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किसी परछाई की भी देह साबुत नहीं थी!

अभी दो तीन दिन पहले एक वरिष्ठ साहित्यकार ने जानी मानी लेखिका तसलीमा नसरीन की एक तस्वीर फेसबुक पर साझा की और स्त्री स्वतंत्रता को लेकर जबरदस्त बहस छिड़ गई. ऐसे में युवा शोधार्थी सोनाली मिश्र का यह लेख पढने को मिला. सोनाली को सबसे पहले मैंने व्हाट्सऐप समूह ‘रचनाकार’ पर पढ़ा था. बहुत बेबाकी से अपनी बात रखती हैं. ठीक है उसके पीछे गहरा वैचारिक आधार नहीं होता लेकिन अनुभव की उष्मा होती है और उनकी तर्कशक्ति भी प्रभावित करने वाली है. आप भी पढ़िए- प्रभात रंजन 
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आपने मठ बनाए हमने कुछ नहीं कहा, आपने कहा स्त्रियाँ ऐसी होती हैं, हमने मान लिया, आपने कहा कविता, कहानी, छंद ये होते हैं, हमने मान लिया, हम आपके मठ में ही रहने लगीं। हमारी दुनिया आपके मठ के ही इर्दगिर्द हो गयी। हमने गर्व से अपनी इस पहचान को सदियों तक जिया। हम कहीं मठ में ही एक कोने में रहने लगीं। उस कोने में हम अपनी कविता रचतीं, कहानी रचतीं, और फिर मिटा देतीं। उन्हें फलक तक ही न आने देती, आपकी आँखों तक नहीं आ सकी तो फलक क्या चीज़ है। फिर एक समय आपको भनक हुई, अरे, इस कोने में तो कुछ शब्द और कुछ अक्षर बिखरे हैं। आपके मठ को लगा अरे ये तो गज़ब हो गया, ये कौन आ गया! आपने कहाकोने में बहुत गंदगी है, साफ करोहमने साफ किया और उस कोने में कभी फटा कालीन या जूट की बोरी ही बिछा ली। पर फिर भी आपको तसल्ली न हुई। आप उस कोने से सब कुछ बार बार मिटाने की जिद्द में रहे। पर आपने कुछ बरसों के बाद हमें अहसान से भर कर किराए पर एक कमरा दे दिया, तमाम शर्तें मुकम्मल करते हुए। पर हमने उस कमरे में अपने रंग भर दिए, अपने अक्षर, अपने शब्द और अपने अहसास भर दिए, आप उस कमरे में आ आ कर झांकते रहे

कहीं कोई आ तो नहीं गयानहीं साहब, अपनी उधारी का हमें अहसास है, किराए पर लिए गए कमरे में केवल मेहमान आते हैं, जो पानी पीते हैं और चले जाते हैं, हम किसी को यहाँ नहीं टिकाते। साहब, आपने किराए का जो कमरा दिया है, उस पर चार चाँद लग जाते, जो सांस लेने को थोड़ी सी हमारी साँसें भी वापस कर देते। क्या होता अगर पहचान को भी हमें दे देते? पर आपने नहीं दिया? पहचान दी तो उसमें से आधा कतरा अपने पास रखकर हमें केवल अपने मन के अनुसार ही पहचान दी। जितनी भी टुकड़ों में पहचान दी। कभी आम्रपाली के रूप में गणिका बनाया तो बाद में आते आते गणिका से उठाकर बाज़ार में बैठा दिया और आज उसी बाज़ार से छिपकर जाते हैं और हमें केवल धन से ही ढाक दिया। ज़रा एक बार उन नोटों के नीचे भी देखते कि देह से परे दिल भी कहीं देह के किसी कोने में होता है जो जीवित होता है, जिसमें स्पंदन होता है, जिसकी धड़कनें हर रोज़ आते ग्राहकों में अपना साथी खोजती हैं, पर तुमने तो ऐसा कोई भी अधिकार नहीं दिया। बस नोटों के नीचे हमारे स्त्रीत्व को दबा दिया, जिसकी राख शायद हमारी चिता के साथ मिलकर ही कहीं विसर्जित की जाती होगी। हमें जब आपने मठ के कोने से निकाल कर बाहर जाने की स्वतंत्रता भी दी तो वह भी कितने टुकड़ों में दी है, क्या आपने सोचा है कभी? नहीं आपके पास समय कहाँ है? आपके पास तो यह देखने का समय है कि हम कितने बजे घर से निकले? क्या हमने आपके मठ के प्रति अपने सभी उत्तरदायित्व का निर्वाह किया है? क्या हमारी आँखों ने वह आकाश देख लिया है, जो आपने अभी तक छिपा कर रखा हुआ था? अरे हमने वह वर्जित फल खाने की इच्छा तो नहीं कर दी? वाह, आपने क्या हमें स्वतंत्रता दी? लाज न आई आपको? झूला झूलने पर भी आपको लगा कि अरे हमारे परिधान क्या हों? कहीं से पैर तो नहीं दिख रहे? कहीं से वर्जित अंग तो नहीं दिख रहे? क्या हमारी रेखाएं हथेलियों में नई कहानी तो नहीं गढ़ रही? आप कितनी चिंताओं से घिर गए? आपने खुद को प्रगतिशील दिखाने के लिए स्वयं के परिधान तो बदल लिए? 

