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शायद कुछ नया होने वाला है

हिंदी के वरिष्ठ कवि, ‘समास’ जैसी गहन विचार-पत्रिका के संपादक, भारतीयता के विचारक उदयन वाजपेयी का यह लेख आज ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित हुआ है. इसे बिना किसी पूर्वाग्रह और दुराग्रह के पढ़े जाने की जरुरत है- जानकी पुल.
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हुआ वही है जिसका कम-से-कम मुझे पूरा विश्वास था। मेरी दृष्टि में यह ठीक हुआ। वंशवाद का पिछले छह-सात दशकों से वहन कर रही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस इस बार बुरी तरह हार गयी है और सम्भवतः एक ऐसी स्थिति को प्राप्त हो गयी है जहाँ से उसका शक्ति सम्पन्न होकर वापस लौटना बेहद कठिन होगा। अगर यह हो सका तो केवल उस सूरत में होगा जब वह अपने ऊपर से गाँधी-नेहरू परिवार का बोझ उतार डालेगी। वैसे इस वंश को गाँधी-नेहरू वंश कहना बिलकुल गलत है क्योंकि इसमें गाँधी के नाम के सिवा उनका कुछ नहीं है और वह भी इसीलिये है क्योंकि- जहाँ तक मुझे पता है- यह उपनाम उस वंश तक महात्मा गाँधी की मेहरबानी से पहुँच गया है। वरना एक ऐसे वंश को जिसने विगत सात दशकों तक मोटे रूप से भारत को पश्चिमीकृत करने का विराट उपक्रम किया और उसके लिये भारत के अपने पारम्परिक विमर्श को (जो अंग्रेजी शासन के कारण हाशिये पर फेंक दिया गया था) दोबारा आयत्त करने का वह प्रयास नहीं किया जो हमें स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद सहज ही करना चाहिए था। इसके स्थान पर कांग्रेस के नेतृत्व में भारतीय राजनीति की सारी शक्ति एक वंश के चारों तरफ और लम्बे समय तक सोवियत समाजवादी विमर्श के इर्द-गिर्द सिमटकर रह गयी थी। 

आज जो तथाकथित वाम और अंग्रेजीदाँ बुद्धिजीवी इस बात को लेकर सशंकित है कि कहीं सारी राजनीतिक शक्ति नये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चारों तरफ सिमट न जाये, उन्हें इस बात पर एक क्षण जरूर सोचना चाहिये कि जब कांग्रेस जैसे पुराने राजनीतिक दल की सारी शक्ति नेहरू-गाँधी परिवार के दो सबसे अयोग्य सदस्यों के चारों ओर सिमट गयी थी तब वे कहाँ थे। तब उनके विरोध के स्वर कहाँ थे जब भारत की नियति कुछ ऐसे लोगों के हाथों में आ गयी थी जिन्हें इस परम्परा का ककहरा भी नहीं आता था। मेरा पक्का विश्वास है कि आने वाले दिनों में देश में राजनैतिक विमर्श की भाषा बदलेगी और उसमें वे सारे अदृश्य सेंसर जो हमारे तथाकथित कम्युनिस्ट और अंग्रेजीदाँ बौद्धिकों ने लगा रखे हैं, झर जायेंगे। मैं इसका एक उदाहरण देता हूँ: मैं कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली के सेण्ट स्टीफेन महाविद्यालय में सौन्दर्यशास्त्र पर कुछ बोलने गया था। अपनी बातचीत के दौरान जब मैंने, मेरी नज़र में विश्व के महानतम चिन्तकों में एक, अभिनव गुप्त का जिक्र किया, वहाँ कुछ छात्रों ने यह प्रश्न उठाया कि मैं जिस परम्परा की बात कर रहा हूँ उसमें जाति प्रथा रही है। इसका अर्थ है कि जब भी भारतीय पारम्परिक विवेक और विद्वता की बात होती है अधिकांशतः उसे भारत के एकांगी, औपनिवेशक और बहुत हद तक झूठे समाजशास्त्री विवेचन से अवरूद्ध कर दिया जाता है। हमने भारत में एक ऐसा बौद्धिक विमर्श उत्पन्न कर लिया है जिसमें स्वयं भारतीय पारम्परिक दृष्टियों के प्रवेश पर निषेध है। इसी का फल है कि हमारा अधिकांश सांस्कृतिक और साहित्यिक विमर्श आधुनिक पश्चिमी विमर्शों की दोयम दर्जे की प्रतिकृति होकर रह गया है। इसीलिये इस विमर्श का कोई बहुत गहरा सम्बन्ध भारत की अपनी अन्तःचेतना और अन्तःकरण से नहीं बन पाया है। 

अंगरेजी शासन के दौरान अपनी परम्परा के प्रति जो शर्म हमारे भीतर विकसित हुई थी, उसे कांग्रेस-वाम विमर्श ने सिर्फ बढ़ाया। उसे अपने देश की परम्पराओं के प्रति जिज्ञासा के आलोक में दूर करने के स्थान पर गाढ़ा किया है और अब स्थिति इतनी अधिक हाथ से जा चुकी है कि हमें अपने ही पारम्परिक दृष्टिकोणों को जानने के लिए पश्चिमी विद्वानों की मदद लेना पड़ती है। कांग्रेस में पनपे वंशवाद के विषय में यह याद कर लेना आवश्यक है कि इसके कारण भारत में एक सच्ची गणतान्त्रिक राजनीति का उदय ही नहीं हो पाया। वह इसीलिये क्योंकि अगर यह वंश भारत के विभिन्न अंचलों में स्वतन्त्र नेतृत्व को विकसित होने देता, कांग्रेस पार्टी पर से इस वंश की पकड़ ढीली पड़ जाती। यानी स्वयं को शक्ति सम्पन्न बनाये रखने के लिये इस वंश ने एक इतने पुराने राजनैतिक दल को निरन्तर कमजोर किया और साथ ही एक ऐसा राजनैतिक आदर्श देश के सामने रखा जिसमें लगभग सभी राजनैतिक दल इसी तरह की पकड़ के आदी हो गये। 

नये प्रधानमंत्री के राजनैतिक दल पर और कोई प्रश्न भले ही उठाया जा सकता हो उस पर यह प्रश्न नहीं उठाया जा सकता। इसीलिये मुझ जैसे लेखक को विश्वास है कि चाहे जानबूझकर या अनजाने ही इस नयी सरकार के आने से देश में उन गणतान्त्रिक मूल्यों को शक्ति मिलेगी जिनके बिना भारत का लोकतन्त्र कहने भर को लोकतन्त्र रहेगा। क्या यह सच नहीं कि यह कई वर्षों बाद हो रहा है, बल्कि शायद पहली बार हो रहा है कि जो राजनैतिक दल केन्द्र में सत्ता सम्भालने वाला है उसके अनेक प्रादेशिक नेता अत्यन्त महत्वपूर्ण और शक्ति सम्पन्न है। ये गणतान्त्रिक मूल्य वंशवाद संक्रमित किसी अन्य राजनैतिक दल के बूते के बाहर है। 

चुनाव के परिणामों से एक और महत्वपूर्ण चीज हुई है। अधिकांश पाठकों ने यह लक्ष्य किया होगा कि चुनावी प्रचार-प्रसार के दौरान सबसे अधिक बात भारत में मुसलमानों की स्थिति और सम्भावना पर हुई है। एक तरह से ठीक भी है क्योंकि एक लोकतान्त्रिक देश अपने अल्पसंख्यक समुदायों को किस तरह बरतता है यह उसके लोकतान्त्रिक होने का बड़ा प्रमाण माना जाता है। पर क्या इसका अर्थ यह है कि उस देश के बहुसंख्यक लोग अपने ही देश में अदृश्य हो जायें। क्या यह सच नहीं कि अधिकांश राजनैतिक और बौद्धिक विमर्श में मुसलमान और ईसाई ‘दृश्य अल्पसंख्यक’ है और हिन्दू ‘अदृश्य बहुसंख्यक’। इन चुनावों के परिणामों से यह पहली बार होगा कि अब भारत में हिन्दू, मुसलमान और ईसाई आदि सभी समुदाय दृश्य होंगे। यह बात याद कर लेना बुरा नहीं होगा कि भारत में, कम-से-कम उसके राजनैतिक विमर्श में इस समता की स्थापना स्वागत योग्य है। आखिर कब तक व्यापक हिन्दू समुदायों को सिर्फ जातियों के सन्दर्भ में सन्दर्भित किया जाता रहेगा। इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि इस कारण किसी को भी किसी भी अन्य समुदाय पर प्रभुता जताने का अधिकार मिल जाता है। पर कम-से-कम अब विमर्श और सार्वजनिक जीवन के स्तर पर उन सब परिपाटियों पर शर्मिंदा होने की, उन्हें अवरूद्ध करने की चेष्टाएँ कम हो जायेंगी जिन्हें हिन्दू परिपाटियाँ कहकर लम्बे समय से लान्छित और दरकिनार किया जाता रहा है। बहुत लम्बे समय से मैं हिन्दी में भूमण्डलीयकरण के विरोध के स्वर सुनता रहा हूँ और आज नयी सरकार की भी आलोचना इन्हीं सन्दर्भों में होना फिर शुरू हो रही है। 

लेकिन इस आलोचना के पहले क्या यह जानलेना ठीक नहीं कि क्या भूमण्डलीयकरण भारत के लिए कोई नयी घटना है। क्या कोई ऐसा समय रहा है जब भारत भूमण्डलीयकृत न रहा हो। बहुत लम्बे समय से भारत अपनी शर्तों पर विश्व से जुड़ा रहा है। दुनिया के दूर-दराज़ इलाकों में आपको आज भी शताब्दियों से रह रहे अनेक भारतीय परिवार मिल जायेंगे जो उन पराये देशों में व्यापार करने गये थे। यह सच है कि भारत में कुछ समुदायों को समुद्र पार करने की अनुमति नहीं थी। संयोग से ये वे समुदाय थे जो ज्ञान और स्मृति के कार्य में लगे हुए थे। इस कार्य में लगे लोगों को देश से बाहर जाने देने का अर्थ देश के संचित ज्ञान को देश से बाहर जाने देना था जो आज बड़े पैमाने पर हो रहा है। पर इसका यह आशय नहीं है कि किसी भी भारतीय को समुद्र पार करने की अनुमति नहीं थी। हमारे देश के व्यापारी बहुत लम्बे समय से पराए देशों में जाकर व्यापार करते रहे हैं। अंग्रेजी शासन के बाद यह सारा व्यापार अंग्रेज करने लगे। यहाँ तक कहा जाता है कि अठारहवीं शताब्दी की शुरूआत तक पूरी दुनिया का सत्तर से अधिक प्रतिशत व्यापार भारत और चीन किया करते थे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद हम सोवियत रूस के चक्कर में पड़ गये। वह भूमण्डलीयकरण जो सोवियत संघ कर रहा था भारत ने उसका हिस्सा बनकर अपना बहुत-सा नुकसान किया। अर्थशास्त्रियों को चाहिये कि वे इस दृष्टि से स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद के चार-पाँच दशकों का अध्ययन करें। हमारे वाम और अंग्रेजीदाँ बुद्धिजीवियों से ये पूछा जाना चाहिए कि जब तक हम सोवियत भूमण्डलीयकरण के अंश थे तब तक उन्हें कोई मुश्किल नहीं हुई और हम जब उस चक्रव्यूह से बाहर आ गये हैं वे इतने व्यथित है। कोई भी आधुनिक भूमण्डलीयकरण स्वागत योग्य नहीं है पर आधुनिक भूमण्डलीयकरण सोवियत भूमण्डलीयकरण की तुलना में कहीं बेहतर है क्योंकि इस भूमण्डलीयकरण में कम-से-कम कला, साहित्य और संस्कृति की शक्तियाँ इसके भीतर रहकर इसे प्रश्नांकित करती हैं और इसकी इकहरापन आरोपित करने की प्रवृत्ति के विरूद्ध उपाय करती हैं। सोवियत भूमण्डलीयकरण में इन शक्तियों को भी नष्ट कर दिया गया था। इसीलिये वह कहीं अधिक इकहरा भूमण्डलीयकरण था। 

अगर हमें भूमण्डलीयकरण का विरोध करना है तो हमें हर उस भूमण्डलीयकरण का विरोध करना होगा जो सारी दुनिया को एक-सा बनाने में लगा है। हम यह नहीं कर सकते कि हम आधुनिक भूमण्डलीयकरण का विरोध करें और सोवियत भूमण्डलीयकरण के विषय में प्रश्न तक न उठायें। भारत की नई सरकार इस दिशा में क्या करती है यह देखना बाकी है पर उसके होने मात्र से अगर हमारे राजनैतिक और बौद्धिक विमर्श और दृष्टिकोण में कुछ खुलापन आ सका, वह स्वागत योग्य होगा। हिन्दी लेखक होने और हिन्दीभाषी होने के नाते मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि अब ऐसी सरकार केन्द्र में स्थापित होगी जिसके अधिकांश मंत्री भारतीय भाषाओं में अपना राजनैतिक विमर्श करते हैं। इस रास्ते शायद हमारे हिन्दी के समाचार पत्रों की स्थिति सत्ता के संदर्भ में बेहतर हो सकेगी। मुझे लगता है कि शायद कुछ नया होने वाला है।

लेखक संपर्क- udayanvajpeyi@gmail.com
 
      

