पास बताने को हुआ करती।
भाषा और व्याकरण पर उनका सहज अधिकार इसी विद्वता का एक और पहलू था। उन्होंने फादर कामिल बुल्के के साथ मिलकर हिंदी का सर्वाधिक विश्वसनीय कोश तैयार किया। यह कम लोगों को मालूम होगा कि मौजूदा बुल्के कोश की परिकल्पना एक संक्षिप्त कोश के रूप में की गई थी और इसलिए उसमें ए से ई तक काफी कम शब्द हैं। बाद में विस्तृत कोश की योजना बनी और उसका वर्तमान स्वरूप सामने आया। यह जानकारी मुझे डॉ दिनेश्वर प्रसाद ने ही दी और यह भी बताया कि वे इस कोश को और वृहत रूप देने के लिए काम कर रहे हैं। हालांकि पिछले कुछ वर्षों से उनकी आंखें तकलीफ देती रही थीं और इसके बावजूद वे कई बड़ी योजनाओं पर काम करते रहे थे। आख़िरी दिनों में वाल्ट व्हिटमैन पर वे एक किताब तैयार कर रहे थे। मैं ठीकठीक नहीं जानता कि उनकी इस योजना का क्या हुआ। इसके पहले मिथकों पर केंद्रित उनकी एक महत्त्वपूर्ण किताब आई थी। लेकिन दिल्ली और दिल्ली से जुड़े कुछ लेखकों के बाहर न झांकने के आदी हिंदी साहित्य संसार ने उसका वह नोटिस नहीं लिया, जो लिया जाना चाहिए था। वैसे यह नियति उनके समूचे कृतित्व और व्यक्तित्व की हुई। हालांकि इसके बावजूद भाषा और साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय लोग उनकी विद्वता का लोहा मानते है।
अस्सी के दशक में रांची में कुछ लेखकों की पहल पर तीसरा रविवार नाम का एक मासिक कार्यक्रम शुरू हुआ। जहां तक मुझे याद आता है, सबसे पहले श्रवण कुमार गोस्वामी ने अपने घर लेखकों की एक बैठक रखी थी और वहीं यह तय हुआ था कि आने वाले दिनों में दूसरे लेखकों के यहां भी ऐसी बैठकें हों। बाद में इन बैठकों को कुछ औपचारिक रूप दिया गया और तीसरा रविवार का नाम। तब ये बैठकें महावीर चौक के पास बने संस्कृति विहार के छोटे से सभागार में हुआ करती थीं। इस रूप में तीसरा रविवार के इस आयोजन की एक पूरी रूपरेखा बनाई गई जिसमें हर महीने किसी एक लेखक पर विचार का कार्यक्रम रखा गया। इस पहल में मेरे पूरे परिवार की भूमिका और भागीदारी कई स्तरों पर रही। दरअसल इसी दौरान लगातार डॉ दिनेश्वर प्रसाद को सुनने और समझने का अवसर मिलता रहा। वे साफसुथरे, संयत उच्चारण के साथ, मृदु ढंग से अपनी बात कहते और अक्सर ऐसी सूचनाएं दिया करते जिनसे हम तब तक नावाकिफ हुआ करते थे।
लेकिन तीसरा रविवार के अलावा भी डॉ दिनेश्वर प्रसाद हमें अलगअलग मंचों पर मिलते रहे। वे रांची में सांस्कृतिक हलचलों के सनसनाते वर्ष थे और यह कहते हुए कुछ पुलक सी होती है कि मैं उनका सबका एक सक्रिय हिस्सा भी था। यहां यह जोड़ दूं कि जो हैसियत दिल्ली में नामवर सिंह की रही, वही रांची शहर में डॉ दिनेश्वर प्रसाद की रहीयानी वहां होने वाला कोई भी साहित्यिकसांस्कृतिक आयोजन उनके बिना अधूरा माना जाता था। हालांकि यह लिखना फिर उनके व्यक्तित्व के सम्यक मूल्यांकन में एक बाधा पैदा करता है, क्योंकि अंततः वे इससे बड़े और ऊपर थेउनकी जगह हिंदी के श्रेष्ठ समकालीन आलोचकों के बीच होनी चाहिए थी।
कई बार यह ख़याल आता है कि वे रांची की जगह दिल्ली में होते तो कहीं ज्यादा सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त करते। उनके आलोचकीय व्यक्तित्व में भी नए आयाम जुड़ते। क्योंकि दिल्ली उन्हें सिर्फ पहचान नहीं, परिप्रेक्ष्य भी देती।
