आईआईटी पलट हिंदी लेखक प्रचण्ड प्रवीर, जिनके उपन्यास ‘अल्पाहारी गृहत्यागी’ का मैं बड़ा मुरीद रहा हूँ, बरसों से हिंदी में ‘कल की बात’ नाम से एक श्रृंखला लिख रहे हैं. जो अक्सर किसी व्यक्ति, किसी घटना पर होती है. इस बार इनके लपेटे में आये हैं मेरे दो प्रिय कलाकार. जिनसे मिलना तो नहीं हो पाया है लेकिन जिनके काम का मैं मुरीद रहा हूँ. पढ़िए और देखिये कैसे बात बात में बात निकलती है- प्रभात रंजन
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कल की बात है। जैसे ही मैंने उस पार्क में कदम रखा, सामने सुशील जी सुदूर कोने से हाथ हिलाते हुये नजर आये। जैसी तस्वीर देखी थी, उन्हें उससे बढ़ कर पाया। मतलब यह हुआ कि बाल ज्यादा बड़े थे, फ्रेंच कट दाढ़ी भी बढ़ी हुयी थी। पीले फ्रेम का चश्मा भी बड़ा था, और जब नजदीक जा कर पाँव छूने को झुका तो देखा कि चप्पल भी एक साईज बढ़ कर थी। लेकिन सुशील जी इन सब छोटी मोटी बातों से बेफिक्र पार्क के उस पार दीवार पर बने बड़े मुखौटे को दिखाते हुये बोलने लगे, “देखो, उस मुखौटे के पीछे रहते हैं हम!” मुखौटे के पीछे तो सभी रहते हैं पर सुशील जी और उनकी धर्मपत्नी, दोनों ही कुशल चित्रकार हैं, उस मुखौटे का रूप बना रखा था। यह विकराल नहीं था, न ही अट्टाहास करता हुआ, बल्कि निरीह और स्तब्ध! सुशील जी ने कहा, “ये मुखौटा तुम्हें देख कर डर सा गया है। खैर, जब इसका डर दूर हो जायेगा तो यह मुस्कुराने लगेगा।“
जैसे ही हम दोनों ने चप्पलें उतारी और ग्राउंड फ्लोर वाले घर में कदम रखा, किचन से मीनाक्षी जी निकल कर आयी। रंगीन सजी दीवारों की मालकिन मिथिला की राजकुमारी ने बड़ी ही बेतकल्लुफी से कहा, “अगर आप पार्क सीधे रास्ते से आते तो मैं आपको घुसने भी नहीं देती। लेकिन आप पार्क की छड़े फाँद कर आये, लगता है हमारी बातें हो सकती है। सुशील जी को मेहमाननवाजी में मज़ा आता है, झेलना बीवी को पड़ता है। पर लगता है तुम हम जैसे ही हो।“
सुशील जी ने संभलने नहीं दिया। बैठते ही पूछ बैठे, “जो तुम कह रहे थे फोन पर, सच है क्या कि ‘मीर तकी मीर‘ के पिता जी दिल्ली से आपके शहर की दरगाह पर दुआ माँगने गये थे और वहीं आपके दादा जी के परदादा जी से दोस्ती हो गयी थी?” जो मैंने हामी भरी सुशील जी कहने लगे कि बहुत कोशिशों के बाद भी उन्हें अपने दादा जी से पहले का इतिहास नहीं मालूम। लेकिन इतना पता था कि दादा जी बड़े ज्योतिषी थे, और उन्होंने अपने मृत्यु का पूर्वानुमान हो गया था। उन्होंने बहुत सी बातें लिख रखी थी, जिनका छुपछुपा कर अध्ययन आज भी किया जा रहा है।
नींबू पानी के बाद मीनाक्षी जी मखाना भूँज कर ले आयी। “अऱे आपने तो इसमें चीनी डाल रखी है। मैंने जब भी खाया है तो इसमें नमक डाला हुआ रहता था।” मीनाक्षी जी मुस्कुरा कर कहने लगी, “मैं मैथिल हूँ न। मुझे ज्यादा नमक बर्दाश्त नहीं होता। बिना मीठे के मैं रह नहीं सकती। आप खाइये न! बहुत भूँज रखा हैं। इनके कुछ दोस्त भी आने वाले हैं।”