आपने अपने मठ का भी पूरा रूप रंग बदल लिया। उसे एकदम पूरी तरह आधुनिक बना दिया। पर आपने एक काम नहीं किया, वह जो कालीन हमने अपने कोने में बिछा रखा था, उसे आपने कुछ नहीं किया, उस पर तो एक उपेक्षात्मक द्रष्टि डाली और जैसे आपने एक मौन अट्टाहास किया और सोचा “अरे तुम भी चलोगी, इस नए संसार में मेरे साथ” पर आप एक बात भूल गए, हमारे कोने ने वह अट्टाहस सुन लिया, उसने वह चुनौती स्वीकार कर ली। कोने ने एक नई अंगड़ाई ली और बहुत ही करीने से अपना कालीन उठा लिया और वह अब रसोई से बढ़कर बाहर चलने लगा। आपने चाहा तो बहुत कालीन को थाम लें, कालीन को पकड़ लें, पर उसने तो अब आकाश देख लिया था जो आप उससे छिपाना चाहते थे। और वह अब व्यग्र था हमें उस पर बैठा कर उसी आकाश में ले जाने के लिए। उसने मेरा आंचल पकड़ा और एक ओर से आपने आँचल पकड़ा पर हाय रे, मैं तो उड़ चली अपना आंचल आपके पास ही छोड कर। देखा अपना आकाश और खो गयी, धीरे धीरे आपने हमारे जिन सपनों को दबा रखा था वह भी खिलने लगे एकदम सूरजमुखी की तरह। 

पीले अमलतास की तरह हर तरफ फैल गए। पर उस कालीन ने कहा कि हम अभी उन सपनों को तब तक पोटली में बांधे रहें जब तक कि सपनो को पूरा करने की रणनीति न बन जाए। हम हँसे- “अरे सपने और रणनीति, अरे पागल हो क्या तुम? लग रहा है कोने की धुल तुम्हारे दिमाग पर फैल गयी है” कालीन ने कहा “नहीं, मैं पागल नहीं हुआ हूँ, तुम जिसे अपना आँचल देकर आई हो,  उसके पास तुम्हारी एक पीढ़ी पुरानी है, जो उसी मठ के अनुसार ही सोचती है। तुम जाओगी अपने सपने लेकर, कोई नहीं पहचानेगा। और  व्यर्थ तुम्हें उपहास का केंद्र बनना होगा।” हम सोच में डूब गए “तो क्या करें” कालीन बोला “अभी सपनों को कहीं दबा लो दिल के किसी कोने में” हमने बात मान ली। नीचे जाकर देखा तो जैसे कालीन ने सही कहा था। हां हम उसी की तो छाया थे, हमारे जैसी वहां पर कई थी, कुछ इस पीढी की, कुछ कलियों सी खिलने के लिए आतुर, कुछ एकदम पका हुआ फूल। पर सभी के मुख पर एक ही प्रश्न- कहाँ ले गया था ये कालीन, देखा नहीं हम सबने इसे कैसे अपने अपने मठों में कोने में कितने आराम से बिछा रखा है। क्या हुआ जो उस कालीन के नीचे हमारे सपने दबे हैं? क्या हुआ जो हमारी आकांक्षाओं को असमय ही यह कोना मार रहा है? अरे क्या हुआ हम सदेह ही मृत्यु का वरण रोज़ ही करती है? कम से कम मठ के कोने में हम सुरक्षित तो हैं? हमारे सिर  के ऊपर एक छत तो है! ये सभी प्रश्न उस पर कई और कोनों में सिमटी हुई परछाइयों से आने लगे!  किसी परछाई की भी देह साबुत नहीं थी। हर देह पर कितनी दरारें थी, हम देख भी नहीं पा रहे थे।

फिर उन चेहरों में आपने ही संशय भरा, आपने ही हमारी उड़ान को गिद्ध की तरह दबोचने के लिए हमारा ही प्रयोग किया। वाह, वाह आपने हमें आपस में ही भिड़ा दिया? आप अपने मठ को सुरक्षित रखने के लिए हमारा प्रयोग किया आप ये भी भूल गए कि हम आपके मठ की प्रतिष्ठा को कभी चोट नहीं पहुंचाएंगे, सदियों से ये हमारे ही खून पसीने से सिंचित है, कैसे हम उन्हें ठेस पहुंचाएंगी, ज़रा सोचिये तो, हमने स्रष्टि के आरम्भ से ही इन्हें अपने कन्धों पर सम्हाला है, अब क्यों तोड़ेंगे इन्हें। आज भी नहीं तोड़ेंगे, पर जरा हमें इंसान समझ कर हमारी साँसें वापस कर देते तो हमारे अक्षर भी हम में मिल कर खिल जाते। बाकी तो आपका मठ हमेशा सलामत रहेगा, क्योंकि आने वाली पीढी के लिए हमने भी इसमें अपना समर्पण किया है। पर आपने कब हमारे समर्पण को समझा? आपने हमें आपस में लड़वाया! आपने कभी आर्थिक तो कभी मानसिक आधार पर हमें केवल कोने में समेटे रखा! जैसे ही हमारे कोने ने स्वतंत्रता का वर्जित फल खाया या ये कहें कि कुछ आपकी लापरवाही से तो शायद कुछ आपके वर्ग के कुछ लोगों की समझदारी के कारण हमारे कोने ने उसका स्वाद चख लिया, जो हमारे लिए वर्जित था! इससे आपको ठेस लगी, हां जाहिर है लगना स्वाभाविक है। हमारे उस कोने ने आपकी सत्ता को चुनौती दी। उसने कहा देखो मैं देखूंगा अपना आकाश, जो करना है कर लो। हम तो जाएंगे उस कोने में भी, हम तो जाएंगे वर्जित क्षेत्र में भी, जाओ क्या कर लोगे? आप कैसे कांप गए? और हमारी स्वतंत्रता पर प्रश्नचिन्ह लेकर आ गए। वाह साहब, आपने तो गज़ब किया। आपने एक रस्सी ली और उसे हमारी स्वतंत्रता के लिए प्रयोग करना चाहा। आपने हमारी स्वतंत्रता को केवल देह के आस पास ही समेट दिया। आपने हममे से ही एक ऐसा वर्ग खड़ा कर दिया जिसने देह की स्वतंत्रता को केवल यौन स्वतंत्रता का ही हिस्सा बना दिया। 