लेकिन वे दिल्ली में होते तो रांची का क्या होतामेरी तरह के किशोर को कौन बताता कि प्रेमचंद ने कहानियों के अलावा भी काफी कुछ लिखा है और उनकी चिंताओं का दायरा वाकई बड़ा था। उनके दौर में रांची विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में कई प्रतिष्ठित प्राध्यापक रहे। सिद्धनाथ कुमार, श्रवण कुमार गोस्वामी, बालेंदुशेखर तिवारी और महेंद्र किशोर के नाम बिना किसी प्रयत्न के याद आ जाते हैं। हिंदी विभागों में बढ़ रही उदासीनता और निरक्षरता के बीच रांची विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग एक अपवाद की तरह था। इन सबके बीच दिनेश्वर प्रसाद की उपस्थिति विभाग की गरिमा  बढ़ाती थी। मुझे याद है, उस दौर में ही रांची विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर विभाग से पढ़नेलिखने वाले युवाओं का एक छोटा सा समूह शहर में हमारे साथ सक्रिय था। देवेंद्र चौबे, मेहरुन्निसा अब्दाली, नीहारिका सिन्हा, सुबोध सिंह शिवगीत, नूपुर अशोक, संजय करुणेश, नलिन मिश्रये सब एक ही साथ थे और अपनी मैत्री और प्रतिद्वंद्विता के बीच कम से कम माहौल को जीवंत बनाए रखते थे। इनमें से कई लोग अब भी सक्रिय हैं।
सच तो यह है कि डॉ दिनेश्वर प्रसाद के बारे में इतने औपचारिक ढंग से लिखते हुए मुझे मुश्किल हो रही है। क्योंकि एक रिश्ता उनसे घरेलू भी रहा। साहित्य से जुड़ी उनकी दो बेटियां नीला प्रसाद और इला प्रसाद अब भी मेरी आत्मीय हैं। रांची से लेकर दिल्ली तक नीला दी का साहित्यिकपारिवारिक साथ बना रहा। हाल ही में उनका एक कहानी संग्रह सातवीं औरत का घर प्रकाशित, पुरस्कृत और पर्याप्त चर्चित हुआ। जबकि अमेरिका में रह रहीं इला दी धीरेधीरे प्रवासी हिंदी लेखकों के बीच अपनी जगह बना चुकी हैं। कहानी और कविताओं के उनके कई संग्रह हैं और उनका तरल गद्य अपनी आत्मीयता में सबको सहज भाव से छूता है।
14 अप्रैल की शाम मुझे एक फोन से यह सूचना मिली कि डॉ दिनेश्वर प्रसाद नहीं रहे। मैं तब एक कार्यक्रम के सिलसिले में इलाहाबाद में थाइत्तिफाक से यह सूचना मिलते वक़्त बिल्कुल अकेला। अचानक मन एक सन्नाटे में डूब गयाउसमें शोक की विह्वलता नहीं थी, उदासी में डूबा हुआ एक खालीपन था। देर तक यह खालीपन पीछा करता रहाबाद में दूसरों से गपशप करते हुए,उनके साथ हंसतेबोलते हुए भी।
इस बीच यह याद आता रहा कि जब भी दिल्ली से रांची जाता था, उनसे मिलता था। शायद यह मेरी आख़िरी रांची यात्रा ही थी जब उनसे मुलाकात नहीं हुई। मुझे मालूम था कि वे बीमार हैंहालांकि बहुत सारी दूसरी चीज़ों की तरह बीमारी के ब्योरे स्पष्ट नहीं थे। जितनी भीड़भाड़ और भागदौड़ ने हमारे जीवन की जगहें घेर रखी हैं, उनमें अक्सर ब्योरे गुम हो जाते हैं, बस धुंधला सा ख़याल रह जाता है जो यहां भी था। मैं बस इसीलिए मिलने नहीं गया कि उनकी थकान और न बढ़े। इसके पहले नीला दी की मार्फत मैंने उन्हें कुमार गंधर्व के कबीर गायन और अज्ञेय की आवाज़ में उनकी अपनी कविताओं की सीडी भिजवाई थी।
लेकिन यह सच है कि वे रांची में थे और मैं दिल्ली में थाऔर यह भौगोलिक दूरी एक मानसिक दूरी में बदलती जा रही थी। हम बेख़बर रहते हैं और हमारे भीतर से चेहरे, नाम, सरोकार, रिश्ते धुंधले पड़ते जाते हैं। यह सबसे कम दिनेश्वर प्रसाद के साथ हुआ तो इसलिए कि फिर भी रांची और दिल्ली के बीच उन्हें और मुझे जोड़ने वाले कई सूत्र हमेशा बने रहे। दिनेश्वर जी के देहांत की सूचना के बाद पैदा अपने खालीपन में मुझे वे कई नाम और चेहरे याद आए जो धुंधलाते जा रहे हैं, जबकि जिनका कभी हमारी निर्मिति में थोड़ा बहुत हाथ रहा। कभी उनकी प्रशंसाओं ने उत्साहवर्द्धन किया, कभी उनके सुझावों ने सतर्क किया।
इलाहाबाद में ही याद आता रहा, हम सब जिन चीजों से बने हैं, उनमें थोड़ा सा डॉ दिनेश्वर प्रसाद का बांटा हुआ ज्ञान भी है।
 
      

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2 comments

  1. प्रियदर्शन का यह लेख उन्हें श्रद्धांजलि तो है ही ,उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की एक रूपरेखा भी प्रस्तुत करता है ! दिनेश्वर प्रसाद जी को हार्दिक नमन !

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