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मैं तुम्हें छू लेना चाहता था, मार्केस!

युवा लेखक श्रीकांत दुबे पिछले दिनों मेक्सिको में थे. मार्केस के शहर मेक्सिको सिटी में. तब मार्केस जिन्दा थे. उनका यह संस्मरणात्मक लेख लैटिन अमेरिका में मार्केस की छवि को लेकर है, मार्केस से मिलने की उनकी अपनी आकांक्षा को लेकर है. पढ़ते हुए समझ में आ जाता है कि क्यों मार्केस के जीवनीकार गेराल्ड मार्टिन ने उनको एक एक ग्लोबल लेखक कहा था. अब देखिये न मार्केस के निधन पर इतना अच्छा लेख हिंदी में लिखा गया है. उस भाषा में जिसमें उनकी कुल एक किताब अनूदित हुई है. मार्केस प्रेमियों के लिए एक जरूर पठनीय लेख- प्रभात रंजन 
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(प्रस्तुत खंड मेक्सिको प्रवास पर आधारित मेरे संस्मरण का एक अध्याय है)
गाब्रिएल गार्सिया मार्केस का मतलब क्या होता है? इस प्रश्न के एकाधिक उत्तर हैं. समूची दुनिया के लिए एक ‘अनिवार्य’ और महान किस्सागो. लेकिन पूरे लैटिन अमेरिका के लिए इससे कहीं अधिक, मार्केस माने एक उत्सव.

मेरे मेक्सिको प्रवास के शुरूआती दिनों में जब सूरज और चाँद के सिवाय हर चीज़ अजनबी दिखती थी, ऐसे में मेट्रो-बस के अन्दर किसी भी उम्र के शख्स के हाथों में झूलती मार्केस या की किताब का दिख जाना आसपास किसी अपने के होने जैसा एहसास देकर खुश कर देता था. मेरी टूटी-फूटी स्पैनिश के अलावा मार्केस ही थे जो मेक्सिको और मेरे बीच की दूरियां मिटाते, जगह-ब-जगह. मैं जैसे ही किसी से पहली बार मिलता, दो चार मिनट बातें करता, हमारे बीच मार्केस आ जाते. ऐसा अपवाद स्वरूप कभी हुआ हो तो नहीं पता, लेकिन, बैंक के फुल टाइम कर्मचारी से लेकर रेस्तरां के वेटर और टैक्सी ड्राईवर तक, सब ने कभी न कभी ‘मार्केस’ को पढ़ रखा था और सराहा था. मेक्सिको में मार्केस के बारे में सोचते, बोलते इस विषय वाली मेरी स्पैनिश इतनी निखर गयी थी कि अक्सर ही ऐसे संवादों के अंत में मुझे इस भाषा पर अपनी पकड़ को लेकर तारीफ़ भी मिल जाती. हालाँकि मेरे द्वारा किसी और भाषा की बनिस्पत स्पैनिश ही सीखे जाने के मूल में भी मार्केस ही थे. उन दिनों मैं बीए द्वितीय वर्ष का छात्र था, जब युवा कथाकार चन्दन पाण्डेय ने मुझे मार्केस की लिखी ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ नामक उपन्यास दिया. मैंने पहली बार इस उपन्यास को अपनी कमजोर अंगरेजी के नाते रुक-रुक कर पढ़ा. लेकिन एक बार पूरी होने के बाद दीवानावार दूसरी बार भी पढ़ डाला. कुछेक महीने बाद तीसरी बार भी. और किताब या मार्केस का मुझ पर असर कुछ यूं हुआ कि मेरी ईमेल आईडी का पासवर्ड, जो कि तब तक मेरी गर्लफ्रेंड का नाम हुआ करता था, बदल कर  उपन्यास की एक किरदार ‘फेर्मिना दासा’ (ferminadaza) का नाम हो गया. मार्केस को और गहरे से समझने के लिए, मैंने तय किया की उसकी बाकी किताबें मूल स्पैनिश में ही पढूंगा और मैं अपने अभियान में लग गया.

