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अश्लीलता व्यक्ति और युग सापेक्ष होती है


आजकल प्रेम भारद्वाज के गद्य को खूब सराहना मिल रही है। समकालीन महिला लेखन पर उनकी यह छोटी सी टिप्पणी भी इसकी तसदीक करती है कि यह सराहना बेजा नहीं- जानकी पुल।
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साठ-सत्तर के दशक में हिंदी फिल्मों की पटकथा-अक्सर जैनरेशन गैप से होकर गुजरती थी। यह शब्द दो पीढि़यों के बीच टकराव का एक मशहूर जुमला हुआ करता था। विक्रम-वैताल की तरह जैनरेशन गैप का प्रेत हिंदी साहित्य का पीछा नहीं छोड़ रहा है। वह बार-बार वर्तमान की डाल पर आ बैठता है। दोनों तरफ से दंभ में लिपटे कुछ प्रश्न पूछे जाते हैं। श्रेष्ठता ग्रंथि के विष से भरे शब्द डंक मारते हैं। कुछ छटपटाहट होती है। हो-हल्ला मचता है। पर जहर धीरे-धीरे उतर जाता है। डंक मारने का काम (इसे चेष्टा पढ़ा जाए) दोनों तरफ से होता है। और यह पहली बार नहीं है। अलबत्ता हमारे यहां इसकी सुदीर्घ परंपरा है।

हमारी मानसिक बुनावट ही ऐसी है कि हम अक्सर नए का स्वागत करने की बजाय उसका विरोध करते हैं। कबीर का विरोध, घनानंद का विरोध भक्तिकाल-रीतिकाल के उदाहरण हैं। पिछली शताब्दी में भी निराला की जूही की कली को महावीर प्रसाद द्विवेदी कविता न मानते हुए लौटा देते हैं। निराला के राम की शक्ति पूजा की प्रारंभिक 18 पंक्तियों को मंत्र बताकर विरोध होता है, उनकी अन्य अतुकांत कविताओं को रबड़ शैली का नाम दिया जाता है। आजादी के बाद नयी कहानी आंदोलन का भी तब की पूवर्वती पीढ़ी ने पुरजोर विरोध किया। साठ के दशक की मोहभंग वाली कविता को भी अकविता तक कह दिया गया है। सब नए को स्वीकार नहीं करने की वजह से हुआ।
मौजूदा दौर मतलब पिछले एक दशक से युवा कहानी की धमक है जिसे कुछ लोग शोर भी कहते हैं। महिला-साहित्य के आसमान में बहुत सारी पतंगें उड़ने लगी हैं। कुछ पतंगों ने ऊंची उड़ानें भरी हैं, कुछ कट गईं हैं और गच्चे खा रही हैं। हवा के थपेड़ों के सहारे वे कहां जा गिरेंगी,ये बताना कठिन है।

मैं डार्विन के इस सिद्धांत को मानता हूं कि हर नई पीढ़ी अपने पिछली पीढ़ी से विकसित और बेहतर होती है। नयेपन का पक्षधर हूं। चाहे वह जीवन में हो या लेखन में। अपने-अपने ढंग से अपनी-अपनी बंदिशों को तोड़-फोड़कर जिस रफ्तार से स्त्रियां लिख रही हैं, वह काबिले-तारीफ तो है ही, इतिहास में दर्ज होने की दिशा में भी अग्रसर है। लेकिन सब की सब सर्वश्रेष्ठ रच रही हैं,यह न किसी दौर में हुआ है, न इस वक्त ही होने का मुगालता हम पाल सकते हैं।

मैं इस बात को नहीं मानता कि स्त्री-लेखन सरोकार से पूरी तरह कटा है। सरोकार को फिर से परिभाषित करने की जरूरत है। अपने-अपने सरोकार के मामले से भी इंकार नहीं किया जा सकता है। देह का भी अपना सत्य है। देह जिंदगी का सच है मगर उसका पयार्य नहीं है। साहित्य में यौनिकता नयी नहीं,उसकी जड़ें संस्कृत साहित्य और रीतिकालीन कविता से भी जोड़ी जा सकती हैं। यौनिकता अछूत विषय नहीं मगर उसके जरिये मजावाद के दायरे में लेखन का कैद हो जाना ठीक नहीं। अश्लीलता व्यक्ति और युग सापेक्ष होती है। झूठ,दंभ, छल,बेईमानी भी अश्लीलता है। विरासत शब्द साहित्य के क्षेत्र में अपने अर्थ बदल लेता है। विरासत का यथावत बने रहना उसको मुर्दा कर देना है। साहित्य  में विरासत या परंपरा एक तरह का  रिले दौड़ है जिसमें पुराने पीढ़ी को बैटन नयी पीढ़ी को सौंपना होता है। नयी पीढ़ी उसे आगे ले जाती है।

