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काजी नजरुल इस्लाम के गाँव की खबर

लेखक संजय कृष्ण ने काजी नजरुल इस्लाम के गाँव, उनके जन्मस्थान के ऊपर यह अच्छा वृत्तान्त लिखा है. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर 
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क्रांतिधर्मी और विद्रोही कवि काजी नजरूल इस्लाम का गांव चुरुलिया आज भी वही हैं, जहां वह एक शताब्दी पहले था। पं. बंगाल के आसनसोल सब डिविजन में पडऩे वाले इस ऐतिहासिक गांव में जो भी आया, घोषणाएं की, लेकिन पूरा किसी ने नहीं किया। सीएम से लेकर पीएम तक ने। काजी के परिवार वाले अपने स्तर से ही संग्रहालय, नजरूल अकादमी और हर साल उनके जन्मदिन पर सात दिवसीय मेले सहित अन्य कार्यक्रम आयोजित करते आ रहे हैं। ताज्जुब तो तब होता है, जब जनता की दुहाई देने प. बंगाल पर लंबे समय तक शासन करने वाली वाम मोर्चा की सरकार ने भी कोई सुधि नहीं ली। नजरूल के नाम पर एक ईंट भी उसने नहीं रखी। जबकि नजरूल वह पहले कवि हैं, जिन्होंने कलकत्ता में साम्यवाद की नींव रखी थी। स्वतंत्रता-समानता की पूरजोर वकालत की थी। अपने समय के महान कहलाने वाले कवियों की तरह वे अंग्रेजों का गुणगान नहीं किए, उसके राज की खिलाफत की और जेल भी गए। ऐसा कवि वाममोर्चा सरकार के लिए भी अछूत ही रहा।
 
जब ममता बनर्जी सत्ता में आईं तो पांच मई, 2011 को उनके नाम पर विश्वविद्यालय खोलने की घोषणा कर गईं। कहा कि नजरूल के गांव चुरुलिया में ही उनके नाम पर विश्वविद्यालय बनेगा। पता नहीं, क्या हुआ और किसने उन्हें समझा दिया कि पिछले साल उन्होंने घोषणा कर दी कि यह उनके गांव नहीं, आसनसोल में बनेगा। उन्होंने बिना सोचे-समझे यह घोषणा भी कर दी कि चुरुलिया में जमीन नहीं है। अब सवाल है, जब गांव में जमीन नहीं है तो शहर में कैसे जमीन उपलब्ध होगी? पर इसके पीछे हकीकत कुछ और ही है।
 
काजी नजरूल के भतीजे और नजरूल अकादमी के महासचिव काजी मोजाहर हुसैन बताते हैं कि चुरुलिया में जमीन की कोई कमी नहीं थी। यहां पर हम लोगों ने एक सौ पचास बीघे जमीन की व्यवस्था की थी। उसका पूरा नक्शा भी बना लिया था। जरूरत पड़ती तो और भी जमीन दी जाती। लेकिन सरकार ने चुरुलिया के ग्रामीणों की एक न सुनी और तीन जुलाई, 2012 को बिल भी पास हो गया। मोजाहर कहते हैं कि आसनसोल में जहां विश्वविद्यालय बन रहा है, वहां नाला बहता है, कुष्ठ रोगियों का अस्पताल है। कई अन्य चीजें भी हैं, जो शिक्षा के अनुकूल नहीं है। पर, किसके बहकावे में उन्होंने ऐसा किया है, यह तो वही जानें।
खैर, ममता बनर्जी ने काजी पर इतना ही एहसान नहीं किया। पिछले साल से उन्होंने मेले में सरकारी फंड को भी बंद कर दिया है। हर साल नजरूल की जयंती पर चुरुलिया में एक सप्ताह का सांस्कृतिक मेला लगता है। इस बार भी 26 मई से एक जून तक लगने वाला है। पहले प. बंगाल की सरकार पंद्रह हजार देती थी, कुछ सालों से यह रकम बढ़ाकर साठ हजार कर दी गई थी। पर, ममता की मेहरबानी से यह छोटी सी रकम भी बंद हो गई। हालांकि इस छोटी रकम से कुछ होता नहीं है, लेकिन सरकार की मंशा का पता चलता है।
नजरूल अकादमी के सहायक सचिव सुप्रियो काजी कहते हैं कि इस सप्ताहव्यापी कार्यक्रम में बंगलादेश से लेकर असम, राजस्थान, उड़ीसा आदि से कलाकार आते हैं। इनके आने-जाने में ही सात-आठ लाख खर्च हो जाते हैं। फिर उनके रहने, खाने और पारिश्रमिक को जोड़ दें तो खर्च का अंदाजा लगा सकते हैं। इस बार बंगलादेश से काजी नजरूल इस्लाम की नतिनी खिलखिल काजी भी अपने गांव आ रही हैं।
 काजी मोजाहर हुसैन बताते हैं कि मेले का आयोजन 35 सालों से किया जा रहा है। यह सब यहां की जनता के सहयोग से। इन आयोजनों के अलावा कई सामाजिक काम भी अकादमी करती है। 19 जनवरी को स्वास्थ्य कैंप लगाया गया, जिसमें 30 डाक्टरों की टीम ने 2900लोगों के स्वास्थ्य की जांच की और एक लाख तिहत्तर हजार की दवाएं दी गईं। फिर भी प. बंगाल सरकार ने इस गांव पर कोई मेहरबानी नहीं की।
 
पिछले साल काजी की जयंती पर चुरुलिया तक रेल चलाने की घोषणा की गई, लेकिन एक ईंट भी नहीं बिछी। घोषणाएं तो और भी हैं। जब देश के पीएम अटल बिहारी वाजपेयी थे, तो कवि के गांव 1999 में आए थे। उन्होंने नजरूल अकादमी को एक करोड़ 25 लाख रुपये देने की घोषणा की। आज तक एक पाई भी नहीं मिली। 1958 से यह अकादमी कार्यरत है। अपने बूते ही वह एक संग्रहालय बनाए हुए हैं, जिसमें कवि की कुछ पांडुलिपियां, दुर्लभ तस्वीरें, उनका बेड, तानपुरा, ग्रामोफोन आदि रखे हुए हैं। परिवार की बनिस्पत ही चीजें बची हुई हैं। परिवार ने ही उनकी समाधि बनाई। कीर्ति स्तंभ बनाया। काजी की पत्नी प्रमिला काजी की इच्छानुसार उन्हें गांव में ही दफनाया गया। उनकी दूसरी इच्छा थी कि उनकी बगल में ही काजी को भी दफनाया जाए। लेकिन केंद्र सरकार और बंगाल सरकार के रवैये के कारण काजी के शव को बांग्लादेश से नहीं लाया जा सका। बाद में उनकी मिट्टी ले आकर उनकी बगल में दफनाया गया।
 

 

केंद्र हो या राज्य की सरकार, उनके शताब्दी वर्ष पर भी कोई काम नहीं किया न कोई आयोजन। हिंदी वाले भी चुप ही रहे। पर मजा देखिए, रवींद्रनाथ टैगोर के लिए मरे जा रहे हैं। हिंदी वाले भी खूब बकवास कर रहे हैं और केंद्र की सरकार को स्पेशल टे्रन ही चला दी थी। लेकिन इन्हें काजी की याद कतई नहीं आई। क्या एक ईमानदार कवि से सत्ता इतनी डरती है? ममता भी तो विद्रोही नेता हैं, फिर…।
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2 comments

  1. sarkar ke kam ki jamini haqikat….ye rawaiya thik nahi hai..

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