और फिर आपमें से एक संस्कारी वर्ग उपजा, एक कौमार्य का रक्षक वर्ग पैदा हुआ जिसने हमारे कंधे पर हाथ रखकर कहा “भय मत करो, मैं तुम्हारे कौमार्य की रक्षा करूंगा” पर हमें भय किससे था? हमें भय आपसे था। हमें भय अपनी स्वतंत्रता से नहीं था बल्कि आपकी छद्म रक्षा से था। हमारे कौमार्य पर लार टपकाते हुए हमारे कौमार्य के रक्षकों से हमें भय था। फिर आपने हमारे कोने को फिर से रक्षक बनकर उसी स्थान पर रखने का कार्य किया और इस बार तो आपका कार्य बहुत ही आसान था, आपके मठ में फिर कई कोने बन गए थे, आपने उसे अपने अनुसार समेट दिया। वाह वाह! आपके इस पौरुष को हमारा नमन। हम इधर अपने कोने को संवारने में और अपने स्थान को ही बनाए रखने व्यस्त  रहे और आपने उधर हम में से ही हमारे विरोधी तैयार कर दिए। जिन्होंने आपकी छाया तले हमारे ही विरुद्ध तलवारें उठा लीं और हमारे सपनों को छलनी कर दिया। और आपने क्या किया आप ताली बजाते रहे, उसी कोने में खड़े होकर जहाँ पर आपने हमें कभी बंद किया था। हम पाखंडों से लड़ते रहे और आपने हमें ही पाखण्ड बना दिया? हमारे सपनों को पाखण्ड बना दिया! आपने सोचा भी नहीं कि आप “फूट डालो और शासन करो” की नीति पर चलकर एक वर्ग पर शासन कर रहे हैं! क्षमा कीजिएगा, ये विवाह, संस्कार, समर्पण आदि की बात आप हमसे न कीजिएगा, याद कीजिये, विवाह से पूर्व एक बार बात करने पर आपने नाम पूछने से पहले यही पूछा था सदियों से कि हम पवित्र तो हैं न! आपने कभी मन से पवित्र होने की बात ही नहीं की। हमारे देह के उभार पवित्र हैं या नहीं? ये आपके लिए महत्वपूर्ण थे, हमारी योनि अनछुई ही थी न! ये आपके लिए महत्वपूर्ण था।

हमारे उरोज अनदेखे हैं हैं नहीं ये आपके लिए प्रश्न था? हमारा नाम क्या था? उससे क्या फर्क पड़ता था! फिर आप हमारे उन्नत उरोजों, अनछुई योनि को लेकर तृप्ति और अतृप्ति के एक ऐसे जगत में ले गए जहां पर एक ओर संतुष्टि की सांसें थी तो एक ओर असंतुष्टि की कुंठा। असंतुष्टि की पीड़ा और वह पीड़ा भी धीरे से उसी कोने का हिस्सा बन गयी। आपकी नाक से तो संतुष्टि के सितार की आवाज़ आती रही और जो उस कोने की कुंठा को और बढाती ही रही। जब सदियों की कुंठा के बाद तनिक आकाश दिखा तो उसीमें आपको हमारे कौमार्य के भंग होने की चिंता होने लगी? ये चिंता हमारे कौमार्य की नहीं थी, बल्कि ये चिंता थी, आपके अहम् की, आपके पौरुष की, यह चिंता थी जूठे होंठ की? जूठी योनि की! मन का समर्पण तो आपके लिए न तब महत्वपूर्ण था और न अब रहा था। अब तो आपने हमें पुन: संस्कार की बेड़ियों में बाँधने का प्रयास किया, पर इस बार आप चतुर निकले। कितनी ही चतुराई से आपने एक संस्कारी वर्ग खड़ा किया और उसने हमसे कहा “सुनो, सिंगार अपने रक्षक के लिए करो, सिंगार और पिटार करके जो बाहर निकलोगी, तो रक्षक ही भक्षक बन जाएगा, अपने रूप की रक्षा करो, उसे सहेजो” पर इस बार हमने पलट कर पूछ लिया “हम किसके लिए सहेजे? क्या हम खुद के लिए अपने रूप और कौमार्य को नहीं सहेज सकते?” अरे गुस्से में आपके संस्कार के नथुने फड़कने लगे? आपकी सत्ता भनक उठी! आपकी सदियों की धारणा भड़क गयी? आपने हमारा गला दबाना चाहा, पर कैसे दबाते? आपकी संतुष्टि तो केवल हमारी ही योनि की दास थी, अब आपने एक और चाल चली। आपने सोचा कि कोने को तो आकाश चाहिए तो क्यों न आकाश को ही अपने अनुसार बना लें। अब आप बाजारवाद के सितारे ले आए, देह से स्वतंत्रता का चाँद ले आए, और हमें वह चाँद दिखाया, देखो ये देह तुम्हारी है, तुम इसका कुछ भी करो, आज हमारे साथ या कल किसी और के साथ, क्या फर्क पड़ता है! आपने तो ये चाँद दिखाकर अपने लिए देह का समन्दर बना लिया और जब चाहें जिसके उभारों में खोने के लिए द्वार खोल लिए। बहुत ही शीघ्र एक वर्ग ऐसा भी आपने बना ही लिया न और अपने लिए कितनी सुविधाएं उपलब्ध करा लीं। फिर आप मूंछों पर ताव देते हुए आए और घर के एक कोने को लात मारी। हमारी प्रतिभा, हमारे सपनों को देह की ही परिधि में बाँधने का पाप आपने किया। आपके पास हमसे लड़वाने के लिए अब एक नहीं दो वर्ग थे। एक तो वह जो अपनी गुफा से बाहर आकर हमारे परिधानों पर आघात करता, प्रहार करता “अरे सारे झगड़े और सारे बलात्कार केवल इन्हीं छोटे कपड़ों के कारण होते हैं। अरे देखो कैसे समाज का माहौल इन लड़कियों के कारण बदल रहा है, हमारे संस्कारों की नदी प्रदूषित हो रही है” और हमें डसने लगते उस वर्ग के दंश। हमारी साँसें घुटने लगती। पर नहीं नहीं आपने तो अपने लिए एक और वर्ग तैयार कर रखा था जो बिकनी में आकर हमारे परिधानों पर तंज कसता। आपकी बांहों में समाते हुए हमें ऑर्थोडॉक्स कहता। और आप अपनी इस विजय पर मुस्काते। आपने हमसे लड़ने के लिए दो वर्ग बना दिए और स्वयं को शक्तिशाली कहते हैं? अरे आपसे भयभीत तो कोई भी नहीं है। आप हमसे भयभीत हैं, हमारी प्रतिभा से भयभीत हैं, हमारे सपनों से भयभीत हैं। और इस भय को आपने किस तरह से व्यक्त किया, वाह साहब बलिहारी आपकी। आपने फिर अपने ही वर्ग में बात करनी आरम्भ की “स्त्रियाँ सुनो, स्वार्थी हो गयी हैं। संस्कारी नहीं बची हैं। विवाह से पूर्व ही वे अपवित्र होने लगी हैं। ये अराजक हो गयी हैं, उन्मुक्त हो गई हैं, कुसंस्कारी हो गयी हैं, कुछ तो करना होगा।”

