-‘कोई भी ढूंढे दुल्हन, खाना वो अच्छा बनाती हो। अनुज खाने के कितने शौक़ीन हैं, मीठा तो अच्छी बनाती ही हो। फिर तो तीज-त्यौहार पर हम दोनों बहुएं आराम से बैठके बतियाएंगे और अनुज की बीवी खाना सर्व करेगी। भई हम तो इस घर की बड़ी बहू हैं……क्यों अम्मां?’
‘अरे भाभी, खाना बनाने की क्या ज़रूरत है, कुक रहेगा, वो बनायेगा ना।’
‘अरे भई, बड़े बड़े रेस्त्रां किसलिए हैं, चलकर वहीं खा लेंगे सब लोग’।
बाऊजी किसी की बातचीत सुने बिना ही अपना वक्तव्य दे देते हैं-
‘हमारे पिताजी पांच भाई थे। इकट्ठे रहते थे। कभी अलग चूल्हा नहीं जला’। तुम लोग चार भाई बहन हो, मिलकर रहो तो सबका जीवन सुखद बना रहेगा’। बाऊजी बातूनी हैं,अम्मा बातों की बड़ी कंजूस। कई बार सिर हिलाकर इशारों में काम चला लेती हैं। बच्चों की चिंता वो बहुत करती हैं। लेकिन दिखाती ऐसे हैं जैसे किसी से कोई मतलब ही नहीं हैं।शिप्रा ने घड़ी देखी
, वेटर को बुलाया,शाम का मीनू समझाया और ताकीद की कि कहीं कोई कमी ना रह जाये। सजावट के लिए दूसरा वेटर आया। बड़ी-सी टेबल लगवाकर फूलों से लिखवाया-‘हैपी वेडिंग एनीवर्सरी’। फुर्सत होकर अनय को फोन लगाया…-‘हां हम लोग ज़रा लेट हो गये हैं, अब महालक्ष्मी मंदिर पहुंच रहे हैं। रिसॉर्ट पहुंचते तो शाम हो जायेगी।’
लंबी क़तार के बाद महालक्ष्मी मंदिर में सबने दर्शन किये। सबको बड़ी भूख लगी थी। बच्चों की इच्छा थी कि कुछ फास्ट-फूड मिल जाये तो मज़ा आ जाए।
अनय ने इसके उलट अपना फरमान जारी किया—
‘ये कोई जगह है खाने-पीने की। यहां ठेले की चाट के सिवा कुछ नहीं मिलेगा। हाइजीन के बारे में तो सोचो’। बाऊजी ने इसका समर्थन किया। बच्चे कुनमुनाने लगे। अनय गाड़ी में बैठे और चलने का इशारा किया। आदि ने अपनी गाड़ी स्टार्ट की। अम्मां-बाऊजी अनय के साथ और बाक़ी पूरा कुनबा आदि की गाड़ी में सवार हुआ…गाड़ी चलते ही बाऊजी की चिंता शुरू-‘बेटा देखना ज़रा, आदि आ रहा है कि न। उससे बोलो, साथ-साथ चले’। अनय ने मैसेज कर दिया। आदि का जवाब भी आ गया—‘ओके’। तीनों बच्चों को वेफर्स पकड़ा दिये गये। लेकिन रिया और दीपा का ग़ुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया। दीपा को ‘हाजी-अली जूस सेन्टर’ पर फालूदा खाना था और रिया को भेलपूरी। ताकि वो लखनऊ में फ्रेंड्स और पड़ोसियों के बीच मुंबईया भेल-पूरी के गुण गा सके। आदिऔर ओम को भी भूख लग आई थी। सोचा कुछ बर्गर या वड़ा-पाव मिल जाये तो मज़ा आ जाए। दीपा ने खाने के कई अड्डे बताये। लेकिन आदि ने ये कहकर टाल दिया, ‘भैया आगे कहीं गाड़ी रोकेंगे। वो इस इलाक़े के बारे में ज़्यादा जानते हैं।‘ ‘तुम तो ऐसे भैया-भैया कर रहे हो, जैसे तुम्हें कुछ पता ही नहीं’। बस भैया उंगली पकड़ाकर मुंबई-दर्शन करा रहे हैं। उन्हें भूख-प्यास न लगे तो क्या हम भी भूखे-प्यासे रहें। रिया दी और ओम जीजू का भी तो कुछ ख्याल रखना है या हर बात भैया की ही मानी जायेगी। ये मेहमान हैं। भैया से कहो, हम ‘एट्रिया’ मॉल में रूकेंगे, लंच लेंगे, शॉपिंग करेंगे। इस तरह मन मारकर घूमने से क्या फायदा।’बहुत देर से चुप बैठा अनुज गाने लगा-
‘मैं क्या जानूं क्या जादू है, इन दो मतवाले नैनों में’। दीपा-रिया एक साथ बोल पड़ीं-‘अरे भैया की काया प्रवेश कर गयी है क्या अनुज में’। आदि ने सिग्नल पर गाड़ी रोकते हुए कहा…‘सचमुच कमाल के हैं भैया भी…आज भी वो सहगल के गाने पसंद करते हैं। पुराने ज़माने की फिल्में बड़े धीरज से देखते हैं। वैसे दीपा, यू नो….बचपन में मैं और भैया साथ-साथ ये सैड-सॉन्ग, और फिल्में देखते थे और ख़ूब दर्द भरी कविताएं लिखते थे। लेकिन बाद में मैं इंजीनियरिंग में आ गया और मेरी थिंकिंग बदल गयी’ हंसते हुए—‘और तुमसे मिलने के बाद तो डार्लिंग मैं पूरा बदल गया।’ गाड़ी में ठहाका गूंजा…-‘और शादी के बाद रिया के रंग रंगा रे मैं’।….ओम के इस जुमले से फिर हंसी का झरना फूट पड़ा।–‘अनुज आप मत बदलना, वरना अम्मा कहेंगी, तीनों बेटे जोरू के ग़ुलाम हो गये’। ये दीपा का स्वर था।
–‘लेकिन भैया बदले कहां, वो तो वैसे ही ग़ुस्सैल, जिद्दी और पुरातन-पंथी हैं।‘।
–‘हां तो भाभी कौन-सी मॉडर्न हैं, वो भी तो जैसे सीता-मैया….ही ही ही’।
–‘लेकिन समझ नहीं आता भैया की प्रॉब्लम क्या है, हमेशा बड़प्पन क्यों दिखाते हैं, भाभी, चुमकी और अपनी शोहरत से आगे कोई बात नहीं करते।’अचानक आदि को ख़्याल आया कि चुमकी बैठी सब सुन रही है। सिग्नल आ चुका था, उसने पीछे सीट पर बैठी दीपा को मैसेज किया—‘चुमकी हमारी बातें सुन रही है, भैया को बतायेगी, उन्हें बुरा लगेगा’।
शिप्रा ने रिसॉर्ट के रूम का पर्दा सरका दिया है। उमस भरी दोपहर में भी हवा ठंडी है। खिड़की के कोने से रिसॉर्ट का वॉटर पार्क और राइड्स दिखायी पड़ रहे हैं। मुंबई का मौसम बार-बार शिप्रा को इलाहाबाद की गलियों में ले जा रहा है
, जहां सड़क के किनारे दुकानें होती थीं। रीटा आइसक्रीम। लाल कपड़े से ढंका बड़ा-सा मटका ठेले पर लादे जलजीरा वाला…..जामुन बेचने वाले की बांग—‘काली है कल्लो है, जमुनिया है’। ऐसे सुरीले अंदाज़ में वो जामुन बेचता कि ना चाहते हुए भी हम ख़रीदने को आतुर हो उठते। अनय के साथ गर्मी के दिनों में स्कूटर पर पीछे बैठकर खूब खाई हैं ऐसी जामुनें। एक हाथ से सिर का पल्लू पकड़े उसी से थोड़ा आड़ करके….कहीं कोई जान-पहचान का ना देख ले। लेकिन पता नहीं कैसे ये बात अम्मां-बाऊजी तक पहुंच जाती। उन दिनों बहुओं का इस तरह खड़े होकर खाना-पीना बड़ा अशोभनीय माना जाता था। बाऊजी तो कुछ नहीं बोलते पर अम्मां तो आसमान सिर पर उठा लेतीं। उन्हें तो जैसे ‘लव-मैरिज-बहू’ को कोसने का मौक़ा मिल जाता—‘नयी बहू की इतनी लंबी जीभ। लानत है’।शिप्रा को लेकर अम्मां के मन में एक गांठ थी। उन्हें लगता शिप्रा ने उनके बेटे को छीन लिया है। कोई जादू-टोना किया
, चुरा लिया अनय को। वरना ऐसा श्रवण कुमार जैसा लड़का प्रेम-जाल में फंसता? हालांकि अम्मां के बहू लायक सब गुण थे शिप्रा में। ‘अब तो आदि ने भी खोज ली है अपनी दुल्हन। वो तो दुल्हन जैसी है ही नहीं। सिर पर पल्लू तक नहीं लेती। मिलने आई थी घाघरा-टीशर्ट पहनकर।’‘घाघरा-टीशर्ट?’
