Home / फिल्म समीक्षा / महाकरोड़ फिल्मों की बोरियत से निकलना है तो देखिए ‘जेड प्लस’

महाकरोड़ फिल्मों की बोरियत से निकलना है तो देखिए ‘जेड प्लस’

एक के बाद एक आती महाकरोड़ फ़िल्में मनोरंजन कम बोर अधिक करती हैं. ऐसे में ताजा हवा के झोंके की तरह है रामकुमार सिंह लिखित और चंद्रप्रकाश द्विवेदी निर्देशित फिल्म ‘जेड प्लस’. फिल्म की कहानी जानदार है और पहली बार चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने भी अपने संघी सांचे से बाहर निकल कर फिल्म बनाई है. निश्चित रूप से यह फिल्म चंद्रप्रकाश द्विवेदी की अब तक की सर्वश्रेष्ठ फिल्म है. बहरहाल, युवा फिल्म समीक्षक सैयद एस. तौहीद की समीक्षा पढ़िए. ताकि सनद रहे कि इस फिल्म की तारीफ बस रामकुमार सिंह के दोस्त और डॉ. द्विवेदी के संगी पत्रकार ही नहीं कर रहे हैं- मॉडरेटर 

========================================

किसी आम आदमी को जेड सेक्युरिटी मिल जाए तो क्या होगा?  असलम पंचर वाले के लिए यह मुसीबत का दूसरा नाम हो गया. जेड प्लस मिलने से असलम की रोजमर्रा जिंदगी में नाटकीय बदलाव घटित होने लगे. मामूली आमदनी वाले रोजगार से परिवार का पेट पालने वाला असलम इससे पहले आम बेफिखर जिंदगी काट रहा था. पीर वाले बाबा के दर का मुरीद असलम अकीदत में वहां का खाविंद बनकर चला गया. इत्तेफाक देखिए उस रोज ही सियासत के मुखिया देश के प्रधानमंत्री दुआओं खातिर वहां आ गए. तकदीर को भला कहें या की बुरा कि जिसने असलम को उनसे मिला दिया. किसी ख्वाजा या पीर की दरगाह पर मुराद लेकर आनेवालों की कतार में एक आला सियासतदां का भी नाम जुड़ गया था.

मुसीबत के वक्त ही दुनियादारों को खुदा के प्यारे बंदे याद आया करते हैं. सरकार को मंझधार से निकालने के लिए एक फकीर की दहलीज पर सरकार के मुखिया चले आए. मजार पर प्रधानमंत्री के आने से बस्ती वालों को अपनी मुरादें पूरी होते दिख रही थी. पी एम को मजार पर एक खाविंद की शक्ल में असलम मिल गया. असलम वहां यूं पहुंचा की कुनबे से दरगाह का खाविंद बनकर जाने में उसका दिन था. एक बड़े सियासतदां के वहां पहुंचने से असलम की अपनी परेशानियों पर उनकी मदद मांगने का अवसर मिला. असलम की छोटी बड़ी परेशानियों में आशिक मिजाज शायर हबीब ज्यादा परेशान कर रहे थे… असलम व आशिक मिजाज हबीब में पडोसी वाले प्यार की जगह तकरार का सीन था. दुश्मनी की वजह सईदा थी. दोनों का दिल सईदा के इश्क में दीवाना सा था.  

पड़ोसियों में तल्खी दिखाने के लिए कश्मीर रूपक का इस्तेमाल सटायर का दिलचस्प नमूना था…मानो हबीब व असलम पड़ोसी न होकर भारत-पाक हों. बहरहाल असलम पीएम को अपनी परेशानी से अवगत कराने का प्रयास करता है. देशज जबान के इस्तेमाल में असलम एक मिसकम्युनिकेशन का शिकार बन जाता है. बोली के फेर में उलझे पीएम असलम की दुखती रग को ठीक से जान नहीं पाते. पड़ोसी हबीब से परेशान शख्स को पाकिस्तान से परेशान मान कर जेड प्लस की फजीहत देकर चले जाते हैं. एक पंचरवाले की सीधी सी जिंदगी में नाटकीयता का तूफान बरपा हो गया. जाने अनजाने बेचारे की जिंदगी सरकारी पचड़े में फंस कर रह जाती है. अमीर व नेताओं किस्म की जिंदगी आम आदमी के लिए परेशानी से कम नहीं…

