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यह किताब बदलते परिवेश और इच्छाओं का डॉक्यूमेंट है

कल पंकज दुबे के उपन्यास ‘लूजर कहीं का’ का दिल्ली लांच था। एक तीसरे दर्जे के अभिनेता ने उस उपन्यास के अंश पढे और हिन्दी समाज में अपनी विश्वसनीयता खो चुके एक चुटकुलेबाज ने किताब के बारे में बोला, जिसने पिछले पाँच साल में सबसे उल्लेखनीय काम यह किया है कि पिछले लोकसभा चुनावों के समय कॉंग्रेस पार्टी के लिए नारे लिखे थे। बहरहाल, यह मेरी निजी राय है कि किताब को फिल्मी सितारों का सौन्दर्य साबुन नहीं बनाना चाहिए। लेकिन यह मेरी राय है और इसे मैं किसी के ऊपर थोपना नहीं चाहता। वैसे भी यह किताब हिन्दी के साथ अंग्रेजी में भी लिखी गई है, जहां बुक प्रोमोशन का बड़ा महत्व होता है। लेकिन हिन्दी का पाठक अभी भी किसी अभिनेता के कहने पर किसी किताब से प्रभावित नहीं होती, बल्कि उसके मन में उस किताब को लेकर संदेह उत्पन्न हो जाता है। बहरहाल, पेंगुइन हिन्दी ने हाल के दिनों में दो ट्रेंडसेटर किताबें छापी हैं- ‘दर दर गंगे’ और ‘लूजर कहीं का’। फिलहाल इसके लिए पेंगुइन को बधाई के साथ कल के कार्यक्रम पर जानी-मानी पत्रकार-कवयित्री स्वाति अर्जुन की एक कायदे से लिखी हुई रपट पढ़िये और मेरी तरह कार्यक्रम में न जा पाने की अपनी कसक दूर कीजिये- प्रभात रंजन। 

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पंकज दूबे ने 30 जनवरी की सुबह अपने फेसबुक वॉल पर लिखा था कि, ‘’जो भी लोग आज दिल्ली के इंडिया इंटरनेश्नल सेंटर में मेरी किताब लूज़र कहीं का  के विमोचन में नहीं आएंगे, उनके लिए ये दोस्ती का इम्तिहान होगा’’ और शायद पंकज की घुड़की काम कर गई.

सिर्फ दोस्त ही नहीं मेरे जैसे तमाम लोग जो उन्हें जानते भी नहीं थे वे वहाँ पहुंचे किताब के विमोचन के लिए. क्योंकि जान-पहचान ना होने के बावजूद हमारे बीच कई समानताएं या यूं कहें comman factor था जो हमें एक दूसरे से जोड़ती है.

पहला और सबसे अहम् हमारा बिहारी या झारखंड कनेक्शन, दूसरा हमारा ख़ास ना होकर आम होना या यूं कहें जीवन के हर दूसरे घंटे नए तरीके से लूज़र साबित होना.

कार्यक्रम में शामिल पैनेलिस्ट में अशोक चक्रधर, एक्टर विनय पाठक, अदाकारा सारिका और आम आदमी के जर्नलिस्ट रवीश कुमार के अलावा खुद पंकज शामिल थे.

किताब के विषय, शिल्पशैली और प्रासंगिकता के बारे में बताते हुए साहित्यकार और कवि अशोक चक्रधर ने बताया कि कैसे बिहार-यूपी और झारखंड से आए युवाओं और उनके सपनों में एक अजीब किस्म की रवानगी है जो बेहद सरल होने के बाद भी कहीं ना कहीं sarcastic और यथार्थपूर्ण है. अशोक जी ने किताब के कुछ अंशों का उदाहरण देते हुए बताया कि 70 के दशक में दिल्ली आए युवाओं की आखिरी मंज़िल दिल्ली यूनिवर्सिटी की लेक्चररशिप होती थी, लेकिन बाद के दशकों में ये aspiration, आईआरएस, आईएएस और आईएफएस हो गई. 

यह किताब उस बदलते परिवेश और इच्छाओं का डॉक्यूमेंट है.

उन्होंने किताब में निहित हास्यपुट की तुलना श्रीलाल शुक्ल की राग़दरबारी से की…जो निश्चय ही लेखक के लिए खुशी से ज्य़ादा चुनौती वाली बात है आगे की लेखनी के लिए.