‘अरे वही सोनिया मिरजा वाला’
शिप्रा हंसी को दबाती हुई बोली—‘सानिया मिर्जा, ओह स्कर्ट-टॉप। अम्मां हम दीपा से मिल चुके हैं।’।
अम्मां के भीतर पता नहीं कितनी पीड़ा थी कि ऐसे में उनके आंसू थमते ही नहीं थे। लेकिन अनय के सामने आते ही एकदम संयत। जैसे कुछ हुआ ही नहीं। बस ये कहतीं-
‘जो हुआ सो हुआ पर हमेशा मां-बाप का ख्याल रखना।’…शायद ऐसा किसी असुरक्षा के तहत कहती थीं। वो मानती थीं कि आदि बड़ा जिद्दी है। ब्याह के बाद अपनी बीवी के सिवा किसी का नहीं होगा।इंसान का कोई कितना भी आकलन कर ले, पूरी तरह किसी को नहीं समझा नहीं जा सकता। इंसान को बदलते देर नहीं लगती। वक्त ने कुछ ऐसी करवट ली कि अम्मां भी बहुत बदल गयीं। आदि के ब्याह के बाद अम्मां काफी मॉडर्न हो गयीं। बोल-चाल, खान-पान और पहनावे में भी। जो अम्मां दीपा की शिकायत करते नहीं थकती थीं
, वही अब दीपा से सखी की तरह बतियातीं। उनकी ज़बान पर हर वक्त ‘आदि की दुल्हन’ रहता था। दीपा ना कभी सिर पर पल्लू लेती थी, ना पैर दबाती, ना सबके झूठे बर्तन उठाती, ना बड़ों के आने पर तहज़ीब से खड़ी होती। फिर भी अम्मां उसे कभी ना टोकतीं। लेकिन अगर यही शिप्रा कर दे, तो वो तपाक से बोल पड़तीं–‘बड़े घर के संस्कार अलग होते हैं। ग़रीब घरों के रहन-सहन भी ग़रीब ही होते हैं।दीपा के विवाह के बाद घर की परिस्थितियां काफी बदल गयीं। चुपचाप रहने वाली रिया चुहलबाज़ हो गयी थी।
‘भाभी-भाभी’ कहकर हमेशा दीपा के साथ चिपकी रहती। रिशू भी मामी, ये खिलौने चाहिए, वो खिलौने चाहिए की रट लगाए रहता। जब सारे लोग इकट्ठे होते तो लगता कि शिप्रा और अनय पराये हैं, और बाक़ी सब एक हैं। शिप्रा सोचती, आखिर कौन-सी चूक हुई है, जो ये लोग अजनबियों जैसा बर्ताव करते हैं। यहां तक कि अनय से भी। दरअसल रिश्तों के जोड़-घटाव में दीपा काफी माहिर है। किससे कितना,कब-कहां-क्या बोलना है, किसे कितना सम्मान देना है, किसे नहीं, इसका मैनेजमेन्ट वो ख़ूब कर लेती है। इसलिए सबको खुश कर लेती है। इसके विपरीत शिप्रा कभी दिखावा नहीं करती। जिसे जो समझना है, समझे..वाला हिसाब रखती है। और बड़ी सहजता से हर बात-हर किसी के सामने कहने की बेवकूफी करती रहती है।‘अरे चुमकी यहां अकेली रो रही थी, आप लोगों ने देखा नहीं’
‘अभी तो हम लोग आए हैं। तब खेल रही थी’।
शिप्रा की आंखें गीली हो गयीं। चुपचाप बाहर आ गयी। चुमकी को दुलारती हुई ले गयी।
शिप्रा विचारों के बियाबान में भटक रही थी। बेल बजी और तंद्रा टूटी। वेटर खाना लिये खड़ा था। खाने के साथ देखा
, बिल्कुल देसी किस्म का अचार और पापड़ भी था। शिप्रा मुस्कुरा पड़ी। चुमकी पैदा होने वाली थी, तो उसे अचार खाने की कितनी तीव्र इच्छा होती थी। इस बार अम्मां अचार लाईं तो दीपा के घर। अचार, सत्तू,बादाम के लड्डू..सब दीपा के घर आए। हमारे यहां सिर्फ बाज़ार की मिठाई आई। आदि के घर खाने पर गए थे तो अचार देखकर शिप्रा ने कहा, ‘अरे वाह ये तो इलाहाबाद वाला अचार है। अम्मां के हाथ की भरवां मिर्चे की बात ही निराली है’। पिछली बार जब हम लोग इलाहाबाद से लौटे थे तो चुमकी ने घी-नमक-रोटी खाना ही छोड़ दिया था, कहती थी—‘मुझे दादी वाला घी ही चाहिए रोटी में। यहां के घी में बदबू है’।अचानक फोन बजा, अनय को शिप्रा ने बताया, ‘बस केक छोड़कर पूरी तैयारियां हो चुकी है’।
—‘हम बस गेटवे से निकल रहे हैं’
बहुत देर से अनय को आदि की गाड़ी नहीं दिखी। बाऊजी फिर परेशान—‘कहां रह गये सब। फोन तो लगाओ’। आज्ञाकारी बेटे की तरह अनय ने फोन लगाया तो पता चला कि वो लोग क्रॉफर्ड मार्केट की तरफ चले गये हैं। रिया को पर्स ख़रीदना था।
—
‘अरे भई धारावी में लेदर-मार्केट है,अच्छे पर्स मिलते हैं। बताया तो होता’।मोबाइल का स्पीकर ऑन था। पीछे से दीपा की आवाज़ आई—‘हमें एलीट पर्स लेना था, धारावी वाला नहीं। अनय को जैसे किसी ने जोरदार तमाचा मार दिया हो। कब उनकी उंगली डिस्कनेक्ट बटन पर गयी, उन्हें पता नहीं चला। थोड़ी देर बाद दोनों गाडियां इकट्ठी हुईं और इस बार साथ चलने लगीं। एक सिग्नल पार हुआ कि अचानक आदि की गाड़ी दिखनी बंद हो गयी। बाऊजी फिर परेशान…..’कहां रह गये…..?’
इस बार पता चला वो लोग पेट्रोल भराने रूके हैं। अनय ने सवालों की झड़ी लगा दी।
–
‘इस इलाक़े में कौन सा पेट्रोल पंप है’–‘अरे वो है ना… वहां, लेफ्ट में। लोहा-बाज़ार की तरफ’।
अनय ने गाड़ी फिर रोकी। इस बार चुमकी और रिशू बोल पड़े।
–‘दादाजी चलिए ना। गाड़ी रूकती है तो मज़ा नहीं आता’।
रिशू घर की हर बात सबके सामने बाल-सुलभ तरीक़े से कहने में माहिर है। सो उसने ‘रनिंग कमेन्ट्री’ शुरू कर दी। पता है, मम्मी को चाट या भेल-पूरी खानी होगी। कह रही थीं कि कहीं रूककर खा लेंगी। बड़े मामा को बतायेंगे ना तो वो नाराज़ होंगे। मामी ने भी यही बोला था। पापा मामी को ट्रीट देने वाले थे। वो लोग पक्का कहीं पर रूककर कुछ खा रहे होंगे।’
अनय के सामने चित्र स्पष्ट हो चुका था। बाऊजी जान-बूझकर अनजान बन रहे थे। सफाई दे रहे थे
‘ऐसा नहीं है बेटा, उन्हें सचमुच पेट्रोल भराना होगा। परिवार को एकसूत्र में बांधे रखने के लिए छोटी-मोटी बातें नज़र-अंदाज़ करनी चाहिए।’-‘हुंह, ये हिदायत सिर्फ मुझे दी जानी चाहिए। दूसरे भाई-बहन को भी तो सोचना चाहिए। साथ में अम्मां बैठी हैं, कम से कम उन्हें तो कहना चाहिए ना कि अनय को भी साथ ले लो।’ अनय ने स्टीयरिंग से हाथ हटाया, चश्मा उतारा। हथेलियों से आंखों को पोंछते हुए जैसे रिश्तों पर जमी हुई धूल को साफ करने की कोशिश की। लेकिन गर्द की परत इतनी मोटी होती जा रही है कि उसे वक्त रहते साफ ना किया तो रिश्तों में ऐसी गांठ पड़ेगी जिसे कभी ठीक नहीं किया जा सकेगा।
काफी इंतज़ार के बाद आदि का फोन आया—
‘भैया सन्मान रेस्टोरेन्ट में आ जाईये। वो क्या है ना…’‘लेकिन हम तो रिसॉर्ट चल रहे हैं ना’।
‘हां भैया पता है लेकिन…..’