लैटिन अमेरिका में, सीमा विवाद एवं पासपोर्ट और वीसा की बाध्यताओं के बावजूद अंतर्देशीय विवाहों की बहुलता है. रंग एवं वर्ण भेद नहीं के बराबर है. इस तरह, संस्कृतियाँ आपस में इतनी घुली-मिली हैं जैसे पतीले में पक रहे चावल के दाने. अतः मेक्सिको सिटी भर में जिन लोगों से मेरी जान पहचान हुई, उनमें पेरू, पनामा, ग्वाटेमाला और चिली तक के नागरिक रहे. जिनसे मुझे पता चला कि समूचे लैटिन अमेरिका में मार्केस ‘गाबो’ की संज्ञा से बुलाये जाते हैं. एक लेखक के लिए इससे बड़ा सम्मान और क्या हो सकता है कि देश ही नहीं, बल्कि एक पूरा महाद्वीप उसे दुलार करता है. इस बात की तसदीक करता एक प्रसंग- दिसम्बर महीने की शुरुआत में मेक्सिको सिटी में ‘एल फिन’ यानी ‘वर्ष के अंत’ के नाम पर जगह-जगह पुस्तक मेले लग रहे थे. कुछेक घनघोर ‘असाहित्यिक’ स्टाल्स के अतिरिक्त कोई भी विक्रेता ऐसा नहीं मिलता जिसके पास ‘गाबो’ मौजूद न हो. मैं यदि पूछता कि मार्केस की ‘फलां’ किताब है कि नहीं’, तो वे आपस में बोलते, “‘गाबो’ की ‘फलां’ किताब दे दो.” इन दिनों जैसे शॉपिंग माल्स में हमें वस्तुओं पर ‘बाई वन गेट वन’ जैसे ऑफर मिल जाया करते हैं, पुस्तक मेलों में ऐसे ऑफर्स सबसे अधिक मार्केस की किताबों के साथ दीखते. मेक्सिकन मुद्रा के सामने करीब पांच गुना अवमूल्यित भारतीय रुपयों के नाते मेरे लिए उन दिनों इससे अधिक ख़ुशी की बात और क्या हो सकती थी?

यह बात मुझे तब तक नहीं पता थी कि जन्म से लेकर बतौर लेखक विश्व विख्यात होने तक मुख्यतः कोलंबिया में रहे मार्केस इन दिनों मेक्सिको में रहते हैं, जब तक कि मेरे ऑफिस की सहकर्मी मारिया उईदोब्रो उर्फ़ ‘तोनी’ ने एक रोज यह न पूछ लिया कि, “गाबो मेक्सिको में ही तो रहते हैं, तुम उनसे मिल क्यूँ नहीं लेते?” तोनी ने, हालाँकि, यह बात यूँ ही कह दी थी, लेकिन मैंने इसे बेहद गंभीरता से लिया और आते जाते तोनी से इस बात की ही गुहार लगाता रहा कि वो मेरी मुलाक़ात मार्केस से करा दें. दो रोज की लगातार जिद के बाद तोनी ने मुझे आश्वासन दिया कि वह जरूर ही इस सिलसिले में प्रयास करेंगी. तोनी ने अपने रिश्तेदारों और उनकी जान-पहचान के लोगों तक को फोन कर-करके किसी म्यूजियम, पुस्तकालय, आर्ट गैलरी आदि में काम करने वाले कम से कम दसियों लोगों से बात की और मार्केस का पता और फोन नम्बर जानने की कोशिश की. इस सिलसिले में एक फोन नंबर मिला भी, लेकिन उसकी सेवायें रद्द थीं. यूँ, ढेर सारी छानबीन करने के बाद पता चला कि सन 1999 के बाद से मार्केस ने फोन का प्रयोग करना बंद कर दिया था, और उन तक पहुँचने का इकलौता ज़रिया फ़िलहाल उनके छोटे भाई ‘खाईमे गार्सिया मार्केस’ हैं. तोनी अपनी कोशिश में अगले दिन भी लगी रहीं, और कोलंबियाई दूतावास में काम करने वाले अपने किसी दूर के सम्पर्की के ज़रिये खाईमे गार्सिया मार्केस का फोन नम्बर उपलब्ध कर लिया.