फ़िल्म कह रही कि अनिवार्य चीजों का पूरा होना ज्यादा जरुरी माना जाए. असलम के साथ पेश आई बातें हंसाने के साथ लोकतंत्र से सीधे संवाद का असरदार हालात बनाती हैं. असलम पंचर वाली की यह कहानी एक उदहारण सी बन रही की जिसमे सरकार जनता के मुद्दों को दरअसल ठीक से समझ नहीं पाती. खुशहाल जिंदगी की तलाश में जनता कभी न खत्म होने वाले सफर पर निकल जाती है. जेड प्लस यह बताना चाह रही कि आम आदमी सरकार से केवल जिंदगी का सुकून तलब करती है. विसंगतियों से जूझता आदमी को जिंदगी में परिवर्तन नजर नहीं आता. क्योंकि आज भी वो समस्याएं नहीं बदली. एक नयी शक्ल में वो आज भी लोगों को तंग कर रहीं. रात-दिन की मेहनत के बाद भी नसीब नहीं बदलता सिर्फ काम बदल रहा. आम आदमी सरकार से ज्यादा तलब नहीं करता …इसलिए ही शायद सरकार बनाकर भी सरकार से मन का  मांग नहीं सकता. संजय मिश्रा की शक्ल में बर्बाद व खस्ताहाल जिन्दगी गुजार रहे इंतेहापसंदों का मानवीय कोना भी है…आशिकमिजाज शायरी का एक अनोखा किरदार मुकेश तिवारी के हबीब में रोचक अंदाज़ में पेशनजर.

असलम पंक्चरवाले की कहानी की मसाला फिल्मों के नायकों से मेल नहीं खाती. इस तरह के मामूली से दिखते लेकिन ख़ास लोगों पर कम फिल्में बनी. रोजमर्रा के नायक सिनेमा में अपना अक्स तलाश रहे…लेकिन सच मानिए रिक्शावाला, सब्जीवाला, ठेलेवाला या फिर पंचर वाला किस्म के लोगों पर प्रयास कम हुए. लोग बेहतरीन फिल्मों को देखना शुरू करें….बुरी फिल्में फिर से परेशान नहीं करेंगी. फिल्म का चलना, न चलना एक बात है, लेकिन रामकुमार सिंह की कहानी काबिले तारीफ है.सोशल मीडिया से लेकर हर अखबार में चर्चाएं भी हो रही साहसी फिल्मकार चंद्रप्रकाश द्विवेदी की जेड प्लस की तारीफ करने को दिल करेगा. मसाला व महाकरोड़ क्लब की फिल्मों ने जिन लोगों को निराश किया वो जेड प्लस देखें. बाक्स आफिस की दुनियादारी में एक हिस्सा इस किस्म के सिनेमा का भी बनता है.मनोरंजन की एक खुबसूरत परिभाषा आपका इंतेज़ार कर रही. भीड़ से अलग होने का नुकसान खुदावर जुनूं के दीवानों को उठाना नहीं पड़े ..महफिल सजती रहे.

लेखक संपर्क– Passion4pearl@gmail.com
 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

रोमांस की केमिस्ट्री मर्डर की मिस्ट्री: मेरी क्रिसमस

इस बार पंद्रह जनवरी को मैं श्रीराम राघवन की फ़िल्म ‘मेरी क्रिसमस’ देखने गया था। …

9 comments

  1. शायर हबीब की भूमिका मुकेश तिवारी ने अदा की है…करियर का याद रखा जा सकने वाला रोल.

  2. मनोज तिवारी की जगह मुकेश तिवारी….

    हमें तो सिर्फ समीक्षाएं पढ़कर और मन मसोसकर रहना है।
    हमारे यहाँ कोई भी सिनेमाघर जेड प्लस को दिखाने के लिए राजी नहीं है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *