मेरे मेल बॉक्स में अनजान पतों से अच्छी-बुरी रचनाएँ आती रहती हैं. जिनको पढ़कर समकालीन सृजनशीलता का अंदाजा लगता है. कुछ अच्छी कविताएँ पढने को मिली ऋचा शर्मा की. जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में शोध कर रही हैं. कविताओं के माध्यम से अस्तित्व को समझने की कोशिश कर रही हैं. कुछ नई तरह की कविताएँ- प्रभात रंजन
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चकाचौंध
तेज़ रोशनी में कैसे आँखें
बुझने लगती है …
उसी रोशनी में तुम
नहाये जा रहे हो ..
क्योंकि तुमने अपनी आँखें
बंद जो कर रखी हैं ..
खोलो इन्हें और देखो ..
उजाले अब अँधेरे हुए जा रहे हैं
उजाले अब अँधेरे हुए जा रहे हैं
सूर्योदय
एकदम सटीक वृत्त
लाल, सुनहरी और चटक
तैर रहा था ..
जल नहीं,
जल के स्त्रोत में ..
जलमग्न था ..
गोधूलि नहीं,
गोधूलि के स्त्रोत में ..
कहानी एक–सी
यह एक नहीं,
अस्त नहीं ..
ये उत्कर्ष की !!
हवा
जहरीली और जानलेवा ..
गला–घोट, साँसों पर चोट
तिनके में,
ताने में, बाने में,
हमारे–तुम्हारे ज़माने में ..
ऐसी चली कुछ खोट ..
आगे नोट, पीछे वोट ..
दल में, दंगल में,
मल में और मल्ल में..
हो रहे सब लोट–पोट
मैं नहीं ये सांस तेरी ..
घोल डाली, झोंक दी
मैं नहीं ये सांस तेरी ..
जहरीली और जानलेवा !!!
रास्ता
डामर–कंकर और कंक्रीट की पट्टियाँ,
जिन्हें मोड़ आने पर सिकुड़ना पड़ता है ..
रेड लाइट के बुझने तक इंतज़ार करना पड़ता हैं ..
रास्ता नहीं ..सड़कें भर हैं !!
जब झाड–झंखाड़ हटाना पड़ता है ,
क़दमों का वज़न माथे पर पड़ता है..
उम्मीद की लौ में देह सुलगना पड़ता है…
रास्ता वही है …जो चलने से से बनता है !!
रास्ता वही है …जो चलने से से बनता है !!
बूँद
दिन–रात यूँ बरसी मैं पल पल ..
खिड़की से बाहर जो हाथ बढाया होता..
मीलों का सफ़र तय किया था मैंने
एक कदम भी धरती का जो नापा होता …
ऊँचाईयों से हर बार उतरी और बेजार हुई
अंजुलियों में एक बार तो उठाया होता …
इंतज़ार में तेरे बादल को मनाया हर बार
बाहें फैलाकर भीगते हुए गाना एक गुनगुनाया होता ..
मिट्टी ने मर्म भाव से अपनाया मुझे
एक बीज जो तुमने पहले से डाला होता …
बूँद मैं बादल से झगड़ कर आयी …
बंधन दीवारों का तोड़कर
खुले मैदानों में
उन्मुक्त उड़ने का साहस तुमने दिखाया जो होता …
बूँद में बरसात बनी, बनती में अंकुर
साथ मिलकर तुमने और मैंने सृजन नया संवारा होता !!
यूँ ‘हाँ‘ या ‘न‘ में ज़िन्दगी नहीं चलती
दिन –रात के बीच सुबह शाम आते हैं,
खट्टे – मीठे के बीच स्वाद तमाम आते हैं,
यूँ ‘हाँ‘ या ‘न‘ में ज़िन्दगी नहीं चलती ..
चलने की राह में मंजिल से पहले ही
सैकड़ों मुकाम आते हैं !
‘वीणा‘
तार ढीले छोड़ दो तो स्वर नहीं निकलते,
जो कस दिए जमकर तो झट से टूट जाते हैं,
आर–पार के बीच हजारों वार आते हैं ..
यूँ ‘हाँ‘ या ‘न‘ में ज़िन्दगी नहीं चलती ..
ज़िन्दगी और मौत के बीच भी
‘जीने‘ और ‘मरने‘ के मौके तमाम आते हैं !
आनंद
कह दूं …पर क्या ?
समझ मुझे नहीं आता
अंतर्मन क्या करे ?
शब्द उचित कोई सूझ नहीं पाता !
मन का मेघ नैनों तक आकर,
बिन बरसे रह जाता ..
Tags richa sharma ऋचा शर्मा
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9 comments
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पढ़ कर अच्छा लगा। वर्ना आजकल हिंदी कविताएँ रविवारी अखबार या धून्डो तो इंटरनेट पर हे मिलती हैं।अच्छा लगता है अंग्रेजी के इस दौर में कोई तो मेरी हिंदी को थामे हुए है।
अत्यन्त प्रशंसनीय एवं सराहनीय शब्दावली
Thank you Braj jee. This is very incouraging 🙂
good poems,,possessing enough potential,emotions and approach..
बहुत बहुत शुक्रिया ब्रिजेश जी.. 🙂 कोशिश करुँगी कि उम्मीदों पर खरा उतर पाऊं ।
अच्छी कवितायेँ ,एक उम्मीद बांधती कि आने वाले दिनों में साहित्य को समृद्ध करेंगी .बिना भाषाई आग्रह के जिस सहजता से कथ्य को रखा गया है वाह प्रसंशनीय है .बहुत बधाई .