महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव में ड्रामा से अधिक मेलोड्रामा का तत्त्व हावी रहा, मेलोड्रामा बढ़ते ही मनमोहन देसाई की याद आती है. मुझे याद आता है कमलेश्वर जी कहते थे कि हिंदी का लेखक फ़िल्मी दुनिया में सफल इसलिए नहीं हो पाता क्योंकि वह अपने फ़िल्मी लेखन को मजबूरी का लेखक मानता है, वह उसमें विश्वास नहीं करता है. जबकि मनमोहन देसाई जब यह दिखाते हैं कि शिर्डी के साईं बाबा की पूजा करने से आँखों की रौशनी वापस आ जाती है, तो लोग उसमें इसलिए विश्वास कर लेते हैं क्योंकि मनमोहन देसाई खुद उसमें विश्वास करते हैं. बहरहाल, आज न मनमोहन देसाई का जन्मदिन है न उनकी पुण्यतिथि. बस, त्रिपुरारि कुमार शर्मा का यह लेखा पढ़ा तो साझा करने का मन हुआ- प्रभात रंजन
किसे ख़बर थी कि हिंदी फ़िल्मों के इतिहास में 70 और 80 के दशक का सबसे चमकता हुआ चेहरा—जो हमेशा परदे के पीछे अपना वक़्त बुनता रहा—इस तरह ज़िंदगी से उकता जाएगा? हज़ारों नामों को ज़िंदगी और हज़ारों ज़िंदगियों को नाम बख़्शने वाला शख़्स—एक दिन ख़ुद गुमनामी के गंदे पानी में गर्क़ हो जाएगा? जिसकी सुलगती हुई साँसें महज मज़ाक बन कर रह जाएंगी और जिसके कारनामे लोगों के ज़ेहन में कतराती हुई कतरनें पैदा करती रहेंगी। वो कहते है न! कि कामयाबी अपना क़ीमत वसूल करती है। सच ही कहते हैं। 1 मार्च 1994 को उसकी ज़िंदगी ने इस बात पर मुहर लगा दी। सिनेमा, जिसे ‘लार्जर देन लाइफ़’ की वजह से हम अक्सर ‘सफ़ेद झूठ’ भी कहते हैं—का दूसरा पहलू यानि सिनेमा का सियाह सच! जहाँ एक ओर कैमरे के आगे मुस्कुराते हुए चेहरे ‘मैग्नेटिक’ जान पड़ते हैं, वहीं दूसरी ओर उन्हीं चेहरों का टूटता हुआ क्वाँरापन हमारी नींदें धज्जियाँ करने के लिए काफी होता है। मैं बात कर रहा हूँ उस शख़्स की,जिसे दुनिया मनमोहन देसाई कहती है।
…लेकिन मैं आपको थोड़ा पीछे लिए चलता हूँ। जहाँ से सफ़र की शुरुआत हुई थी।
याद कीजिए…हिंदी सिनेमा का वो दौर जब चारों तरफ राजकपूर का जलवा था। न सिर्फ़ देश में बल्कि विदेशों में भी राजकपूर की फ़िल्में कामयाब थीं। एक दिन महज 21 साल का एक लड़का राजकपूर के ऑफ़िस में आता है और कहता है—
“मैं आपको अपनी फ़िल्म में कास्ट करना चाहता हूँ।”
राजकपूर ये सुनकर चौंक जाते हैं। टेबल के दूसरी तरफ वो 21 साल का लड़का अब भी अपनी कुर्सी में बेख़ौफ़ बैठा हुआ है। साथ में बैठा हुआ प्रोड्युसर कहता है—
“राज…मत भूलो कि जब तुमने बरसात बनाई थी, तुम 24 साल के थे।”
राजकपूर अपनी कुर्सी से उठ खड़े होते हैं। इधर-उधर टहलने लगते हैं। अचानक खिड़की के पास रुक जाते हैं। बाहर देखने लगते हैं। कुछ देर बाद बस इतना कह पाते हैं—
“मैं एक सिड्युल शूट करुंगा, अगर इस लड़के में कोई बात नज़र आई तो ठीक वरना मेरी तरफ से ना।”
ख़ैर, वो दिन भी आया जब शूटिंग हुई और रसेस देखकर राजकपूर बोले—
“ये लड़का बहुत दूर तक जाएगा।”
वो 21 साल का लड़का और कोई नहीं, मनमोहन देसाई था।
फ़िल्म थी—छलिया।
गाना था—डम डम डिगा डिगा मौसम भीगा भीगा।
ये गाना कितना मशहूर है, मुझे कहने की ज़रूरत नहीं।