सुशील जी अपने संघर्ष के दिनों के साथ–साथ मीनाक्षी जी से पहली मुलाकात के बारे में बता रहे थे। बताया किस तरह दर दर भटकने के बाद नौकरी लगी, किस तरह कष्टों में जवानी के कितने दिन सड़कों पर गुजारे। मीनाक्षी जी ने कहा था, सुशील जी के मित्र प्रशांत औऱ उनकी मंगेतर शुचि भी वहाँ आ गये। सुशील जी ने हमारा परिचय कराते हुये बताया कि हम पहली बार मिल रहे थे। बहुत ही नाजुक और कोमल शुचि ने मेरा नाम सुनते ही मुँह पर हाथ रख कर कहा, “मैंने आपकी कल की बात पढ़ी है। आप तो वो हैं न जो किसी से भी मिल कर उसके बारे में सब कुछ बता देते हैं?” मीनाक्षी ने भौहें चढ़ा कर हमें देखते हुये कहा, “फिर तो हम भी देखेंगे आज आपका हुनर। सबसे पहले आप हमारी शुचि रानी के बारे में बताइये।“
मैंने मन ही मन सोचा, “हे भगवान, लोग मुझसे ऐसी आशा क्यों रखते हैं? अगर रखते हैं तो इम्तिहान क्यों लेते हैं?” प्रकट में मैंने शुचि जी को देख कर कहा, “आपका हाथ देखूँ?” मीनाक्षी जी ने आपत्ति दर्ज की, “ये तो बेईमानी है। वैसे हाथ देख कर हमारी शुचि तुम्हारे बारे में सब कुछ बता देगी। बहुत पहुँची हुयी है हमारी शुचि। तुम ऐसे ही कुछ बताओ।“
मैंने सोच कर कहा, “शुचि जी को किसी तरह का मत विरोध पसंद नहीं।” शुचि ने फौरन जबाव दिया, “मैं तो लोगों से चुन–चुन कर झगड़ा मोल लेती हूँ।”
मैंने कहा, “जी मेरा मतलब था कि आप बहस में नहीं पड़ना चाहती। आप अपनी बात पे अड़ जाती हैं। दूसरों को समझाना आपका उद्देश्य नहीं होता।” शुचि जी सोचने लगी, फिर बोली, “कह सकते हो ऐसा!”
“दूसरी बात – आप बहुत संयमप्रिय हैं। किस तरह के कपड़े पहने जाये, क्या कहा जाये, कैसे व्यवहार किया जाये, इसमें आप बहुत सख्त हैं।” शुचि ने उत्तर दिया, “कपड़ों के मामले में तो इतनी सख्त नहीं, पर जुबान के मामले में बिल्कुल सही। जुबान पर लगाम देना बहुत जरूरी है।“
“तीसरी बात – आपको रोना अच्छा लगता है लेकिन आप को पसंद नहीं कि कोई आपको रोते देखे।” मीनाक्षी जी ने टोक कर कहा, “एक मिनट, एक मिनट, इसमें कौन सी बड़ी बात है? ये तो सारी लड़कियों के साथ होता है।” मैंने उनकी बात काट कर जोरों से अपनी बात कही, “नहीं, सबके साथ ऐसा नहीं होता।” शुचि थोड़ी सी सहम कर बोली, “हाँ ये सच हैं। मैं अपने जज्बातों को रोक नहीं पाती और अक्सर बह जाती हूँ।“
सुशील जी बोले, “अब बारी आती है हमारे दोस्त प्रशांत की। कहिये?” प्रशांत जी एकदम तन कर बैठ गये। उनकी पुतलियाँ जोर–जोर से इधर उधर घूमने लगी। अपनी उँगलियाँ चटकाते हुये बोले, “आपकी तरफ देखना है? आँखों में आँखें डाले हुये?” मैंने ना में सर हिलाया औऱ कहा, “आप जल्दी किसी पर भरोसा नहीं करते। बड़ा समय लेते हैं लोगो को परखने में।” प्रशांत जी ने हाँ में सर हिलाया। कहने लगे, “मैं फायदा देखने वाले लोगों से दूर रहता हूँ। कोई मेरा विश्वास तोड़े, मेरा दिल दुखाये मुझे बर्दाश्त नहीं।“
