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एक बड़े आदर्श का यथार्थवादी अंत?

देश जिसे अपने आदर्श की तरह अपनाने के लिए तैयार था वह तो कमबख्त हिंदी कहानियों के उस यथार्थ की तरह निकला जिसमें पचास साल से कुछ नहीं बदला. जो लोग राजनीति बदलने निकले थे राजनीति ने उनको बदल दिया. असल में लोकतंत्र का एक ही मॉडल है इस देश में जिसमें लोक के नाम पर कुछ लोग तंत्र बनाते हैं और फिर उनके लिए अपने हित में फैसले लेने लगते हैं. फॉर ए चेंज यह कह सकते हैं कि इस बार लोकतंत्र नहीं आमतंत्र है. लेकिन बहुमत के नाम पर एकतंत्र से जो फैसला कल की फाल्गुनी शाम लिया गया है उसने एक बार फिर यही साबित किया है प्रचण्ड बहुमत नेता को स्वेच्छाचारी बना देता है. नेहरु के बाद देश ने जिस नेता को भी ऐसा बहुमत दिया है वह एकमतवादी बन गया है. 1971 के लोकसभा चुनावों के बाद इंदिरा गाँधी और 1984 के लोकसभा चुनावों के बाद राजीव गाँधी के पतन का कारण उनको मिला विशाल बहुमत बना.

बहरहाल, अभी यह आम आदमी पार्टी एक राज्यस्तरीय पार्टी है. लेकिन अगले आम सभा चुनावों में सबसे बड़ी उम्मीद के रूप में इस पार्टी को देखा जाने लगा है. कांग्रेस पार्टी के संगठन से जुड़े कुछ वरिष्ठ नेताओं से मेरी भेंट-मुलाकात होती रहती है. उनमें से भी कई का यह मानना था कि अगली बड़ी उम्मीद शायद राहुल गाँधी नहीं बल्कि अरविन्द केजरीवाल हों. अब सवाल है कि क्या वह उम्मीद टूट गई है? शायद हाँ, शायद नहीं. हाँ, लेकिन एक बात जरूर है कि जिस तरह की सहानुभूति लहर मीडिया में, सोशल मीडिया में योगेन्द्र यादव को लेकर चली है उसने अचानक भारतीय राजनीति को एक नया नायक दे दिया है. एक अवसरवादी बौद्धिक से विकल्प की राजनीति के नायक जो अपने आचार-विचार में शुद्ध सौम्य लक्स की तरह लगता है. आम आदमी पार्टी ने उसको राजनीतिक मामलों की समिति से निष्कासित कर दिया और अचानक वह जन सहानुभूति का केंद्र बन गए हैं. 

क्या वैसा ही नायक जैसे 1971 के चुनावों के कुछ साल बाद जेपी बन गए थे या 84 के चुनावों के कुछ साल बाद वीपी सिंह. अभी मैं भी भावुक हूँ और यह कहना जल्दबाजी होगी क्योंकि आम आदमी पार्टी ने अभी अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं का विस्तार करना शुरू नहीं किया है. इसलिए फिलहाल यही कह सकता हूँ कि अगर अरविन्द केजरीवाल आम आदमी की जनाकांक्षाओं के नायक हैं तो एक झटके में योगेन्द्र यादव प्रति नायक बन गए हैं. मीडिया अब तक नायक पैदा करता रहा है , इस बार उसने प्रति नायक पैदा कर दिया है.

सारी संभावनाएं भविष्य के धुंधलके में हैं लेकिन एक बात है एक झटके में आम आदमी की उम्मीदों में बड़ी दरार पड़ गई. आखिर ऐसा क्यों होता है कि आम आदमी की आजादी की सारी बड़ी बड़ी संभावनाएं छोटी-छोटी महत्वाकांक्षाओं में सिमट जाती हैं? वैसे उम्मीद इस बात से कायम है कि यह मकाम बहुत जल्दी आ गया. शायद आगे इससे कुछ बेहतर राह निकले! 

-प्रभात रंजन  
 
      

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4 comments

  1. जब जब सत्ता सिर पर सवार होती है ऐसा ही होता है नायक और प्रति नायक बनते बिगड़ते हैं किन्तु जनता की पीड़ा में बदलाव नहीं होता।

  2. बहुत अच्‍छी, सधी हुई टिप्‍पणी । आपकी बात दूर तक जाएगी ।
    प्रेमपाल शर्मा

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