यह बात फरवरी के दूसरे या तीसरे सप्ताह की रही होगी, जिसके बाद मेक्सिको में मेरे प्रवास के करीब दस-बारह दिन और बचते थे. तोनी ने मेरी ख्वाहिश के बारे में खाईमे गार्सिया मार्केस को इत्तेला देकर अपॉइंटमेंट लेने की खातिर फोन मिलाया. कोई ज़वाब नहीं आया. हमने दो-तीन दफे और कोशिश की, लेकिन सिर्फ घंटी बजती रही, बिना उत्तर.

मैंने अगली सुबह खुद ही खाईमे गार्सिया मार्केस को फोन करने का निश्चय किया और होटल वापस आ गया. मैंने अपने फोन में अधिक क्षमता का मेमोरी कार्ड डालने के साथ उसके ऑडियो रिकॉर्डर की जांच की, और पूरी तैयारी कर ली कि सुबह से लेकर शाम तक का जो भी कोई वक़्त मुझे दिया जाए, मार्केस से अपनी मुलाक़ात के लिए मेरे बंदोबस्त मुकम्मल हों. हालाँकि अभी तक सब कुछ अनिश्चित था, लेकिन मैं अगले दिन के लिए कुछ वैसे ही उत्साहित था जैसे समूचा बचपन मैदानी क्षेत्रों में गुज़ार देने के बाद मैं पहाड़ को सिर्फ देख नहीं, बल्कि एक बार छू लेना चाहता था. असल में मैं मार्केस को भी एक बार छू लेना चाहता था. मैं मार्केस को पृथ्वी के दूसरे छोर तक के लोगों के दिलों में पल रहे उनके लिए बेशुमार प्यार के बारे में बता आना भी चाहता था.

‘मार्केस-मार्केस’ रात बीती. मैंने भारत से ले आये कपड़ों में से पैंट-शर्ट का सबसे अच्छा दिखने वाला जोड़ा पहना, जूते आदि साफ़ किया और ऑफिस के लिए निकल लिया. मुझे पता था कि अगर अपॉइंटमेंट तय हो गया तो काम की दुहाई देकर मेरी मैनेजर मुझे रोकेंगी नहीं (जिस भंगिमा के लिए मैं उनका शुक्रगुज़ार हूँ). बाक़ी, मैंने एक दूसरे अज़ीज़ सहकर्मी क्रिसोफोरो से भी बात कर ली थी गाड़ी लेकर मेरे साथ चलने के लिए. ऑफिस में मुझसे पहले ही से तोनी मौजूद थीं. हमने मेक्सिकन संस्कृति के तहत एक दूसरे के गाल से गाल छूकर अभिवादन किये, और तोनी ने बिना पूछे डायरी निकाल खाईमे गार्सिया मार्केस का नंबर मिला दिया. घंटी फिर से बजी और चंद सेकेंड्स में उठा भी लिया गया. तोनी ने पूछा तो उधर से ज़वाब आया कि, ‘हाँ, मैं खाईमे.’ तोनी ने उनसे कहा कि भारत से एक ‘युवा लेखक’ श्रीकांत आया है, जो गाबो से मिलना चाहता है. मुलाक़ात के लिए यदि अपॉइंटमेंट मिल सके तो मेहरबानी होगी. खाईमे की बुजुर्ग आवाज़ ने मेरी भावना का स्वागत किया और इसपर अपनी ख़ुशी जताई. लेकिन साथ ही साथ उन्होंने ‘मुलाक़ात संभव न होने’ की बात भी जोड़ दी. उन्होंने बताया कि पिछले कुछ रोज़ से मार्केस साहब कि तबीयत खराब हो गयी है और वे चिकित्सकों की निगरानी में हैं. उन्होंने मुझे आश्वासन दिया कि मैं चंद हफ्ते रुककर फिर से उन्हें फ़ोन कर लूँ, स्थिति में सुधार रहा तो गाबो भी मुझसे मिलकर खुश होंगे. इसके बाद किसी तरह की ज़िरह की संभावना नहीं बचती थी. मैंने गाबो के स्वास्थ्य लाभ की शुभकामना देकर खाईमे जी को अलविदा कहा, और तोनी को ढेर सारा शुक्रिया.