आपके साथियों ने हामी भरी, और एक लालच भरी द्रष्टि से आपके दाएं ओर में बैठे हुए वर्ग की ओर देखा और एक याचक की द्रष्टि से आपके बाएँ ओर बैठे वर्ग की ओर देखा। दाईं ओर वह था जो बिकनी में आपकी बाहोंमें हिलोरे लेता था तो बाईं ओर वह था जो संस्कारों की रक्षा करने के लिए था। और आप सब मिलकर किसे परास्त करने में लग गए, हमें। जो झुकने के लिए तैयार नहीं, अनुचित शर्तों को मानने के लिए तैयार नहीं। हम विमर्श के माध्यम से आपसे बात करना चाहती हैं तो आप हममें से कमजोर और उससे कमजोर वर्ग को छांट कर उन्हें हमारे विरुद्ध प्रयोग करते हैं। नहीं साहब अब तो ये नहीं चलेगा। अब तो आपको इस छद्म युद्ध को समाप्त करना ही होगा। आपको अपने मठ को सुरक्षित रखने के लिए छल बल का सहारा लेना बंद करना होगा। अब हमें अभिव्यक्ति की वास्तविक स्वतंत्रता चाहिए। हमें स्वतंत्रता चाहिए, पर हम परिवार से परे स्वतंत्रता नहीं चाहतीं। आप ने शायद समझा ही नहीं, हममें आत्मनिर्भरता है, पर हम प्रेम भी करते हैं और प्रेम देना भी चाहते हैं, पर केवल थोड़ी स्वतंत्रता के साथ, हम चाहते हैं आप हमारी सांसों को केवल सांस ही न समझें, आप हमारी साँसों को भावनाओं का स्पंदन समझें। हमारे देह के उभारों को केवल देह के उभार ही मात्र न समझें, उन्हें सदियों से चली आ रही कामनाओं का वह पाश समझें जिसके सम्मुख कुबेर का खजाना भी कुछ नहीं है। हमारे आलिंगन को प्रेम, स्नेह आदि सबका मिश्रित रूप समझें। हमारी स्वतन्त्रता से आपका अस्तित्व संवरेगा, पर आप को लगता है कि हमारी स्वतंत्रता से आपका अस्तित्व ही खतरे में आ जाएगा, और इसी भय के कारण आप हम पर तीन ओर से वार कर रहे हैं। 