मशहूर फ़िल्मकार मनमोहन देसाई—जिसकी दिमाग़ी उपज को फ़िल्म समीक्षकों ने महज ‘मसाला फ़िल्म’ कहकर पुकारा—कहना ग़लत न होगा कि वह समय और समाज की नीली नसों में अपनी रचनात्मकता का लहू भर कर हिंदी फ़िल्मों के दर्शकों को झूमने पर मजबूर कर देता था। वह जानता था कि लोग क्या चाहते हैं? उसे मालूम था कि आम आदमी की मानसिकता किस मुहाने पर आकर नाच उठती है?उसे पता था कि चीज़ों का इस्तेमाल कैसे किया जाता है? चीज़ें, चाहे फिर लोगों की ‘सेंटीमेंट’ से ही जुड़ी हुई क्यों न हो? यही वजह है कि उसकी फ़िल्मों के दीवानों में हर वर्ग के लोग शामिल हैं—क्या ख़ास,क्या आम! हिंदी सिनेमा की मुख्यधारा को नई दिशा दिखाने वाले मनमोहन देसाई की सबसे चर्चित फ़िल्म ‘अमर,अकबर, एंथनी’ की बात करें, तो ‘बिछड़ने और दोबारा मिलने’के फॉर्मूले पर बनी यह फ़िल्म बेहद कामयाब हुई। यह बात ग़ौर करने जैसी है कि अपने दर्शकों के सामने सिनेमा स्क्रीन पर एक पूरी दुनिया रचने वाले मनमोहन देसाई की फ़िल्म के इस फॉर्मूले से प्रेरित होकर अन्य फ़िल्मकारों ने भी कई फ़िल्में बनाईं।
बताता चलूँ कि 1943 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘किस्मत’, जिसमें अशोक कुमार हीरो थे और बाद में राज कपूर स्टारर ‘आवारा’ में ‘बिछुड़ने-मिलने’ के थीम को भूनाने की कोशिश की गई थी। कोशिश तो कामयाब नहीं हुई, मगर मनमोहन देसाई ने इसी थीम का उपयोग अपनी फ़िल्मों के लिए किया। 40 के दशक की अंधी थीम, 70 और 80 के दशक में आँख बनकर उभरी। मनमोहन देसाई ने अपने तीस साल लंबे फिल्मी करियर में 20 फिल्में बनार्ईं, जिनमें से 13 फिल्में सफल रहीं। फ़िल्म समीक्षकों का मानना है कि इतनी सफलता हिंदी फ़िल्मों के किसी दूसरे फ़िल्मकार को नहीं मिली। जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि 70 के दशक में मनमोहन देसाई की फ़िल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर धमाल मचा रखा था। फ़िल्मों के लिए सबसे कामयाब साल 1977 रहा। उस साल उनकी चार फिल्में ‘परवरिश’, ‘अमर अकबर एंथनी’, ‘चाचा भतीजा’ और ‘धरम-वीर’ प्रदर्शित हुईं और सारी सुपर हिट रहीं। पहली दो फ़िल्मों में अमिताभ बच्चन हीरो थे, जबकि बाद की दो फ़िल्मों में धर्मेद्र ने काम किया था।
मनमोहन देसाई, सच्चे मायनों में अपने समय के सम्पूर्ण और शुद्ध मनोरंजन परोसने वाले ऐसे फ़िल्मकार थे—जिन्होंने व्यावसायिकता को सामाजिकता के साथ घोल दिया–जिनकी फिल्मों में व्यावसायिकता को विस्तार मिला, तो हीरो की ‘इमेज’ को भी नया आयाम मिला। देसाई अपनी फ़िल्मों को लेकर काफी उत्साहित और सकारात्मक रहते थे। अमिताभ बच्चन ने एक दफ़ा अपने ब्लॉग पर लिखा भी था, “मनमोहन देसाई कलाकारों की ओर दर्शकों का ध्यान न होने पर बेहद नाराज हो जाते थे। वे, उस थिएटर में कभी नहीं जाते, जिसमें उनकी फिल्में चल रही हों। ऐसा नहीं था कि वे वहां जाना नहीं चाहते। दरअसल, उनके सहयोगी और स्टाफ वहां नहीं जाने देते। इसकी एक खास वजह थी। उनकी आदत थी कि उनकी फ़िल्मों की स्क्रीनिंग के दौरान कोई बात करे या हॉल के बाहर जाए, तो वे बेहद गुस्से के साथ या तो उसे चुप करा देते या फिर बिठा देते और बाहर नहीं जाने देते।”