जाहिर है युवा की रफ्तार तेज होती है। पुरानी पीढ़ी को नये पर भरोसा करना होगा। नये को पुराने का सम्मान। युवा स्त्री लेखन का फलक बड़ा है। प्रतियोगी, उलटबांसी,छावनी में बेघर, यूटोपिया,सात फेरे, सोनमछरी,स्वांग, सुअर का छौना, पापा तुम्हारे भाई, पार्श्वसंगीत, शरीफ लड़की, संझा जैसी कहानियां इस बात की तस्दीक करती हैं कि स्त्री युवा लेखन का फलक सिर्फ यौनिकता हदों तक सीमित नहीं है। जीवन, संसार और संघर्ष के इसमें कई रंग हैं।

यहां यह बात भी अपनी पूरी विनम्रता के साथ कहना चाहता हूं कि कुछ लेखिकाओं (लेखक) की कथा भूमि का फलक छोटा और दंभ भूमि का मैदान बड़ा है। उन्हें ये जिद है कि हम बुलाते,हमें उम्मीद कि तुम पुकारोकी तर्ज पर पुरानी पीढ़ी को लगता है नये लोगो ने उनको पढ़ा नहीं है। नये की शिकायत कि पुराने लोग उन्हें खारिज कर रहे हैं। जो पुराना हैं वह कभी नया था जो नया है वह भी एक दिन पुराना पड़ेगा। सवाल किसी विवादों में उलझने या अहंकार के कुतुबमीनार पर खड़े होकर फतवा जारी करने की बजाय अपने समय में धंसकर और जलते प्रश्नों से टकराकर कुछ मौलिक रचने का है।

‘बिंदिया’ से साभार 
 
      

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12 comments

  1. बहुत सटीक और सही लिखा है आपने |

  2. बेहद वाजिब लिखते हैं आप और बहुत सही तरीके से रखते भी हैं | स्पष्टता एक धार की तरह है आपकी अभिव्यक्ति में |

  3. सवाल किसी विवादों में उलझने या अहंकार के कुतुबमीनार पर खड़े होकर फतवा जारी करने की बजाय अपने समय में धंसकर और जलते प्रश्नों से टकराकर कुछ मौलिक रचने का है।

    एक सटीक आलेख अगर सब इसी तरह सोचें और आने वालों को प्रोत्साहित करें और आने वाले पुरानों को सम्मानित करें तो एक नया इतिहास बन सकता है मगर साहित्य में ऐसा कम ही देखने को मिलता है ।

  4. Lekh Padhkar yahi laga kee Prem Bhardwaj ji Pakhi ko hans aur khud ko Rajendra Yadav banana chahtey hai————Rajiv Anand.

  5. This comment has been removed by the author.

  6. बहुत ही बढ़िया आलेख। हर दौर की स्त्री के अपने अपने संघर्ष रहे हैं।जिसने जैसा जिया है वही उसे बेहतर लिख सकता है।नई स्त्री के संघर्ष ज्यादा दूधर्ष मुझे लगते हैं क्योकि उसे घर बार संभालना है।गढे हुए मूल्यों से उसका काम नहीं चलता,अपने मूल्य अपनी आज़ादी, बिना किसी भय या दबाब के बनाना भी है संभालना भी।एक ही स्त्री ऑफिस मे कठोर प्रशासक और घर की निरीह कातर गृहिणी। अपना घर बचाने ,अपना स्व भी बचाने की जदोजहद मे आतमहत्या करती ,पागल होती जाती या ऐन वक़्त पर खूद को संभालती औरत ।इस उलझी स्त्री के बहुत से रेशे अभी सुलझाये जाने बाकी है ,लिखे जाने भी बाकी हैं।कुछ हल्का लिखकर रातोंरात प्रसिद्ध हुआ जा सकता है शायद, पर पाठकों की स्मृति मंजूषा मे वह स्थान नहीं पाता।पाठक भी वही पसंद करता है जो उसे अपनी और आसपास की कथा लगे,

  7. बहुत सुंदर और विश्लेषणात्मक लेख है। यह समस्या क्योंकि सदैव रहेगी, अतः यह लेख सदैव इतना ही सार्थक रहेगा। लेखक बधाई के पात्र हैं।

  8. मेरी वेबसाइट दुनिया में सबसे अच्छी अश्लील साइट है

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