“दूसरी बात – आप बहुत ज्यादा तनाव नहीं झेल पाते। आप टूट जाते हैं।” प्रशांत जी ने शंका से देखते पूछ बैठे, “आपका मतलब?” मैंने कहा, “उदाहरण के लिये, कोई बड़ा आयोजन हो, मान लीजिये शादी हो। आप कर्मठ तो हैं, पर बहुत सारे काम एक साथ नहीं कर पाते।” प्रशांत जी बोले, “हाँ, मैं दस काम कर रहा हूँ औऱ कोई ग्यारहवाँ काम के लिये कह दे तो मैं झल्ला उठता हूँ।“
“तीसरी बात – आप पर आपके माता पिता का बहुत प्रभाव है। आप उन दोनों को पूजते हो।” ये सुनते ही सुशील जी, मीनाक्षी जी, यहाँ तक कि शुचि ने भी कहा, “सही ये तो, हम इसकी पुष्टि करते हैं।“
मैंने कहा, “मीनाक्षी जी, मैं आपके इम्तिहान में पास हो गया न?”
मीनाक्षी ने दिलकश मुस्कान के साथ कहा, “अरे अभी कहाँ, अभी तो आपने मेरे बारे में कुछ बताया ही नहीं?”
“आपके बारे में क्या बताना? सब कुछ तो आपके चेहरे पर लिखा है।” सुशील जी ने कहा, “कुछ ऐसा बताइये जो मैंने आपको इनके बारे में नहीं बताय हो।“
आँखें बंद करने के बाद मैंने कहना शुरू किया, “परंपराओं की प्रति आपका रूझान बड़ा विचित्र है। आप उनका सम्मान करती हैं क्योंकि आपने बचपन से उनको देखा है, लेकिन भीतर ही भीतर आप उनकी भर्तस्ना करती हैं। खास कर तत्वमीमांसा को ले कर…” मीनाक्षी जी जो उठ कर किचन में चली गयी थी, वापस बैठक की तरफ आयी औऱ मुझे देख कर बोली– “टी एस इलियट ने कहा था कि हर नयी चीज परंपरा बन जाती है, लेकिन मैं हर परंपरा के लिये विद्रोही साबित हुयी हूँ।“
मैंने कहा, “तनिक इधर देखिये।” सुशील जी ने हँस कर कहा, “बहुत देख रहा है ये लड़का। मेरे ही घर में, मेरी ही बीवी को… देखने की चीज है हमारा दिलरूबा…ताली हों...”
“दूसरी बात – आपको नाचने का बेहद शौक है।” ये सुनते ही मीनाक्षी जी चीख पड़ी – “हे भगवान !” सुशील जी भी चिल्ला पड़े, “अब तुम कल से ही क्लास ज्वाइन कर लो।” मीनाक्षी जी ने कहा, मेरे बाबा नहीं चाहते थे कि मैं नाचूँ। मेरा बहुत बहुत मन है कि मैं नाच सीखूँ।” कह कर मीनाक्षी जी किचन से एक सुंदर से ट्रे में सबके लिये हरी चाय ले आयी।
“अब रही तीसरी बात – आप मानसिक रूप से अद्भुत दृढ़ हैं। कितनी कठिनाई आये, आप टूँटेगी नहीं। हारेंगी नहीं।” मीनाक्षी जी को जैसे बिच्छू ने काट लिया हो। चेहरा लाल सा हो गया। उनके हँसते–मुस्काराते चेहरे पऱ अचानक दर्द की लकीर खिंच गयी। “क्या मैं जिंदगी भर ऐसी ही लड़ती रहूँगी?” मैंने कहा, “यही आपका भाग्य है।” मीनाक्षी जी ने कहा, “अगर यही भाग्य है तो यही सही। मैं हार नहीं मानती।“
मैंने कहा, “तभी आप जीतती रही हैं हमेशा–हमेशा।” मीनाक्षी जी ने मेरी बात का कोई जबाव नहीं दिया। सुशील जी ने कहा, “चलो बढ़िया है। तुम मेरे दादा जी की तरह भविष्य नहीं बता रहे। अब मेरे बारे बताओ तभी इम्तिहान पूरा होगा।” मीनाक्षी जी ने उनको झिड़का, “हटो जी, ये कोई इम्तिहान थोड़े ही है। ये तो बस खेल है।“
सुशील जी को देख कर मैंने कहा, “आपमें इतना गुस्सा भरा हुआ है कि आप किसी का खून कर देने की क्षमता रखते हैं।” सुशील जी ने विचार कर के कहा, “हाँ ये सच है। मैं मानता हूँ।“
फिर मैंने कहा, “दूसरी बात – आपका कोई निरादर कर रहा है, जिसके कारण आपके जीवन में परिवर्तन आयेगा।” ये सुन कर सुशील जी ने गहरी साँस ली, “हो रहा है मेरे साथ! जालिम दुनिया जलील करती रहती है। कभी बताऊँगा। लेकिन ये सच है।”
मैंने मीनाक्षी जी से कहा, “मैं इम्तिहान में पास हुआ या नहीं?” सुशील जी ने कहा, “अच्छा बच्चू, हमारे बारे में दो ही बातें बताओगे? एक औऱ बताना पड़ेगा, तब मानेंगे।“
फँस जाने पर मैंने मन ही मन सोचा – कलाकार, चित्रकार, पत्रकार … क्या क्या हैं सुशील जी? क्यों हैं…. अद्भुत रस के मारे लगते हैं। ये सोचते ही मैंने कहा, “आपको विराट चीजें बहुत पसंद है, जैसे बड़े महल, अट्टालिका…”
सुशील जी ने कहा, “महल तो नहीं, बड़ी बड़ी मूर्तियाँ … जब मैंने इटली में माइकलएंजेलो की डेविड देखी, तो तुम यकीन नहीं करोगे मैं तीन घंटे तक देखता रह गया। इतना ही नहीं, मैं अगले दिन दोबारा उसे देखने गया। देखने के बीस यूरो लगते थे उस समय। बहुत होते हैं बीस यूरो।“
मैं मुस्कुरा उठा। शुचि मुझे प्रशंसा की नजरों से देखने लगी। मीनाक्षी जी दबे पाँव घर से बाहर निकल गयीं। तब मैंने उसकी तरफ अपनी हथेलियाँ बढा दी ताकि वो मेरा हाथ पढ़ कर के कुछ बताये। शुचि ने हथेलियों को देख कर कहना शुरु किया, “आपका स्वास्थ्य ठीक रहेगा। पैसा भी साधारण रहेगा। बुढापा अच्छा बीतेगा। आपने अपनी नैसर्गिक प्रतिभा छुपा कर दूसरी प्रतिभायें विकसित कर ली हैं। आपको कवि नहीं होना चाहिये था।“
मैंने कहा, “वैसे तो मैं आशिक बनना चाहता हूँ, पर बन नहीं पाया हूँ।“
शुचि ने कहा, “नहीं, नहीं, आप सब के मन की बात जाने लेते हैं। आप की विश्लेषण क्षमता अद्भुत है। ये मत सोचियेगा कि आपको देख कर कह रही हूँ, या आपकी बातें सुन कर ऐसा कह रही हूँ। ये आपके हाथ में लिखा है।“
मैंने धीमे से कहा, “हाथ में सब कुछ लिखा है, पर लिखने वाले ने उसका नाम नहीं लिखा।”
जब मीनाक्षी जी अंदर आयी तो मैंने सबों से विदा माँगी। सुशील जी मुझे छोड़ने के लिये बाहर आये। मुखौटे को दिखा कर उन्होंने कहा, “देखो ये मुस्कुराने लगा न
The way you described a very simple incidence is really amazing…you can read a woman's mind too…thank you…loved reading.
भाई प्रचंड जी आपके इस लेख में व्यग्य पूर्ण वर्णन और उसकी सौम्यता ने बड़ा ध्यान खीचा. आभार आपका. आभार जानकीपुल.
जबरदस्त लिखा