गीत हिंदी की पारंपरिक विधा है. रूमानी गीतों को नवगीत बनाकर जीवन के करीब लाने में जिन गीतकारों का योगदान रहा, राजेंद्र गौतम का नाम उनमें अग्रणी है. आज उनके कुछ गीत पढते हैं- जानकी पुल.
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हम दीप जलाते हैं
यह रोड़े-कंकड़-सा जो कुछ अटपटा सुनाते हैं
गीतों की इससे नई एक हम सड़क बनाते हैं।
फिर सुविधाओं के रथ पर चढ़कर आएँ आप मजे से
फिर जयजयकारों के मुखड़े हों दोनों ओर सजे से
हम टायर के जूतों-से छीजे संवेदन पहने हैं
आक्रोशी मुद्रा-तारकोल भी हमीं बिछाते हैं।
हम हैं कविता के राजपथिक कब? हम तो अंत्यज हैं
स्वागत में रोज बिछा करते हैं हम केवल रज हैं
लेकिन जितना भी डामर है इस पथ पर बिछा हुआ
खुद रक्त-स्वेद अपना ही इसमें रोज मिलाते हैं।
हम जिन हाथों को किए हुए हैं पीछे सकुचा कर
इनकी रिसती अंगुलियों ने ही तोड़े हैं पत्थर
तुम तो बैठे हो मुक्त गद्य की मीनारों पर जाकर
पर झोंपडि़यों में छंदों के हम दीप जलाते हैं।
शब्द सभी पथराए
बहुत कठिन
संवाद समय से
शब्द सभी पथराए
हम ने शब्द लिखा था- ‘रिश्ते’
अर्थ हुआ ‘बाजा़र’
‘कविता’ के माने खबरें हैं
‘संवेदन’ व्यापार
भटकन की
उँगली थामे हम
विश्वग्राम तक आए
चोर-संत के रामायण के
अपने-अपने ‘पाठ’
तुलसी-वन को फूंक रहा है
एक विखंडित काठ
नायक के गल
फंदा डाले
अधिनायक मुस्काए
ऐसा जादू सिर चढ़ बोला
गूँगा अब इतिहास
दांत तले उंगली दाबे हैं
रत्नाकर या व्यास
भगवानों ने
दरवाजे पर
विज्ञापन लटकाए
वृद्धा-पुराण
‘मझले की चिट्ठी आई है
ओ मितरी की मां
परदेसों में जाकर भी वह
मुझ को कब भूला
पर बच्चों की नहीं छुट्टियाँ
आना मुश्किल है
वह तो मुझे बुला ही लेता
अपने क्वाटर पर
अरी सोच कब लगता मेरा
दिल्ली में दिल है
भेजेगा मेरी खाँसी की
जल्दी यहीं दवा।’
‘मेरे बड़के का भी खत री
परसों ही आया
तू ही कह किसके होते हैं
इतने अच्छे लाल
उसे शहर में मोटर बंगला
सारे ठाठ मिले
गाँव नहीं पर अब तक भूला
आएगा इस साल
टूटा छप्पर करवा देगा
अबकी बार नया।’
‘एक बात पर मितरी की माँ
समझ नहीं आती
क्यों सब बड़के, छुटके, मझले
पहुँचे देस-बिदेस
लठिया, खटिया, राख, चिलम्ची
अपने नाम लिखे,
चिट्ठी-पत्री-तार घूमते
ले घर-घर ‘संदेस’
यहाँ मोतियाबिंद बचा
या गठिया और दमा।’
पिता सरीखे गाँव
तुम भी कितने बदल गए
ओ, पिता सरीखे गाँव।
परम्पराओं-सा बरगद का
कटा हुआ यह तन
बो देता है रोम-रोम में
बेचैनी सिहरन
तभी तुम्हारी ओर उठे ये
ठिठके रहते पाँव।
जिसकी वत्सलता में डूबे
कभी-कभी संत्रास
पच्छिम वाले उस पोखर में
सड़ती है अब लाश
किसमें छोड़ूँ सपनों वाली
कागज की यह नाव।
इस नक्शे से मिटा दिया है
किसने मेरा घर
बेखटके क्यों घूम रहा है
एक बनैला डर
मंदिर वाले पीपल की भी
घायल है अब छाँव।
मन, कितने पाप किए
गीतों में
लिखता है जो पल
वे तूने नहीं जिए
मन, कितने पाप किए
धुंधभरी आँखें
बापू की माँ की
तेरी आँखों में क्या
रोज नहीं झाँकी
वे तो बतियाने को आतुर
तू रहता होंठ सिए
मन, कितने पाप किए
लिख-लिख कर फाड़ी जो
छुट्टी की अर्जी
डस्टबिन गवाही है
किसकी खुदगर्जी
तूने इस झप्पर को थे
कितने वचन दिए
मन, कितने पाप किए
इनके सँग दीवाली
उनके सँग होली
बाट देखते सूखी
घर की रांगोली
घर से दफ्तर आते-जाते
सब रिश्ते रेत किए
मन,
बहुत अच्छे नवगीत पढ़वाये आपने..
आभार प्रभात जी
Sunder per mithhe nahi,dardile geet.
very informative articles or reviews at this time.