वह शायद शुक्रवार का दिन था. काम में मेरा मन न लगा, इसे मेक्सिको की मेरी पूरी टीम ने भांप लिया. जैसे एक बच्चा दूर शहर से आने वाले अपने चाचा द्वारा लाये जाने वाले खिलौने का इंतज़ार कर रहा हो, और अचानक पता चले कि चाचा का घर आना फिलहाल टल गया. तोनी और क्रिसोफोरो समेत समूची टीम ने चुपके से तैयारी की और लंच के नाम पर हम क्रिसोफोरो तथा एक अन्य सहकर्मी की कारों में बैठकर मेक्सिको सिटी के न जाने किस कोने तक बढ़ आये. बता दूं, कि मेक्सिको समेत लैटिन अमेरिका के अधिकतम देशों में दोपहर के भोजन के बाद एक घंटे के विश्रामावकाश लेने की परंपरा है. इस तरह से लगभग प्रत्येक कार्यालय में मध्यावकाश कुल दो घंटे का हो जाता है. यूँ, अचानक योजित इस लंच की तफसील फिर कभी, लेकिन कुल मिलाकर ‘मार्केस से न मिल पाने’ की ख़लिश के बावजूद दिन यादगार रहा.

सप्ताहांत बीता और सोमवार तड़के ऑफिस पहुँचने पर मैंने पाया कि मेरे मेलबॉक्स में मेरी वापसी का पक्का टिकट मेरा इंतज़ार कर रहा था. यात्रा का दिन शुक्रवार. यानी कुल मिलकर मेक्सिको में मेरी रहनवारी के पाँच दिन बचे. जबकि खाईमे गार्सिया मार्केस के मुताबिक़ मुझे चंद हफ़्तों बाद फिर से फोन करना था. फ़ोन करूँ या न करूँ की पशोपेश में दो दिन और भाग गए. बुधवार की दोपहर बाद तक मैं खुद को रोक नहीं पाया और फिर से खाईमे गार्सिया मार्केस का नम्बर डायल कर दिया. फ़ोन किसी महिला ने उठाया, जो शायद गाबो की पत्नी ‘मेर्सेदेस बार्चा’ उर्फ़ ‘गाबा’ थीं. उन्होंने बताया कि खाईमे फिलहाल मेक्सिको से बाहर गए हैं. मैं सीधे मुद्दे पर आते हुए पूछा, ‘और गाबो?….’ लगे हाथों मैंने खुद के लेखक और हिन्दुस्तान से होने वाली स्क्रिप्ट भी पढ़ दी और पूछ बैठा कि क्या गाबो से मेरी बात हो सकती है, फ़ोन पर ही सही? उन्होंने काफी विनम्रता के साथ खेद जताया और बोली कि गाबो के फेफड़ों में संक्रमण हो गया है, सांस लेने तक में तकलीफ है और उन्हें ठीक होकर बातचीत कर पाने में महीने लग सकते हैं.
श्रीकांत दुबे


यूँ, गाबो से मिल पाने के इस अंतिम आस के टूटने के चंद ही घंटों बाद एक मीटिंग से यह बात निकल कर आई कि अप्रैल के अंत तक मुझे वापस मेक्सिको आना पड़ सकता है. उनकी खराब तबीयत के बाद गाबो से मिल पाने की सबसे मुफीद सूरत ऐसे ही बन सकती थी कि मैं कुछेक महीनों बाद वापस आऊं, जब तक कि वे स्वास्थ्य लाभ कर लें. यूँ, घंटे दर घंटे मेक्सिको के छूटते जाने की खटकन के बावजूद मैं एक उम्मीद भर की ख़ुशी के साथ भारत लौट आया.

