आर. के. लक्ष्मण को श्रद्धांजलि देते हुए मेरे प्रिय कार्टूनिस्ट राजेंद्र धोड़पकर ने उनकी कला का बहुत अच्छा विश्लेषण किया है. आज ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ में उनका यह लेख प्रकाशित हुआ है. आप भी पढ़िए- प्रभात रंजन
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भारत में आर के लक्ष्मण का नाम कार्टून से वैसे ही जुड़ा हुआ है, जैसा संगीत से लता मंगेशकर का या क्रिकेट से सचिन तेंदुलकर का। आम लोगों के लिए वह कार्टून के प्रतीक पुरुष और सर्वोच्च कसौटी थे। मेरी उनसे व्यक्तिगत मुलाकातें दो ही हैं। उनसे कम मिलने की वजह एक तो यह थी कि वह मुंबई में रहते थे और दूसरी यह कि उनका मिजाज पत्रकारिता और कार्टून की दुनिया में काफी चर्चित था। वह ज्यादा लोगों से मिलना-जुलना पसंद नहीं करते थे और अगर उन्हें कोई व्यक्ति या बात पसंद नहीं आई, तो वह उसे सौजन्यवश बर्दाश्त नहीं करते थे। मुंबई में टाइम्स ऑफ इंडिया के जिस दफ्तर में वह बैठते थे, वहां उनके कमरे में जाकर उनसे बात करने की आजादी दफ्तर में भी एक-दो लोगों को ही थी। सौभाग्य से मेरी दोनों मुलाकातें बहुत अच्छे माहौल में हुईं। इसके पहले वह मेरे तत्कालीन संपादक अरुण शौरी से मेरे बारे में कुछ भली बातें कह चुके थे, हालांकि मेरा मानना था कि इसकी वजह मेरे काम का स्तर नहीं, बल्कि यह था कि मेरे पूर्ववर्ती रविशंकर को वह नापसंद करते थे।
लक्ष्मण के इस अंदाज की एक वजह यह भी थी कि वह अपने काम में पूरी तरह समर्पित और सिर से पांव तक डूबे हुए आदमी थे। उन्हें अपने काम में जरा-सी भी चूक बर्दाश्त नहीं थी और उसी ऊंची कसौटी पर वह हर मिलने वाले व्यक्ति को कसते थे। इसी समर्पण की वजह से उन्हें व्यवधान भी पसंद नहीं थे और वह ज्यादा लोगों से मिलने-जुलने से बचते थे। जाहिर है, वह इतनी बड़ी हस्ती थे कि उनसे मिलने की इच्छा रखने वाले उतने ही लोग होंगे, जितने किसी फिल्मी सितारे से, और इसीलिए उन्होंने अपने आसपास एक दीवार बना रखी थी। पिछले लंबे वक्त से वह बीमार थे। उन्हें लकवा मार गया था और वह कार्टून नहीं बना पा रहे थे। तब एक साथी कार्टूनिस्ट के मुताबिक, लक्ष्मण यह कहते रहे कि नियति ने उनके साथ यह क्रूर मजाक किया है कि जो काम उन्हें सबसे प्रिय है, यानी कार्टूनिंग, वही वह नहीं कर पा रहे हैं। इस मायने में भी सचिन से उनकी तुलना की जा सकती है। सचिन के देर से रिटायर होने की आलोचना इसलिए होती है कि लोग इसके पीछे पैसे व ग्लैमर की ललक देखते हैं, जबकि इसकी ज्यादा बड़ी वजह यह थी कि सचिन क्रिकेट में इस कदर डूबे हुए व्यक्ति हैं कि वह यह सोच ही नहीं पा रहे थे कि क्रिकेट के बिना उनका जीवन कैसे मुमकिन हो सकता है? लकवे के बावजूद अपने कांपते हाथों से लक्ष्मण जब तक संभव हुआ, कार्टून बनाते रहे। जो व्यक्ति अपनी कला और उसकी तकनीक का उस्ताद हो, उसकी कांपती लकीरें देखकर बुरा तो लगता था, लेकिन उनकी जिद और समर्पण के लिए मन में उनके प्रति सम्मान भी बढ़ता था।
लक्ष्मण की अपार लोकप्रियता की एक बड़ी वजह यह थी कि भले ही वह एक नामी अखबार के लिए रोज कार्टून बनाते थे, जिसका विषय ज्यादातर राजनीति ही होता था, लेकिन बुनियादी तौर पर वह राजनीतिक कार्टूनिस्ट नहीं थे। वह उस तरह से राजनीतिक विश्लेषक नहीं थे, जैसे कि उनके समकालीन अबू अब्राहम, ओ वी विजयन या राजिंदर पुरी। लक्ष्मण बुनियादी तौर पर ‘कॉमन सेंस’ के कार्टूनिस्ट थे, जिसने उन्हें ‘कॉमन मैन’ का प्रिय कार्टूनिस्ट बना दिया। वह एक समझदार, अक्लमंद और तेज हास्य बोध वाले आम आदमी के नजरिये से कार्टून बनाते थे, इसलिए वह आम आदमी को अपने लगते थे। यह भी सच है कि आम आदमी के नजरिये से या ‘कॉमन सेंस’ से अक्सर राजनीति ज्यादा अच्छी तरह पकड़ में आती है, बनिस्बत राजनीतिक मीनमेख के। लेकिन लक्ष्मण का सबसे जोरदार पक्ष वही था, जहां वह आम आदमी की समस्याओं को उठाते हैं, सड़कों पर गड्ढे, नगरपालिकाओं का तथाकथित निर्माण कार्य, सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार और निकम्मापन, अवैध निर्माण, नेताओं का आम आदमी की समस्याओं का अज्ञान वगैरह-वगैरह। लक्ष्मण जब छुट्टी पर जाते या जब वह बीमार हुए, तो उनके अखबार ने कई साल पुराने उनके कार्टून छाप-छापकर काम चलाया। यह लक्ष्मण का सौभाग्य था या दुर्भाग्य कि देश में वही समस्याएं दशकों से वैसे ही चली आ रही हैं, इसलिए ये कार्टून हर वक्त सामयिक बने रहे और अक्सर पाठक समझ ही नहीं पाए कि जो कार्टून वे देख रहे हैं, वे दस या बीस साल पुराने हैं।
राजनीति में गहरे धंसने में उनकी विशेष दिलचस्पी नहीं थी, यह इस बात से भी जाहिर है कि वह जिंदगी भर मुंबई में ही रहे, राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र दिल्ली में नहीं आए। मुंबई देश का सबसे अराजनीतिक शहर है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां के आम आदमी को राजनीति में बिल्कुल दिलचस्पी नहीं है, जहां पेशेवर राजनेताओं और खांटी पत्रकारों के अलावा शायद ही कोई राजनीतिक बहसों में पड़ता है। मुंबई देश की आर्थिक राजधानी है। वहां के लोगों का मुख्य सरोकार अर्थ है, और वे राजनीति को आर्थिक गतिविधियों में व्यवधान पैदा करने वाली बेकार की गतिविधि मानते हैं। लक्ष्मण में भी राजनीति के प्रति यह उपेक्षापूर्ण रवैया कुछ हद तक था और इसने उनके कार्टूनों को ज्यादा धारदार बनाया, लेकिन यह भी सच है कि लोकतंत्र के बुनियादी मूल्यों और उसूलों के प्रति उनमें गहरा सम्मान था, और यह उनके कार्टूनों में झलकता है। उनके कार्टूनों को देखकर यह भी समझ में आता है कि आजादी के तुरंत बाद के कद्दावर नेताओं के प्रति भी उनमें एक सम्मान का भाव है, हालांकि बख्शा उन्होंने किसी को नहीं है।
मुझे याद है कि एक मुलाकात में वह शिकायत कर रहे थे कि अब वैसे राजनेता नहीं रहे, न वैसे पत्रकार, मैं सोचता हूं कि अब रिटायर हो जाऊं। मैं समझ रहा था कि वह शिकायत के मूड में भले ही हों, लेकिन वह रिटायर नहीं हो सकते। उन्होंने कई बार व्यंग्य में राजनेताओं का आभार भी व्यक्त किया कि उन्होंने कार्टून के लिए विषयों की कमी नहीं होने दी। लक्ष्मण आजादी के बाद तेजी से बढ़ते मध्य वर्ग के महागाथाकार हैं। इस मध्य वर्ग की खुशियां, दुख, शिकायतें, दुनिया और देश को देखने का उसका नजरिया, उसकी उम्मीदें, सबका प्रामाणिक प्रतिनिधित्व उनके कृतित्व में है। इस मध्य वर्ग का विस्तार होता गया और लक्ष्मण के पाठकों और प्रशंसकों का दायरा भी बढ़ता गया। राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय मध्य वर्ग का ऐसा प्रतिनिधि न और कोई लेखक हुआ, और न कलाकार, जैसा कि लक्ष्मण हुए। इस मायने में वह एक कार्टूनिस्ट होने से उठकर एक राष्ट्रीय ‘आइकॉन’ बन गए। चौखाने का कोट और धोती पहना उनका आदमी पचास के दशक में अस्तित्व में आया और तब भी उसकी उम्र पचास के ऊपर ही लगती थी, लेकिन पाठकों की अनेक पीढ़ियों की आंखों में वह सदा जवान बना रहा। लक्ष्मण ने कार्टूनिस्टों की कई पीढ़ियों को प्रेरित किया और भारतीय मध्य वर्ग की कई पीढ़ियों को सड़क के गड्ढों और संसद के शोरोगुल के बीच से गुजरने के लिए मुस्कराहट की ताकत दी। अब वह स्वर्ग में अपनी पैनी दृष्टि से कार्टून का मसाला ढूंढ़ रहे होंगे और कह रहे होंगे- आजकल देवता भी वैसे नहीं रहे। –
‘दैनिक हिन्दुस्तान’ से साभार
बहुत ही सार्थक पोस्ट । लक्ष्मण जी के बारे में विस्तार से जानने को मिला
बहुत ही सार्थक पोस्ट । लक्ष्मण जी के बारे में विस्तार से जानने को मिला