विनय पाठक की मौजूदगी कहीं ना कहीं एकबारगी चौंका गई, कि भई साहित्यिक समारोह में एक्टर्स का क्या काम, लेकिन बाद में पता चला कि किताब अगर फिल्म की शक्ल ले रही हो और जिसमें दृश्य व्यंजना का भरपूर प्रयोग किया हो तो वहाँ एक्टर का होना लाज़िमी है और वो भी कॉमिक सेंस वाला एक्टर. विनय पाठक ने हिंदी में किताब के कुछ अंश का बेहतरीन पाठ किया और समाँ बांध दिया. हालाँकि उनके कॉमिक सेंस के एकाध बार मिसफायर होने की भी आशंका जगी जब एक दर्शक ने उनसे असफलता पर उनके निजी विचार संबंधी सवाल किए….जिसका उन्होंने बख़ूबी जवाब दिया.

सीनियर एक्टर सारिका ने किताब के कुछ अंश का अंग्रेज़ी में पाठ किया और खुद कबूल किया कि वे यहाँ के शुद्ध हिंदी वाले माहौल में माईनॉरिटी की तरह फील कर रही हैं. बाद में उन्होंने अपने जीवन के कुछ लूज़र मोंमेंट्स का ज़िक्र किया और ये भी माना कि एक्टर्स की ज़िंदगी में ये मौके ज्य़ादा आते हैं. वैसे, उनकी मौजूदी लिटररी कम स्टार पावर के लिए ज्य़ादा थी.

अब बारी आम आदमी के प्रवक्ता रवीश कुमार की थी, जिन्होंने शुरुआत ही इस बात से की, ये किताब उन लोगों के बारे में है जिनकी संख्या तथाकथित तौर पर सफल लोगों से ज्य़ादा या बहुतायत में है. रवीश कुमार ने एक दिलचस्प बात कही वो ये कि 80-90 के दशक में जो लोग पलायन कर के दिल्ली जैसे महानगरों में आ रहे थे वो एक सामंती समाज ही नहीं सामंती स्वभाव और तौर-तरीके की तिलांजलि दे रहे थे. गांव देहात में जिन लोगों ने अपने आसपास की महिलाओं को सिर्फ घरेलू कामगारों के रुप में देखा उन्हें यहाँ बॉस, सीनियर, कलीग, लैंडलेडी, प्रतिद्वंदी के तौर पर हर समय फेस करना एक eye opener यंत्रणा से कम नहीं था.

उनके अनुसार ये किताब उस दिल्ली के फैलाव और विस्तार की कहानी है जिसका इतिहास घर छोड़कर आये इन शूरवीरों ने लिखा था.

चर्चा में शामिल लेखक ने खुद कई घटनाओं का ज़िक्र किया जिन्हें किताब में शामिल किया या नहीं किया जा सका. कार्यक्रम की सफलता से वे बेहद खुश दिखे…साथ ही पेंग्विन इंडिया की संपादक रेणु अगाल भी.

कहना ना होगा लूज़र कहीं काविमोचन एक कार्यक्रम से ज़्यादा था, पंकज के ही शब्दों में कहें तो ये हमारी असफलताओँ, हमारी imperfect personality और हमारी ओड़ी या ओड़ायी गई हीनता का सेलिब्रेशन था. ये कार्यक्रम एक अहम् पड़ाव हो सकता है हिंदी साहित्य के लिए……क्योंकि जहाँ (great) महान  नहीं बल्कि (mediocracy) साधारण या आम आदमी होना एक अचीवमेंट है.

125 रुपये और 200 पन्ने की इस बायलिंग्वल किताब की सफलता और बढ़ते mass-appeal की सबसे बड़ी वजह  इसका इंसानी फितरत के उस हिस्से को glorify या celebrate करना है जिसे हम सामाजिक दबाव में छिपाते फिरते हैं, पर जिससे हम हर रात खूब बातें करते हैं…और जो हमारी सफलताओं से ज्य़ादा सगा होता है.
स्वाति अर्जुन 


हमारी असफलताएँ ही सफलता की कुंजी होती है…शायद यही इस किताब का सार है.      
 
      

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13 comments

  1. आभार…सुशील कुमार, देवेंद्र पांडेय, अपर्णा साह. स्वाति.

  2. vidtrit vivechna…utsukta jaga gaya hai…..

  3. फ्लिप कार्ट का या दूसरा कोई लिंक दे देते तो घर मंगाकर ही पढ़ लेते।

  4. बहुत सुंदर !

  5. When we suspect that our wife or husband has betrayed the marriage, but there is no direct evidence, or we want to worry about the safety of our children, monitoring their mobile phones is also a good solution, usually allowing you to obtain more important information.

  6. When you’re trying to spy on someone’s phone, you need to make sure the software isn’t found by them once it’s installed.

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