देखिये, इस चक्कर में आपका मठ ढहा जा रहा है, आप अपने मठ की दीवारों की रक्षा करने के लिए हथियार लिए बैठे हैं और किससे ढह रहा है, हमसे? नहीं वह ढह रहा है आपसे, आपकी निराशा से, आपकी प्रतिहिंसा से, आपके इस भय से कि हमारी स्वतंत्रता से आप खतरे में आ जाएंगे। जरा अपनी नज़रें उठाकर हमें एक बार देखिये तो सही, एक बार विश्वास के साथ हमें देखिये तो सही। हां पहल तो हो रही है, कुछ कदम आपके वर्ग से आ रहे हैं। पर वे शायद अभी नाकाफी हैं। हमारा कोना तो आकाश पर अपनी मज़िलों को पाने के लिए उड़ चला है, अब आप हमारे कोने पर फूल माला चढ़ा कर श्रद्धांजली दे दीजिए, क्योंकि अब वह कोना कोना नहीं रहेगा, अब उस कोने की रोशनी दुनिया में फैलेगी? आप रोकेंगे तो भी रोक न सकेंगे पर एक ही अनुरोध हैं कि हमें केवल देह के आधार पर आंकना बंद कर दें।  हमें केवल योनि समझना बंद कर दें, हमें आपस में लड़वाकर आप हमारी बहुत हानि कर चुके है, पर हां, अब अभिव्यक्ति नहीं रुकेगी, अब अभिव्यक्ति नहीं रुकेगी। हम मेहंदी रचेंगी तो हम देह के अपने आयाम भी रचेंगी। हमें देह पर अधिकार इसलिए नहीं चाहिए क्योंकि हमें कई लोगों से देह साझा करनी है, अपितु हमें देह पर अधिकार इस लिए चाहिए जिससे हम देह को महसूस कर सकें। देह के प्रति आप हममें कोई शुचिता बोध न दें, पवित्र देह और अपवित्र देह से परे हमारी अभिव्यक्ति की एक दुनिया है उसे समझें। हमें मर्यादा की डोर में बाँधने के स्थान पर क्यों न मर्यादा की ही डोर को तनिक ढील दे दें। न तो आप ही इससे छोटे हो जाएँगे और न ही मठ का गुम्बद हिलेगा। मठ आपका है बस हमने अपने लिए अपने अनुसार एक राह बना ली है। अब हम मठ में कोई कोना नहीं मांगेंगे, अब हम अभिव्यक्ति का अधिकार भी नहीं मांगेंगे। हम बोलेंगे, हम लिखेंगे, जब आपने हमें कोना दिया था तभी हमने अपने  अक्षरों का संसार उसमें बना लिया था और अब तो हमारे पास आकाश है, कहाँ देह की सीमाओं में बांधकर हमें कुंठाग्रस्त कर सकेंगे? नहीं अब आप नहीं कर सकेंगे? हम उठ चले हैं देह बोध से परे, देह के प्रति हमारे मन में अब कोई कुंठा नहीं है। हम अपनी कूपमंडूकता से ऊपर उठ चुके हैं। आपके मठ की नींव में मट्ठा डालने का पाप हमने न कल किया था और न ही आज करेंगे बल्कि उस मठ को संवारेंगे, मिल कर। बस आप अपनी कुंठा का त्याग कर दें।

साहब, मांगेंगे नहीं अब करेंगे। खुल कर खुद को अभिव्यक्त, जो नियम हमारे अनुकूल नहीं होंगे हम उन्हें तोड़ेंगे।  आप इस के लिए हम पर जो भी आरोप लगाएं, पर अब मठ में हमारे पसीने की भी गंध होगी, जो आपको हर क्षण हमारे अस्तित्व का अहसास कराएगी।

 
      

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11 comments

  1. धन्यवाद

  2. यथार्थ यहीं है|

  3. धन्यवाद सर

  4. धन्यवाद आशुतोष जी

  5. यथार्थ अभिव्यक्ति…

  6. शाबास ! सोनाली। बहुत ख़ूब। बड़ा अच्छा लेख लिखा है। मेरी बधाई और शुभकामनाएँ।

  7. अभिव्यक्ति सबसे अहम् …..

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