अपने पहले उपन्यास ग्लोबल गांव के देवता के चर्चित और बहुप्रशंसित होने के बाद रणेन्द्र अपने दूसरे उपन्यास गायब होता देश के साथ पाठकों के रूबरू हैं. पेंगुइन बुक्स से प्रकाशित यह हिंदी उपन्यास अनेक ज्वलंत मुद्दों को अपने में समेटता है मसलन आदिवासी जमीन की लूट, मीडिया का घुटना टेकू चरित्र, फैलता हुआ रियल एस्टेट कारोबार और आदिवासियों का अविराम संघर्ष। प्रस्तुत है इस उपन्यास के बारे में मैत्रेयी पुष्पा की टिप्पणी- जानकी पुल.
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पत्रकार किशन विद्रोही ने बिल्डर कृष्ण कुमार में ढल कर हवा के रुख की ओर पीठ कर दी। औकात बढ़ी, पंख मिले, आकाश मिला लेकिन काले नालों के दरवाजे नहीं हुआ करते, लौटने के द्वार नहीं मिले — इसी किशन विद्रोही की हत्या की खोज खबर से इस उपन्यास की शुरुआत होती है, जो व्यक्ति की अच्छाइयों बुराइओं, प्रेम घृणा और लड़ाई के मोर्चों पर हार जीत के साथ आगे बढ़ती है।
यह कथा आधुनिक विकास की तमीज के हिसाब से रातों रात गुम होजाती बस्तियों के बाशिंदों की दर्दनाक दास्तान कहती है, जिन पर कागजी खजाना तो बरसाया गया लेकिन पाँव तले की धरती छीन ली। उनके पास झोला भर नोट तो थे, घर छोड़ देने पड़े। अपनी आँखों देखने का अभिशाप झेलना पड़ा कि ऊबड़ खाबड़ बस्ती खोदकर फेंक दी गयी। फिर खानाबदोशों की तरह ” ऐश्वर्य विहार कॉलोनी ” का चमचमाता दृश्य आखों की रौशनी पर हमला करता रहा। मकदुम टोली कहाँ है नाम निशान मिट गया। पूरे देश में मिटाने और मिटने का सिलसिला चल रहा है। रणेन्द्र बस्तियों के उजड़ने और बांधों द्वारा धरती को निगलने को लेकर तीखी बेचैनी से भर उठते हैं क्योंकि बाँध के विरोध पर ही सेनानी परमेश्वर पाहन की हत्या होगयी और हत्या के बाद वह नक्सल घोषित कर दिया, यह भी आधुनिक भारत की जरूरी नीति मणि जारही है। माफियागिरी और बाहुबलियो का यह गठबंधन अपन उत्कर्ष पर है।
रियल एस्टेट, यह शब्द किस कदर हुकूमत कर रहा है, यह कोई आदिवासियों से पूछे और फिर वहाँ के किसानों के जीवन स्रोतों की पड़ताल की जाये कि जो रियल एस्टेट पहले छोटे नाले की तरह था फिर नदी हुआ और फिर नद अंत में समुद्र हो गया कि उपजाऊ धरती के साथ खनिज प्लेटिनम सोना चंडी जैसी धातुओं का सर्वशक्तिमान की तरह बटवारा करने लगा। सरकार अब छोटा हिस्सा भर रह गयीं। मगर इस धन- दानव के सामने भी आदिवासी ही खड़े हुए — नीरज पाहन , सोनामनी बोदरा , अनुजा पाहन और रमा पोद्दार जैसे लोग अपनी भूमि के लिए अपने संकल्प से डिगने वाले नहीं थे वे अपने नदिया पहाड़ खनिज और बेटियों के लिए लड़ाई की मशाल जलाकर आगे बढ़ते रहे क्योंकि मुंडा जनों को संघर्ष के शिव कुछ सूझता नहीं। उनको यहाँ से जाना ऐसे ही नागवार गुजरता है जैसे उनके पूर्वज मरने के बाद भी स्वर्ग नहीं जाते , “अदिन्ग बोंगको ” बनकर यहीं रहते हैं ←
यह उपन्यास बड़े फलक का आख्यान समेटे हुए अपनी लोक संस्कृति के अद्भुत दर्शन कराता है – गीत , नृत्य के साथ सुस्वादु भोजन की ऐसी तस्वीरें पेश करता है कि बरबस ही उस क्षेत्र में उतर जाने का जी चाहता है। साथ ही रणेन्द्र ने अपनी श्यामवर्णी तरुणियों की रंगत में बैंजनी रश्मियाँ भर कर अद्भुत चितेरे की तरह नयी कोंध दी है। श्यामरंगी किरणों से बुनी कथा जहाँ सौंदर्य कीसाक्षी बनती है वहीँ अपनी रणभेरियों की गूँज केसाथ रक्त यात्रा भी करती है। साथ ही अपने सत्यापन में यह भी कि मुंडा समाज में पितृसत्ता के अपने रूप हैं तो मुंडा स्त्रियों की दोयम स्थिति के अपने दुःख!
यह विविध वर्णी उपन्यास साहित्य में अपनी मुकम्मल जगह बनाएगा , ऐसी मुझे उम्मीद है।
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मैत्रेयी जी ने भूमिका लिखी है तो नि:संदेह अच्छी होगी…..!
सुंदर समीक्षा ।
मैत्रेयी जी की समीक्षा उपन्यास को पढने के लिये उकसा रही है । मँगाकर पढना ही पडेगा ।
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