तब तक फोन कट चुका था।
अनय
, बाऊजी, अनुज, चुमकी और रिशू गाड़ी से उतरे। बड़ा सा रेस्टोरेन्ट। ऊपर की ओर जायें तो बड़ा-सा ए.सी.हॉल। अम्मां, दीपा और रिया हंसी-ठिठोली कर रही हैं। ओम और आदि पैसेज में खड़े बाऊजी ग्रुप का इंतज़ार कर रहे हैं। टेबल पर तीन मंजिला केक सजा है। वेटर ऑर्डर की ताक में हैं। अनय आश्चर्यचकित, अरे ये क्या?‘भैया इत्ती शाम हो गयी है। अम्मां-बाऊजी की एनिवर्सरी यहीं सेलिब्रेट कर लेते हैं। फिर जहां आप बोलें, चलेंगे। बच्चों को भूख भी लगी है। और सिमू तो अड़ ही गयी थी केक के लिए।’
अनय सन्न रह गया…. ‘जो सरप्राइज़ मैंने प्लान किया है वहां भी यही सब है। वहां कोई रिसॉर्ट की धूल थोड़ी फांकनी है। शिप्रा ने बाक़ायदा पार्टी अरेन्ज की है। सारी बुकिंग और सजावट हो चुकी है। सुबह से वहां पहुंचकर तैयारियां करवा रही है’।
‘मैंने सोचा था, अम्मा बाऊजी को सरप्राइज़ दूंगा। और तुम लोग जगह-जगह रूक कर टाइम बेकार कर रहे हो। इसलिए मैं मना कर रहा था’।
‘लेकिन भैया यहां तो डील हो चुकी है। ये देखिए केक……बलून….गिफ्ट…..सब तैयार है। आप भाभी से बोल दीजिए ना, अपनी पार्टी कल के लिए पोस्टपोन कर दें।’
अनय को जैसे फिर जोरदार थप्पड़ मारा हो किसी ने। तेज़ घुटन होने लगी। आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा। लगा बस चक्कर खाकर गिर ही जायेंगे। छोटे भाई की पत्नी, पूरे घर की संचालक। छोटा भाई अब प्रतिद्वंद्वी बन गया है। रिश्तों में इतनी प्रतिस्पर्धा। उफ……। कमाल की बात तो ये कि आदि मूकदर्शक बना खड़ा है। सारे सदस्य पत्थर बन गये हैं। दिखावे की चकाचौंध ने आंखों के आगे पर्दा डाल दिया है। चोटिल अनय की ओर से किसी को सोचने की ज़रूरत महसूस नहीं हो रही है।
बाऊजी को जैसे अचानक बड़ा अच्छा उपाय सूझा।
‘एक काम करते हैं। बेटा अब लेट तो हो ही गये हैं। शिप्रा को भी यहीं बुला लो। वहां की पार्टी कैंसल कर लो। पूरा परिवार एक साथ डिनर कर लेगा’‘लेकिन बाऊजी शिप्रा हर्ट होगी। उसने बड़े मन से योजना बनाई है। बेसब्री से इंतज़ार कर रही है।’
‘वो क्या है, आदि की तड़के बैंगलोर की फ्लाइट है। इतनी दूर कहां परेशान होंगे। बच्चे भी थक गये हैं।’
अनय के हाथ ठंडे
, चेहरा बर्फ हो गया है। अपना चश्मा उतारा। नम आंखों को हाथों से पोंछने की कोशिश की। पर धुंधलापन कायम रहा। आज रिश्तों पर जमी धुंध इतनी गहरी हो गयी है कि अब उसे साफ करना उनके बस का नहीं। मानो वो अरब सागर के बीच किसी निर्जन टापू पर हैं। जहां चारों ओर बस शून्य है। गालों पर ढुलक आये आंसुओं को अनय ने हथेली पर रोप लिया, उन बूंदों में शिप्रा का प्रश्नवाचक चेहरा झिलमिला रहा है।
Congrats Mamta, you have constructed a tale in such a way that while reading it I felt as if I was myself witnessing the activity.Most difficult skill is to be simple and you have proved that you have all it takes.Your persona depicted in the photo is charming.
मर्मस्पर्शी!
सबकी अपनी अपनी संवेदनशीलता है
अपनी अपनी संवेदनहीनता भी ।
मन को छू गई ये कहानी .बदलते रिशते
शानदार कहानी . ममता जी को बधाई