कॉमर्शियल सिनेमा को नई रवानी और बुलंदी देने वाले मनमोहन देसाई को फ़िल्मी माहौल विरासत में मिला था। उनका जन्म 26 फरवरी 1936 को गुजरात के वलसाड शहर में हुआ था। पिता किक्कू देसाई फ़िल्म इंडस्ट्री से जुड़े थे। वे पारामाउंट स्टूडियो के मालिक भी थे। घर में फिल्मी माहौल रहने के कारण मनमोहन देसाई का रूझान बचपन के दिनों से ही फ़िल्मों में था। बतौर निर्देशक मनमोहन देसाई की पहली फ़िल्म ‘छलिया’ 1960 में रिलीज हुई। यह बात और है कि राजकपूर और नूतन जैसे कलाकारों की मौजूदगी के बावजूद फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर रंग नहीं जमा सकी। हाँ, इतना ज़रूर हुआ कि फ़िल्म के गीत काफी लोकप्रिय हुए। इसके बाद मनमोहन देसाई ने अभिनेता शम्मी कपूर की ‘ब्लफ मास्टर’ और ‘बदतमीज’ को निर्देशित किया, लेकिन इस बार भी देसाई के हाथों में निराशा ही आई। यह असफलता तो महज भूमिका थी उस फ़िल्मकार के पैदा होने की, जिसे कामयाबी के नए-नए मुकाम हासिल करने थे।
हुआ यूँ कि 1964 में मनमोहन देसाई को फ़िल्म ‘राजकुमार’निर्देशित करने का मौक़ा मिला। हीरो थे—शम्मी कपूर। इस बार मेहनत ने अपना रंग जमा ही लिया और फ़िल्म की सफलता ने देसाई को बतौर निर्देशक एक पहचान दी। फिर मनमोहन देसाई निर्देशित और 1970 में प्रदर्शित ‘सच्चा झूठा’ भी करियर के लिए अहम फ़िल्म साबित हुई। इस फ़िल्म के हीरो थे—उस जमाने के सुपर स्टार राजेश खन्ना। ‘सच्चा झूठा’बॉक्स आफिस पर सुपरहिट रही। इसी बीच मनमोहन देसाई ने ‘भाई हो तो ऐसा’ (1972), ‘रामपुर का लक्ष्मण’ (1972), ‘आ गले लग जा’ (1973), और‘रोटी’ जैसी फिल्मों का निर्देशन भी किया, जिसे दर्शको ने ख़ूब सराहा। 1977 में बनी फ़िल्म ‘अमर अकबर एंथनी’ मनमोहन देसाई के करियर में न सिर्फ सबसे सफल फिल्म साबित हुई, बल्कि उसने अभिनेता अमिताभ बच्चन को ‘वन मैन इंडस्ट्री’ के रूप में भी स्थापित कर दिया।
इसी फ़िल्म के बारे में ज़िक्र करते हुए अमिताभ बच्चन ने एक दफ़ा कहा था कि संयोगों और अतार्किकताओं से भरी ये कहानी सिर्फ मनमोहन देसाई के दिमाग़ का फितूर है। आज भी हम उस फिल्म के पहले दृश्य को देखकर हँसते हैं। एक नली से तीनों भाइयों का खून सीधा माँ को चढ़ता हुआ दिखाया जाना एक ‘मेडीकल जोक’ है। इन सबके बावजूद कुछ है, जिसने देखने वाले से सीधा नाता जोड़ लिया। सारी अतार्किकतायें पीछे छूट गईं और कहानी अपना काम कर गई। एक बात याद दिलाने जैसी है कि मनमोहन देसाई की फ़िल्मों के गाने हमेशा से अच्छे होते हैं। इसी सिलसिले में फ़िल्म ‘अमर अकबर एंथनी’ के सभी गाने सुपरहिट हुए, लेकिन फिल्म का एक गीत ‘हमको तुमसे हो गया है प्यार…’ कई मायनों में ख़ास है। एक तो यह कि इस गीत में पहली और आख़िरी दफ़ा लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी, मुकेश, और किशोर कुमार ने एक साथ गाया था।
