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प्रियंका दुबे की कहानी ‘डेडलाइन’

यह सब हम सब लिखने वालों के साथ होता होगा, डेडलाइन का दबाव, लिखने न लिखने का उहापोह. प्रियंका दुबे ने बहुत बारीकी से इस कहानी में इन्हीं भावों को बुना है. एक छोटी लेकिन एकदम अलग जमीन की कहानी- मॉडरेटर 
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मार्च के आख़िरी दिन थे और उस दोपहर वह अपनी डेस्क पर बैठे बैठे यह सोच ही रही थी की नॉन फिक्शन लिखते लिखते उसका मन अचानक फिक्शन की तरफ क्यों झुकने सा लगता है की तभी जैस कुछ धम्म से गिरने की आवाज़ आई. अगले ही पल औरत के चीख सुनाई पड़ी और फिर एक बच्चा जोर जोर से रोने लगा. शायद उसके सामने वाले फ़्लैट में रहने वाली महिला का नवजात बच्चा बिस्तर से ज़मीन पर गिर गया था. दोपहर की उस सूनी घड़ी में बच्चे की चीख से पूरी बिल्डिंग गूँज उठी. उसे लगा जैसे बच्चे और उसकी माँ की पीड़ा अब उसके कमरे के भीतर भी पसर चुकी है. वह उदास होकर अपने लैपटॉप स्क्रीन पर चमक रहे सफ़ेद वर्ड पेज को टकटकी लगाए देखती रही और चुपचाप बच्चे का रोना सुनती रही. एक बार को उसका दिल हुआ की बालकनी में जाकर एक आवाज़ लागाए और माँ से बच्चे का हाल पूछ आए लेकिन फिर साहस नहीं जुटा पाई. बच्चे के लगातार चिल्लाने से लग रहा था की उसे बहुत ज़्यादा चोट लगी है और वह खुद को उससे और उसकी चोट में और ज़्यादा इन्वोल्व नहीं करना चाहती थी. उसे डर था की ऐसा करने पर उस अनप्रोडक्टिव दोपहर का दुख बढ़ जाएगा और फिर वह आगले कई घंटों तक कुछ लिख नहीं पाएगी.

लिख तो वह फिर भी नहीं रही थी. उसे हमेशा लगता था की जिंदगी में उसने सबसे ज्यादा झूठ खुद से अपनी डेडलाइंस को लेकर ही बोला है. वह अपने आस-पास एक झूठी दुनिया बना लिया करती जिसमें अब डेडलाइंस की उपस्थिती इतनी मजबूत हो चुकी थी की वह लगभग एक इंसान के रूप में उसके साथ हर वक़्त मौजूद रहतीं. वह अकेले में डेडलाइंस नामक इस काल्पनिक इंसान से बातें किया करती. उससे ‘जिंदगी की डेडलाइन’ या ‘डेडलाइन की डेडलाइन’ से जुड़े तमाम फिलोसोफिकल सवाल भी पूछा करती. और हर रोज़ समझा बुझा कर डेडलाइन को एक दिन आगे टरका दिया करती. खुद को लिखने के लिए जारी किए गए समय में वह लिखने के सिवा दुनिया के सारे काम किया करती. और खुद ही न लिख पाने की वजह से परेशान भी होती. 

मगर ऐसा भी नहीं था की वह अपनी डेस्क से इतर कहीं समय बिताती. पर फिर भी लिख पाना उसके लिए सिर्फ उन कुछ सफ़ेद उजले क्षणों में ही संभव हो पाता था जब उसका दिल-दिमाग-और-आत्मा पूरी ईमानदारी से एक साथ कीबोर्ड पर बह पाते. और उन अच्छे दिनों में सूरज डूबने से पहले ही कई कई हज़ार शब्द सफ़ेद वर्ड पेज पर बह जाया करते थे. जब वह लिख नहीं रही होती तब या तो वह लिखने की तैयारी कर रही होती है या फिर यात्रा में होती है. एक कहानी से दूसरी कहानी तक की यात्रा. हिंदी से अंग्रेजी तक की यात्रा. डायरी में लिखे नोट्स, फाइलों में रखे कागजों और टेप्स में बंद कहानियों को उसकी पहली नॉन-फ़िक्शन किताब के चैप्टर्स में बदलने तक की यात्रा. कई कई घंटे चैप्टर्स के स्ट्रक्चर पर काम चलता रहता और वह चार सालों की रिपोर्टिंग के दौरान जुटाया गया रॉ मटेरियल बार बार पढ़ती रहती.

पर उस दोपहर जब तकलीफ बर्दाश्त से बाहर हो गयी तब उनसे अपनी कम्फर्ट पिल ‘धुंध से उठती धुन’ को उठाया और बिस्तर पर गिर पड़ी. सुबह की उदासी में अब तक डूबे अपने जूड़े को खोलकर बाल तकिए पर बिखेर दिए. पढ़ते वक़्त उसे हमेशा बाल खोलने पड़ जाते थे क्योंकि बंधे हुए बालों में तकिए-दीवार-या कुर्सी से सिर टिकने पर उसे अपने बाल गड़ने लगते थे.

