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महुआ मांझी के बहाने इंडिया टीवी के वंशज पर एक नज़र

विनीत कुमार
युवा लेखक विनीत कुमार का यह लेख वर्चुअल स्पेस पर मौजूद हिंदी के उन लेखकों की सर्जरी है, जो तुरत-फुरत समाधान में विश्वास रखते हैं और वह भी बिन किसी तैयारी के। मांझी-गोस्वामी प्रकरण के बहाने विनीत ने उन मठाधीशों की भी ख़बर ली है, जो मर्द लेखक-संपादक होने के लिए किसी लेखिका को छिनाल-चालबाज कहना ज़रूरी समझते हैं : जानकीपुल

मुझे याद है, आज से कोई चार साल पहले हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने डरते-डरते (जैसे उनके कम्प्यूटर की कीबोर्ड दबाते ही हिन्दी भवन के आगे पोखरण परमाणु परीक्षण हो जाएगा और जो आग के गोले उठेंगे, उसका असर साहित्य अकादमी तक होगा) पाखी पत्रिका की वेबसाइट का उद्घाटन किया था. इस काम के लिए पाखी पत्रिका की चुस्त तैयारी नहीं थी या अगर होगी भी तो तकनीकी स्तर पर बहुत ही घटिया स्तर की टीम इसके लिए काम कर रही होगी. तभी तो जब मैं घर आकर वेबसाइट से गुज़रा तो सब आधा-अधूरा लग रहा था. जल्द ही समझ आ गया कि हिन्दी उपक्रम जिस ढोल-नगाड़े के साथ तकनीक में दखल करती है,वो कितना लचर होता है. वो काफी हद तक अपनी सामंती सोच को साथ लिए तकनीक के जरिए उन हिन्दी समाज के बीच आतंक और ठसक पैदा करना चाहती है जिसमें विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे सधे हाथ कीबोर्ड पर आते ही घिघयाने की मुद्रा में आ जाते हैं. मैंने इससे पहले विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे सिद्धस्थ वक्ता-आलोचक को इतना घबराया-लड़खड़ाया कभी नहीं देखा. खैर!
पाखी, वेबसाइट लांच के जरिए भले ही हिन्दी समाज में एक किस्म की ठसक और ढोल-मंजीरे पीटने में लगी हो, जिसका उतरोत्तर विकास बहस के लिए पाखी ब्लॉग शुरू होने और प्रमुखता से उसकी सूचना देने के रूप में दिख रहा हो, लेकिन तथाकथित साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के अलावे हिन्दी की एक ऐसी दुनिया जरूर है,जहां विमोचन के नाम पर न तो नामवर सिंह का सोलो परफार्मेंस (अक्सर स्लो) आता है और न ही विश्वनाथ त्रिपाठी की भयभीत उंगलियां कीबोर्ड पर जाकर लसफसा जाती हैं. वर्चुअल स्पेस पर काम करने वाली दुनियाभर में हजारों उंगलियां अबाध गति से कीबोर्ड पर थिरकती हैं जो जरूरी नहीं कि हमेशा नृत्य-संगीत की अदा ही प्रदर्शित करे बल्कि उस प्रिंट-बंद और चौधराहट के संपादन से मुक्त होने का एहसास लिए आगे बढ़ती हैं. ऐसे में पाखी जैसी पत्रिका जिसे नामवरी तिलक लगा-लगाकर जबरदस्ती जरूरी और चर्चा में लाने की कोशिश होती रही है, इन गतिविधियों के आगे न केवल फूहड़ और ऐंवें टाइपकी नजर आती है, बल्कि इस बात का सहज अंदाजा लग जाता है कि सालों से प्रिंट मीडिया की गद्दी पर बैठा हिन्दी संस्थान जब वर्चुअल स्पेस में आता है तो कितना भकुआया हुआ लगता है और ताज्जुब तो ये कि इस भकुआहट से ही उन हिन्दी पाठकों के बीच रौब गांठने की कोशिश करता है जिन्हें टाइपिंग, लेआउट, रॉल, एग्रीगेटर जैसे शब्द सुनने और उससे माथापच्ची करने में न तो खासा दिलचस्पी