कुछ और बातें बताता चलूँ। ‘राजकुमार’ (1964) और ‘क़िस्मत’ (1968) की कहानी लिखने वाले मनमोहन देसाई ने 1981 में निर्मित फ़िल्म ‘नसीब’ जिसके एक गाने ‘जॉन जॉनी जर्नादन…’ में सितारों का जमघट लगा दिया था। यह अपनी तरह का पहला मौक़ा था, जब एक गाने में फिल्म इंडस्ट्री के कई बड़े कलाकार मौजूद थे। इसी गाने के तर्ज़ पर शाहरुख ख़ान की फ़िल्म ‘ओम शांति ओम’ में एक गाना फ़िल्माया गया है। मनमोहन देसाई के निर्देशन में बनी फ़िल्म ‘क़िस्मत’ का एक गाना है—‘कजरा मोहब्बत वाला, अंखियों में ऐसा डाला, कजरे ने ले ली मेरी जान, हाय! मैं तेरे क़ुर्बान’। कहा जाता है कि वे अभिनेता विश्वजीत की सुन्दरता से प्रभावित होकर उन्हें अपनी फ़िल्म के इस गीत में एक महिला किरदार के रूप में पेश किया था और गीत के बोलों को आवाज़ दी थी शमशाद बेगम ने। इस गीत को विश्वजीत के साथ नायिका बबीता के ऊपर फिल्माया गया था। बबीता के लिए आशा भोंसले की आवाज़ का इस्तेमाल किया गया था।
एक और क़िस्सा याद आता है। किसी पत्रिका में पढ़ी थी यह बात। बात 1963 की है। एक दफ़ा मनमोहन देसाई किसी सड़क से गुजर रहे थे। रास्ते में उन्होंने कुछ लोगों को ‘दही-हांडी’ करते देखा। सन्योगवश उन्हीं दिनों ‘ब्लफमास्टर’—जिसका स्क्रीनप्ले भी उन्होंने ही लिखा था—की शूटिंग चल रही थी। उन्होंने सोचा कि क्यों न फ़िल्म में इस तरह का कोई गीत डाला जाए? फिर क्या था, सारी कहानी ही बदल गई। बदलाव यह हुआ कि शम्मी कपूर को शायरा बानो के लिए कोई तोहफा खरीदना है। पास पैसे नहीं हैं। किसी से उन्होंने सुना कि ऊपर लटकी मटकी में 100 रुपए का नोट है। जो वहाँ तक पहुंचेगा और मटकी फोड़ लेगा, नोट उसी का। और इस तरह हिंदी फ़िल्मों में पहली बार ‘दही-हांडी’ दर्शाई गई। इसके बाद तो कई फ़िल्मों में ‘दही-हांडी’ की मस्ती दिखाई गई।
याद दिलाने की ज़रूरत नहीं कि 1983 में मनमोहन देसाई निर्देशित फ़िल्म ‘कुली’ प्रदर्शित हुई थी, जो हिंदी सिनेमा जगत के इतिहास में अपना नाम दर्ज़ करा गई। शूटिंग के दौरान अमिताभ बच्चन को लगी चोट और उसके बाद देश के हर एक पूजा स्थलों में अमिताभ के ठीक होने की दुआएँ मांगना एक अजीब-ओ-ग़रीब बात लगती है, मगर सच यही है। पूरी तरह से स्वस्थ होने के बाद अमिताभ ने ‘कुली’ की शूटिग शुरू की और कहने की ज़रूरत नहीं कि फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट साबित हुई। कहा जाता है कि फ़िल्म-निर्माण के पहले फ़िल्म के अंत में अमिताभ बच्चन को मरना था, लेकिन बाद में फिल्म का अंत बदल दिया गया। 1985 में प्रदर्शित हुई फ़िल्म ‘मर्द’ जो देसाई के करियर की अंतिम हिट फ़िल्म थी। फ़िल्म का एक डॉयलाग ‘मर्द को दर्द नही होता…’ उन दिनो सभी दर्शको की ज़ुबान पर चढ़ गया था। 1988 में ‘गंगा जमुना सरस्वती’ देसाई द्वारा निर्देशित आख़िरी फ़िल्म थी, जो कमजोर पटकथा के कारण बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह पिट गई। इसके बाद भी उन्होंने ने अपने चहेते अभिनेता अमिताभ बच्चन को लेकर फ़िल्म ‘तूफ़ान’ का निर्माण किया, लेकिन इस बार भी फ़िल्म ‘तूफ़ान’ बॉक्स ऑफिस पर कोई ‘तूफ़ान’ नहीं ला सकी। फिर उसके बाद मनमोहन देसाई ने किसी फ़िल्म का निर्माण या निर्देशन नहीं किया। …और इस तरह एक फ़िल्मकार ने अपने करियर का ‘द एंड’ लिखा।
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