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इस तरह निकली घर से जैसे कभी लौटना न हो

ज्योत्स्ना मिलन जी का जाना साहित्य से उस मानवीयता का जाना है जो अब साहित्यिक परिसर में धीरे धीरे विरल होता जा रहा है. ज्योत्स्ना जी ने बहुत अच्छी कविताएं भी लिखी हैं. आज उनको जानकी पुल की तरफ से श्रद्धांजलि स्वरुप चुनिन्दा कविताएं जो श्री पीयूष दईया ने हमें भेजी हैं. अपने शब्दों के साथ ज्योत्स्ना जी सदा हमारे बीच बनी रहेंगी.
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1.

जैसे कभी
इस तरह निकली
घर से 
जैसे कभी लौटना न हो
नहीं देखा पलट कर
हो सकता है
धर दबोचे घर
हो सकता है लील जाए
हो सकता है
घिसटता चला आए
पीछे पीछे
होता रहे पीछे
कुछ भी करता हुआ घर
आगे वह थी
अपने आगे आगे।
2.

पतंग

पतंग उड़ रही थी
जैसे पतंग का उड़ना
आसमान भर उड़ना हो
पतंग को पता नहीं था
कि कहीं चरखी थी
कि कहीं डोर थी
कि डोर किसी के हाथ में थी
कि कोई उसे उड़ा रहा था
ऐसे उड़ रही थी पतंग
जैसे अपने आप उड़ रही हो
और उसे पता नहीं था
कि वह उड़ रही है।
3.

जाने से पहले

ऊपर कब जाएंगे
वे पूछ रहे थे
सबसे ऊपर की मंज़िल पर थे हम
जैसे दुनिया से बाहर हों
खिड़की के बाहर था
समुद्र की तरह पूरे आसमान को थामे
एकलौता एक पीपल
सीढ़ियां चढ़कर नहीं आए थे वे ऊपर
हो सकता है
चढ़ना-उतरना भूल चुके हों
अब तक
उनके पैर
पहले ही पता चल गया होगा
पैरों को
कि ऊपर जाने के लिए उनका चलना ज़रूरी नहीं।   
   
4.

पैर

खड़े थे पैर
असमंजस में
चलें कि खड़े रहें
सोच में पड़ गए वे
चलने से पहले
चट् से
उठते थे
और चलने लगते थे
बचपन में
नहीं होती थीं कोई निष्चित वजहें
चलने की या खड़े होने की
पैरों ने कभी
कल्पना भी नहीं की थी
कि वे सोचने लगेंगे
एक दिन।
5.

किसी दूसरी जगह

पहले ही
दूर चली गई
घर से
किसी दूसरी जगह जाने की तरह
कि लौट आए
घर लौटने की तरह।
6.

दूसरे सिरे पर

अब भी हरा
हो सकता है
पत्ता
अपने दूसरे सिरे पर
आखिरी बार
हरा।
7.

अभी-अभी

कुछ नहीं था
यहां
अभी कुछ देर पहले
अभी-अभी
खड़ी थी
ज्ंगल से पीठ टिकाए
ज्ंगल के हरे को सुनती हुई
जैसे जंगल उसका हो।
8.

वह और मां

एक

अपने होने की
जगमग डोर से
जगा रहा था मां को
काली डिबांग रात में
दो

भीतर चले आए
पेड़ों को
डुला रहा था
मां पर
चंवर की तरह।
तीन

लुढ़का आया था
कमरे में
आसमान चीरती
पतंग की चरखी को
कि
हौले से जा टिके
मां से,
आसमान की तरह।
9.
जितने फूल उतने सूरज
एक
शुरू से शुरू था
सब कुछ
शुरू से था सूरज
शुरू से था चांद भी
पानी में डोंगी की तरह
आसमान में। 
दो

दूर ऊपर था सूरज
धरती से पटापट निकल आए थे
सूरजमुखी,
सूरज को देखने,
सूरजमुखी से घिर गया सूरज।
तीन

सूरजमुखी बना सूरज,
चला आया
भीतर
हर खिड़की से,
जैसे
जितने फूल उतने सूरज हों।
 
      

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10 comments

  1. ' इसे कोई भी
    दिन की घुसपैठ नहीं मानता
    मां की रात में '…हमारे जाने-पहचाने समाज में उपस्थित माँ की स्वयं को पूरा निचोड़ देने जैसी जीवन-शैली का मार्मिक चित्रण !

  2. नमन और श्रद्धांजलि ।

  3. एक महान रचनाकार ….
    मेरे श्रद्धासुमन !!

    अनुलता

  4. जैसे कभी, पैर और रात अद्भुत कविताएँ हैं. ज्योत्सना जी को विनम्र श्रध्धांजलि…

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