आज 18 अप्रैल है और मेरे मेक्सिको वापसी की योजना काफी आगे तक बढ़ चुकी है. और जल्द ही रवानगी की तारीख और टिकट मेरे हाथ में आ सकते हैं. इस बीच यह खबर कि “मार्केस नहीं रहे.” अभी अभी लग रहा है कि ठीक मेरे पैरों के नीचे एक सुरंग बनने लगी है, जिसमें घुसता जाता हुआ मैं पृथ्वी के उस पार यानी मेक्सिको में निकल जाने वाला हूँ. भाग-भाग कर पूरा शहर खोजने वाला हूँ. और बस यही पाने वाला हूँ कि “मार्केस नहीं रहे”. यूँ तो दुनिया तुम्हें सदा ही अपने आस-पास पायेगी और महसूसती रहेगी, लेकिन मैंने कहा न मार्केस, कि मैं तुम्हें छू लेना चाहता था, ओह!
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लेखक-संपर्क- shrikant.gkp@gmail.com

 
      

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24 comments

  1. मैं तब नहीं पढ़ सका था जब यह संस्मरण छपा था।
    मिलने का संस्मरण तो बहुतों ने लिखा है/होगा,
    लेकिन न मिल पाने का संस्मरण!
    अनूठा,
    बेहतरीन।
    शुक्रिया श्रीकांत।

  2. आप का संस्मरण रोचक है । मार्केस की जी तस्वीर आप ने खींची है उस से मार्केस की लोकप्रियता का अनुमान किया जा सकता है ।

  3. Achha lekh…jo badtha hai

  4. अविस्मरणीय संस्मरण..बधाई ..श्रीकांत जी

  5. अच्छा संस्मरण ..बधाई

  6. बेमिसाल लेख.. मानो ऐसा लग रहा है की आपके मार्केस से ना मिल पाने की कशिस मुझे भी कचोट रही है… स्व नेल्सन मंडेला " मदिबा " से मिलने और उनको छू लेने की मेरी तमन्ना भी कुछ इसी हद्द तक थी….सुन्दर लेख के लिए बधाई…

  7. ‘मार्केस-मार्केस’ रात बीती. Kudos !!

  8. अद्भुत… दीवानगी से भरा हुआ। यह मार्खेज का ही जादू है कि कोई भी दीवाना हो सकता है… समझ में नहीं आ रहा कि इस सुंदर संस्मरण के लिए श्रीकांत को बधाई दूँ या मार्खेज से न मिल पाने पर उदास हो जाऊँ… कि अब वह मार्खेज से कभी नहीं मिल पाएँगे।

  9. सुंदर लेख !

  10. मैं तब नहीं पढ़ सका था जब यह संस्मरण छपा था।
    मिलने का संस्मरण तो बहुतों ने लिखा है/होगा,
    लेकिन न मिल पाने का संस्मरण!
    अनूठा,
    बेहतरीन।
    शुक्रिया श्रीकांत।

  11. आप का संस्मरण रोचक है । मार्केस की जी तस्वीर आप ने खींची है उस से मार्केस की लोकप्रियता का अनुमान किया जा सकता है ।

  12. Achha lekh…jo badtha hai

  13. अविस्मरणीय संस्मरण..बधाई ..श्रीकांत जी

  14. अच्छा संस्मरण ..बधाई

  15. बेमिसाल लेख.. मानो ऐसा लग रहा है की आपके मार्केस से ना मिल पाने की कशिस मुझे भी कचोट रही है… स्व नेल्सन मंडेला " मदिबा " से मिलने और उनको छू लेने की मेरी तमन्ना भी कुछ इसी हद्द तक थी….सुन्दर लेख के लिए बधाई…

  16. ‘मार्केस-मार्केस’ रात बीती. Kudos !!

  17. अद्भुत… दीवानगी से भरा हुआ। यह मार्खेज का ही जादू है कि कोई भी दीवाना हो सकता है… समझ में नहीं आ रहा कि इस सुंदर संस्मरण के लिए श्रीकांत को बधाई दूँ या मार्खेज से न मिल पाने पर उदास हो जाऊँ… कि अब वह मार्खेज से कभी नहीं मिल पाएँगे।

  18. सुंदर लेख !

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