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9 comments

  1. उदयन शर्मा जी की यह स्थापना मुझे महत्वपूर्ण लगी कि 'हिंदू' भी अन्य समुदायों की तरह दृश्य होंगे .. ऐसा कहते हुए शायद वह लोकतंत्र के स्पेस में एक प्रतियोगी इकाई के रूप में 'हिंदू' को भी एक 'बौद्धिक रूप से' मान्यता प्राप्त इकाई कहना चाह रहे हैं .. वह जिस बौद्धिक परंपरा से मुक्त होने की संभावना देखकर खुश हो रहे हैं वह शायद यही है जो यह मानता आता रहा है कि एक सक्रिय सामाजिक- राजनीतिक विमर्श के रूप में 'बहुसंख्यक' की उपस्थिति का अनिवार्य मतलब 'बहुसंख्यक फासीवाद' का खतरा है .. उदयन शायद यह मानना चाहते हैं कि लोकतंत्र की जमीन पर बाहरी और भीतरी अनेक प्रतियोगिताओं के साथ 'हिंदू' भी एक स्‍वायत्‍त सामाजिक सांस्‍कृतिक हित समूह है और लोकतंत्र के पूरे आकाश में उस परंपरा के पास भी देने के लिए बहुत कुछ है .. वह इसका विरोध कर रहे हैं कि 'हिंदू' अगर कुछ है तो बस एक फासीवादी संभावना है … वैसे, पाश्चात्‍य बौद्धिक- राजनीतिक परंपरा ने 'हिंदू' से इतर देखा और जाति आदि को मूलभूत प्रतियोगितात्‍मक इकाई मानकर लोकतांत्रिक- राजनीतिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया था, तो यह भी एक सच है कि इस बौद्धिक परंपरा पर काबिज मध्‍यवर्ग पाश्चात्‍यता के प्रति रूढ़ होने में अपना हित देखता है .. जिससे अपनी परंपरा के कई पहलू इमानदारी से विमर्श के बिना छूट गए .. एक दृश्य राजनीतिक इकाई के रूप में 'हिंदू' ऐसे अनेक छूटे हुए पहलुओं को अपने साथ लाएगा तो यह विमर्श और प्रतियोगितात्म‍क टकराहटों के दायरा को बढ़ाएगा, इस लोकतांत्रिक बेहतरी की उम्मीद भी लगाई जा सकती है ..

  2. बहुत गहन विचार के साथ लिखा गया लेख है और इसे वाकई बिना किसी पूर्वाग्रह-दुराग्रह के पढ़ा जाये तो बात में दम है। इसमें दो राय नहीं कि देश में हालात इस हद तक पहुुँचा दिये गये थे कि हिन्दु शब्द का उल्लेख मात्र ही आपको साम्प्रदायिक क़रार कर दे। मुझे पूरी आशा है कि भारत के इतिहास में यह कालखंड एकबड़ा मोड़ साबित होगा।

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  4. वाजपेयी जी, आप की बहुत सी बातें विचारणीय हैं, धन्यवाद. नयी सरकार से लोकतंत्र के मूल्यों पर क्या असर पड़ेगा यह तो समय ही बतायेगा. लेकिन अगर बात पारम्परिक भारतीय सोच व विमर्श की की जाये, तो क्या नयी सरकार से कुछ हिस्सों से उस सोच व विमर्श की विवधता को नकारा नहीं गया है? मैं कुछ समय पहले के रामानुजम के रामायण से सम्बन्धित आलेख या वेन्डी डोनिगर की पुस्तक का सोच कर यह पूछ रहा हूँ. यह अवश्य है कि नयी सरकार के बहुत से लोगों ने हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं में अधिक बोला है और भारतीय पारम्परिक सोच की बात भी की है, पर क्या वह सोच दायरों में बन्द बन्द परम्पराओं की होगी?

  5. congress v nehru gandhi parivaar ne bahut se tufan jhele hain aur kattar soch vale vipakshi bhi fir bhi baar baar mazboot ban khadi hui hai is baar bhi aisa hi hone vaala hai .ye haar vaise bhi nehrui gandhi parivaar kee nahi janta kee har hai kyonki jise unhone mazbooti dee hai vahi use mazbooti se dharashayi se karega .nice article aapke prasann hone ke liye .

  6. कभी कभी सचमुच खतरा होता है पर अक्सर यह भी देखा जाता है की प्रायोजित खतरे को भय की शक्ल दे दी जाती है, फिर सुरु होता है लकीर को पीटने का दौर.
    उदयन जी को विचार और प्रभात जी को मॉडरेशन के लिए धन्यवाद.

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