है और न ऐसा करना जरूरी समझते हैं. हां ये जरूर है कि कुछ कालजयी समर्थक स्थापित-विस्थापित आलोचक से लेकर नए-अंकुराए आलोचकों को ये बात समझ आने लगी है कि कालजयिता के बरक्स अक्सर वर्चुअल स्पेस पर खुदरा किराना-लेखन चलता रहे तो चर्चा में बने रहने की गुंजाइश बनी रहती है. इसी क्रम में आप देखते होंगे कि एफबी टाइमलाइन पर एकाध पंक्ति में पताका-चाय टाइप शैली (गजब का स्वाद, गजब का अंदाज) में लिखने के बाद आगे जड़ देते हैं- 5-6 इलाहाबाद प्रवास रहेगा, 12-14 जबलपुर में हूं. ये पढ़िए, इसे पढ़ने के बाद नामवर सिंह गदगद होकर बोले कि इस रचना में चंदौली जी उठा है. जब हम बताए कि हम भी कुछ लिखते-विखते हैं, साहित्यिक चर्चा हुई तो विश्वनाथ त्रिपाठी कहने लगे- तुम एडहॉक-गेस्ट प्राध्यपकों के लिए मैंने एक शब्द इजाद किया है- निरीह कमीना, 30-32 साल हो गए, अभी तक शादी-ब्याह कुछ नहीं, देह का जरूरत थोड़े ही ये सब समझेगा. तुमलोगों की इस हालत पर काम कर रहा हूं…ब्ला-ब्ला…
प्रिंट माध्यम की गद्दी पर बैठे संपादक और साहित्यिक-सरोकारी पत्र-पत्रिकाओं की गोद में झूमकर हवाखोरी करनेवाले हमारे हिन्दी लेखकों के बहुत बाद में आने (उदय प्रकाश, राजकिशोर, प्रभात रंजन, चंदन पांडे, गिरिराज किराडू जैसे कुछ नामों को यादकर छोड़ते हुए) का सबसे भारी नुकसान ये हुआ कि जो हमारे प्रतिबद्ध-कटिबद्ध लेखक हैं, वर्चुअल स्पेस का बहुत ही गलत मतलब समझा. छोटा ही सही वर्चुअल स्पेस पर हिन्दी लेखन का एक बहुत ही ठोस इतिहास रहा है, आप इसे इतिहास न भी कहें तो प्रक्रिया कह लें जिससे गुजरते हुए सैंकड़ों लोगों ने कीबोर्ड आजमाए और अब बेधड़क लिख रहे हैं और जो देश के हिन्दी विभागों को अपने उपर गर्व करने का मौका नहीं देते. लेकिन इन बाद में आए लेखकों, संपादकों और साहित्यिक संस्थानों की इन पूरी प्रक्रियाओं से अंजान रहने की भरपाई अब वही हिन्दी समाज कर रहा है जिनके बीच प्रिंट की सत्ता एक हद तक चरमराती हुई और वर्चुअल स्पेस लेखन के प्रति ललक बढ़ती नज़र आती है. उस पूरे लेखन प्रक्रिया के प्रति अनभिज्ञ रहने का जो सबसे बड़ा नुकसान हम देख रहे हैं वो पाखी जैसी पत्रिका की ओर से शुरू किए गए ब्लॉग और महुआ मांझी पर श्रवण कुमार गोस्वामी की ओर से लिए लिखे गए लेख (यहां पोस्ट) में साफ झलक जाता है.
कहने की जरूरत नहीं कि वर्चुअल स्पेस में हिन्दी लेखन की शुरुआत जिस इमोशनल क्राइसिस, बहुत ही घरेलू स्तर के अपने अनुभव और बाद में प्रतिरोध से लेकर मार-काट तक रही, वो धीरे-धीरे टीटीएम शैली (ताबड़तोड़ तेल मालिश) की तरफ प्रवृत्त हो गई. इसकी एक वजह ये भी रही कि लिखनेवालों ने देखा कि पत्रिकाओं और विभागों के कुछ चमकीले नाम भी यहां तैर रहे हैं और उन्हें लगातार चारा (फीडिंग होती रहे) मिलता रहे इसके लिए जरूरी है कि एक खास किस्म की भाषा इस्तेमाल में लायी जाए जो मीडिया की पीआर कक्षाओं के आसपास बैठती हो. वही 502 पताका चाय वाली भाषा- भोपाल प्रवास में आपसे मिलना अप्रतिम रहा. ले देकर एफबी टाइमलाइन से लेकर ब्लॉग तक एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंज से लेकर, सरोकारी पत्रिकाओं का चलता-फिरता दफ्तर और सेमिनार के बाद ब्लाउज-बंडी-ब्रा मार्का विमर्श, चाय-चर्चा की हूलेलेले का बेहतरीन अड्डा बनता चला गया जिनमे से कि कई काशीनाथ सिंह बनते-बनते रह गए और जिनमे से कई ब्लॉग पप्पू की दूकान बनने के बजाय अकाल-कलवित हो गया. इस पूरे घटनाक्रम में फिर भी कुछ ब्लॉग, वेबसाइट न केवल सक्रिय रह गए बल्कि अभी भी इत्मिनान से पढ़े जाते रहे. उनका अलग से नाम लेने की जरूरत नहीं है.