एक दिन ऐसा आएगा कि हम अपने को बचाते बचाते अचानक देखेंगे कि बचाने की कोशिश में सब कुछ गँवा दिया है. यह जिंदगी का हमारे लिखने से सही प्रतिशोध होगा- न कम, न ज्यादा. सही” 
–वह धीरे धीरे बोल बोल कर पढ़ रही थी. किचन के रोशनदान से डूबती हुई मार्च की उस दोपहर की आखिरी रौशनियां उसके बिस्तर पर गिर रही थी. दोपहर के खत्म होने और शाम के शुरू होने के बीच के उन अकेले खाली क्षणों में वह बालों में धीरे धीरे अपनी उँगलियाँ घुमाते हुए उन्हें बार बार इतनी शिद्दत से पढ़ती थी जैसे उनके लिखे के ज़रिए उनसे प्रेम कर रही हो. वह निर्मल का सब कुछ इतनी बार पढ़ चुकी थी अब कहीं से भी किताब शुरू कर देती. मगर ‘धुंध से उठती धुन’ जैसे लगभग उसका प्रेमी था. जब वह लिखने के संघर्ष से जूझ रही होती तब सिर्फ यह किताब उसे समझ पाती. इसके ज़रिए वह न सिर्फ निर्मल पर वर्जिनिया, टॉमस मान, टॉलस्टॉय, दोस्तोवेसकी, सिमोन वेल या आंद्रे ज़ीद जैसे लेखकों के प्रभाव को समझ पाती बल्कि लिखने के निर्मल के अपने संघर्ष में भी हल्का सा झाँक पाती. वह उनके पढ़ने और लिखने की शैली, उनकी रीडिंग्स, लिखने के घंटे और उनके डिसिप्लिन को उनकी डायरी के ज़रिए लगभग स्टडी करती. उसका ऐसा कोई दोस्त नहीं था जिससे वह अपने लिखने-पढ़ने से जुड़ी परेशानियाँ साझा कर पाती या जिससे वह अपने काम को लेकर इंस्पायर महसूस कर पाती. (शायद उसकी) ही तरह, उसके आस पास की दुनिया भी हर रोज़ अपने मामूलीपन से जूझ रही थी और हर रोज़ अपने सतहीपन के आगे घुटने भी टेक रही थी. ऐसे में वह अपना और अपने लिखने का वातावरण खुद बनना चाहिती थी. और यह किताब रोज़मर्रा के जीवन के समुन्दर में डूबते-उतराते उसके अस्तिव का टापू थी. उसकी कम्फर्ट पिल. बारिश वालीं रातों में (लिखने के) तनाव की वजह से सुबह 4-4 बजे उठ जाने वाली निर्मल की एंट्रीज़ पढ़कर कई बार उसकी आँखों में आंसू आ जाते और दिल करता की चिल्ला कर उनसे बोल पड़े- ‘हाँ, मेरे साथ भी ऐसा ही हो रहा है. मैं सो नहीं पा रही हूँ और गर्दन में एक तरफ हल्का सा दर्द रहता है हमेशा. अपने आप से बातें करने लगी हूँ. जब अंग्रेजी में लिखती हूँ तब हिंदी में लिखने का मन होता है और जब हिंदी में लिखती हूँ, तब अंग्रेजी में लिखने का. दो भाषाओं में काम करने वाले इंसान का कंफ्लिक्ट भी शायद दो प्रेमों के बीच उलझे इंसान के द्वंद जैसा ही होता है. मुझे हर वक़्त अपने पेट में सिंकिंग फीलिंग होती है. जैसे कोई सिक्का पानी में धीरे धीरे डूबता जा रहा है. मुझे अजीब सपने आते हैं और कई बार आँखों के सामने टेप्सस में बंद कहानियों के विज़ुअल्स बनने लगते हैं. अपने स्व के अंधरे से जूझते हुए मुझे हर रोज़ अपनी ही रौशनी के लिए अपने आप से ही खुद लड़ना पड़ता है और अपनी स्थिति सिर्फ मैं ही समझ सकती हूँ.
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लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं और इस वक़्त अपनी पहली नॉन-फिक्शन किताब पर काम कर रही हैं. 
 
      

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3 comments

  1. वाह …बहुत सुन्दर और बिल्कुल अलग पृष्ठभूमि पर लिखी गई कथा . दो भाषाओं में काम करने वालों का इंसान का कंफ्लिक्ट भी शायद दो प्रेमो के बीच उलझे इंसान के द्वंद जैसा हीं होता है ; क्या खूब कह गई हैं यहाॅ पर प्रियंका जी आप . हिंदी और मैथिली दोनो को पढ़ते /लिखते हुए मैं भी इसे महसुस कर रहा हूं .आपकी कथा संग्रह का इंतजार रहेगा .

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