अभी पाखी पत्रिका और आगे दूसरी साहित्यिक-सरोकारी दूकानें अगर ब्लॉग-वेबसाइट शुरू करती है तो इन पूरी प्रक्रियाओं की समझदारी को शामिल करने के बजाय सिर्फ और सिर्फ जो हुलेलेले और टीटीएम का स्वर दिखाई देता है, दरअसल वो पूरे वर्चुअल स्पेस लेखन का एक मिजाज भर है, पूरी की पूरी वो प्रवृत्ति नहीं. अभी जो महुआ मांझी पर लिखे को ब्लॉग पर डालकर और इस इश्तहार भरे अंदाज में कि पाखी अंक पाठकों तक पहले पहुंचे उसके पहले ये लो विस्फोट और इस विस्फोट की हार्डकॉपी आगे संभाले..जो हिन्दी समाज के ठहरे हुए पानी में जिसका पानी इस इरादे से नहीं बदला जाता कि क्या पता कब कोई कमल खिल जाए, मोहल्ला, विस्फोट, कबाड़खाना जैसे उन दर्जनों ब्लॉगों का दोहराव है जहां आज से चार-पांच साल पहले जब कोई पोस्ट आती थी और वर्चुअल स्पेस पर सक्रिय लोगों की इतनी चर्चा होती थी कि हम यकीन ही नहीं कर पाते थे कि इस देश में अखबार भी छपते हैं. पाखी ने अपने ब्लॉग को लोकप्रिय बनाने का आधा-अधूरा नुस्खा वहीं से लिया.
लेकिन ऐसा करते हुए वो भूल गया कि मोहल्ला, विस्फोट, हाशिया और कबाड़खाना जैसे ब्लॉग सनसनी को ऑक्सीजन बनाकर जिंदा नहीं थे. हां ये जरूर होता कि ऐसी सामग्री डाली जाती जिसे प्रिंट को आमतौर पर छापने के पहले ही मिर्गी के दौरे पड़ने लगते या फिर उसके तथाकथित मानदंड़ों पर खरा नहीं उतरने का तर्क होता लेकिन पाखी की टीम को चाहिए कि वो उन पुरानी पोस्टों से एक बार जरूर गुजरें. उनमें एकबारगी सनसनी तो दिखेगी लेकिन एक खास किस्म की पत्रिकारिता, तथ्यात्मक विश्लेषण, तर्क और वस्तुपरकता दिखाई देगी जो हर हाल में सनसनी से कहीं आगे जाकर खड़े होते हैं. पाखी ब्लॉग पर महुआ मांझी प्रकरण का आना काफी हद तक हिन्दी के पुराने बासमती चावल के मुंह बिचकाने की दोबारा प्रस्तुति है जो वो वर्चुअल स्पेस लेखन से लंबे समय तक न केवल खार खाते आए हैं बल्कि कुछ क्षत-विक्षत भी हुए हैं. ऐसे में एक साहित्यिक पत्रिका उसी सनसनी की तरफ लौटती नजर आती है जिसके लिए हर ब्लॉगरों को कोसा जाता रहा.
सवाल है कि हज़ारों की भीड़ के बीच लिखनेवाले हिन्दी ब्लॉगरों, वर्चुअल स्पेस एक्टिविस्टों के बीच ये तड़प एक हद तक जरूर काम करती रही कि पता नहीं लोग पढ़ेंगे कि नहीं तो चलो पोस्ट में कुछ देगी मिर्च डाल दो. लेकिन ये पाखी जैसी तथाकथित साहित्यिक पत्रिका को ये सब करने की क्या जरूरत पड़ गयी जिस प्रवृत्ति से स्वयं वर्चुअल स्पेस बहुत पहले बाहर निकल चुका है और एक अनिवार्य गंभीरता की ओर बढ़ रहा है (कुछ हद तक गंभीरता के नाम पर टाइमपास और जुबानबंदी की तरफ भी). कुछ मत कीजिए, पाखी की वेबसाइट पर जाइए, गैलरी ऑप्शन पर दस मिनट समय दीजिए. हिन्दी के वो एक से एक ब्रांडेड साहित्यकार आपको दिख जाएंगे जिनके होने भर से हिन्दी श्रोता कई तरह के सवालों से बच जाता है. ठीक उसी तरह जैसे आप नाइकी की शोरूम जाकर नहीं पूछते- जूते टिकाउ तो है न, काटेगा तो नहीं, पानी में गलेगा तो नहीं, मुरैना से बैंकड्राफ्ट आने में देर हो गई, पांच सौ कल ले लेंगे? हिन्दी में ब्रांडेड साहित्यकारों का सबसे बड़ा योगदान यही रहा है कि उन्होंने तमाम सरोकारी उत्पादों को सवाल और शक के दायरे से बाहर कर दिया जिसके लिए पाठकों-श्रोताओं को अलग से माथापच्ची करने की जरूरत नहीं पड़े और उत्पादन-खपत की पवनचक्की फुक-फुक संगीतलय में चलती रहे. इस क्रम में महुआ मांझी और श्रवण कुमार गोस्वामी में से किसी एक के साथ खड़े होने के पहले इन सवालों पर विचार किया जाना जरूरी है-
सबसे पहले तो ये कि आखिर साहित्यिक पत्रिकाएं भी हम सनसनी फैलानेवाले, सतही और फूहड़ लिखनेवाले ब्लॉगरों की तरह बनने की फिराक में क्यों हैं? अगर है भी तो उन्हें इस बात की समझदारी क्यों नहीं है कि वर्चुअल स्पेस के इस तरह के लेखन में एख खास किस्म की पत्रकारीय औजारों की जरूरत होती है, पाखी ने इसे किस हद तक शामिल करने की कोशिश की? हंटर साहब हरम प्रकरण को छोड़ दें तो लंबे समय बाद साहित्यिक मंच के जरिए ऐसा मामला सामने आया है जो सिर्फ साहित्यिक दायरे की बहस में नहीं आता, हार्डकोर आपराधिक मामले से जुड़ी रिपोर्टिंग में आता है. क्या पाखी ऐसे मामले उठाने के बाद नैतिकता और आदर्श की बहस से अलग इन सारे दृष्ठिकोण से बात करने के लिए तैयार है?
अगर हां तो सबसे पहले उसे चाहिए कि उन घबरायी, कंपकपाती उंगलियों को इस बहस में शामिल करे जो उसके इस काम पर उंगली न भी उठाएं तो भी मुहर लगा सकें कि सही किया पुत्तर तुमने और ये रहे इसके पक्ष में तर्क. उन तमाम पुराने बासमती चावल को शामिल करे जिनकी बनी खीर (कालजयी, गंभीर आलोचना) तो हम सालों से खाते ही आए हैं, अब मामला झालदार हो गया है तो थोड़ी फ्राइड राइस भी चखें. आखिर ब्लॉगर जो दिन-रात सनसनी, मान-मर्दन में लिथड़े रहे हैं, इंडिया टीवी के औलादों के बीच रहते-रहते उनका मन नहीं उबता क्या? हम तो चाहते हैं कि साहित्यिक नगरी वर्चुअल स्पेस की तरह की गैरजरूरी तरीके से कोहराम मचाने की जगह बनकर न रह जाए, कुछ सार्थक और कालजयी हो.
आत्मव्यथा– वर्चुअल स्पेस पर पिछले छह सालों से सक्रिय होने के कारण व्यक्तिगत रूप से मुझे अच्छा लग रहा है कि साहित्यिक हलकों का रुझान भी हम जैसे हुलहुलिए टाइप का हो रहा है लेकिन साथ ही गहरी तकलीफ भी कि जिस साहित्य का एक बड़ा गंभीर पाठक वर्ग है, उनके बीच लंपट-लफंदर बनने की विवशता क्यों? मेरे गद्दीधारी कालजयी साहित्यकार, प्लीज आप इस दिशा में सोचें कि सरोकार के धंधे में लगे ऐसे मंच जब प्रतिस्पर्धा के बाजार में कूदते हैं तो खुद सरोकार और साहित्य का क्या से क्या शक्ल बनाकर पेश करते हैं? और तो और श्रवण कुमार गोस्वामी जैसे चुप्पा कालजयी साहित्यकार इसकी लपेट में आ जाते हैं. क्या साठे में पाठा और तीस मे ही मठाधीश मर्द लेखक-संपादक होने के लिए किसी लेखिका को छिनाल तो दूसरी को चालबाज करार दिया जाना जरूरी होगा?
 
      

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6 comments

  1. वाह! क्या लिखा है! मजे आ गये। खासकर टीटीएम, पताका चाय, स्लोमोशन,चारा फ़ीडिंग। कापी-पेस्ट की सुविधा जाने काहे नहीं है इस ब्लॉग में।

    खूब! जियो बच्चा। वैसे विश्वनाथ जी की शादी-ब्याह वाली बात गलत नहीं है। 🙂

  2. vinit apne bahut sahi kaha hai.apni lokpriyta badhane ke liye kuch tathakathit sahitykar lagatar keechad uchalne ko protsahan de rahe hain.kuch mahine pahle anamika aur pawan karan ki kavitaon par khoob vritha vimarsh hua tha.gambheer muddon ki bajay sadakchap baton se sahity ka kya bhala ho raha hai yah sabko pata hai.hindi sahity mein yah nakaratmak prvriti jyada hi sakriy najar ati hai.

  3. bahut khub bhaai

  4. विनीत ने नब्ज पकड़ी है. इस पूरे मामले में जितनी निन्दनीय भूमिका पत्र लेखक गोस्वामी की है उससे कम से कम दस गुना निन्दनीय किरदार पत्रिका के सम्पादक ने निभाया है. सनसनी के नए संस्करण की तरह बिना किसी जाँच पड़ताल के उस पत्र को प्रकाशित करना ही मानसिक दिवालियेपन की नई परिभाषा है. अब कल को कोई सुनाम किलोग्राम कवि / लेखक किसी दूसरे पर ऐसे ही सिरफिरे आरोप लगाए तो क्या उसे प्रकाशित करने से पहले पत्रिका सम्पादक को एक बार आरोपित से पूछना नहीं चाहिए ? हद है. कुछ पत्रिकाएँ सनसनी को अपना यू.एस.पी. बना कर चलती हैं, या कम से कम उन्हें ऐसा लगता है कि उनके पास कोई यू.एस.पी भी है वरना जन्नत की हकीकत वाली बात किसे नहीं पता.

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