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जगजीत सिंह की जीवनी ‘बात निकलेगी तो फिर’ का एक चुनिन्दा अंश

हाल में ही ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह की जीवनी आई है. सत्या सरन की लिखी यह जीवनी ‘बात निकलेगी तो फिर’ हार्पर कॉलिन्स से आई है और इसका हिंदी अनुवाद मैंने किया है. एक चुनिन्दा अंश उसी पुस्तक से जिसका सम्बन्ध जगजीत सिंह के आरंभिक दिनों से है- प्रभात रंजन 
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तारीफ उस खुदा की जिसने जहाँ बनाया
कैसी ज़मीं बनाई क्या आसमां बनाया
सूरज से हमने पाई गर्मी भी रौशनी भी
क्या खूब चश्मा तूने ऐ मेहरबां बनाया
पैरों तले बिछाया क्या खूब फर्श खाकी
और सर पे लाजवर्दी एक सायबां बनाया
रहमत से तेरे क्या क्या हैं नेमत-ए-मयस्सर
इन नेमतों का मुझको क्या कद्रदां बनाया 
मिटटी से बेलबूटे क्या खुशनुमा उगाये
पहना के सब्ज़ खिलअत उनको जवां बनाया

इसका कोई संकेत भी नहीं था जिससे यह लगे कि भविष्य में क्या होने वाला था. कुछ भी असामान्य नहीं था. अमर सिंह की पत्नी से उनको कई बच्चे हुए. वह अब भी इतनी जवान थी कि उनको कुछ बच्चे और हो सकते थे. जब तक बच्चे स्वस्थ और सामान्य रहें, बस यही बात मायने रखती थी और किसी बात का कोई मतलब नहीं था.

शायद, जब वह बच्चा रोया तो हो सकता है उसकी आवाज में अलग खासियत दिखाई दी हो, लेकिन वह घर बच्चों से भरा हुआ था, और जिसकी वजह से करने को बहुत काम होते थे. किसी को इस बात की फुर्सत नहीं थी कि इसके ऊपर ध्यान दे

समय के साथ, उस संस्कार का मौका आया जो किसी बच्चे के जीवन का पहला मील स्तम्भ होता है. नवजात को नाम दिया गया, जगमोहन. वह जो दुनिया को अपनी तरफ आकर्षित करता है. जीवन गुजरता रहा, उस नदी की तरह जो रोज रोज के जीवन के उतार चढ़ावों के बीच बहती रहती है. बाद में उस बच्चे जगमोहन का नाम बदल कर जगजीत सिंह कर दिया गया.

जगजीत के पिता अमर सिंह जन्म से हिन्दू थे. लेकिन युवा अमीन चंद, जो नाम उनके माता पिता ने रखा था, का मन सिख गुरुओं की शिक्षाओं में लगने लगा. जब बाल बढ़ाकर पगड़ी बांधकर उन्होंने सिख धर्म को अपनाया तो उनके माता पिता को कैसा लगा इसके बारे में तो कुछ पता नहीं है; लेकिन 17 साल के अमीन ने सिख धर्म की शिक्षाओं को बड़ी गंभीरता से लिया. उन्होंने अपना नाम बदलकर अमर सिंह रख लिया और नामधारी सिख बन गए. नामधारी सिख सोच और आचरण के द्वारा विश्व की शुद्धता में विश्वास करते हैं, वे जानवरों की रक्षा को लेकर बहुत भावुक होते हैं और शाकाहार का पालन करते हैं. अमर सिंह इन सभी सिद्धांतों में दिल से यकीन करते थे, वे शाकाहारी हो गए थे, और अपना जीवन उन्होंने पूरी धर्मनिष्ठा के साथ जिया.

अमर सिंह ने जिस गरीबी में जन्म लिया था उससे ऊपर उठने के लिए वे काफी मेहनत करते थे, वे दिन में जीवन यापन के लिए काम करते थे और रात में पढ़ाई और आखिरकार लोक निर्माण विभाग में उनको नौकरी मिल गई. इस नौकरी के कारण उनके जीवन में सुरक्षा का भाव आया और कुछ हद तक सुकून भी. उस जीवन में जिसमें तब तक मुफलिसी ही बदी हुई थी. उनकी पोस्टिंग बीकानेर में हुई जहाँ उन्होंने अपना घर बनाया.

उनकी पत्नी को सब बीजी बुलाते थे और वे जिस परिवार से आई थी उसकी हालत उनके परिवार से बेहतर थी. संयोग से हुई उनकी मुलाकात के नतीजे में उनकी शादी हुई. ट्रेन में दो यात्री मिले, उनके बीच अपने अपने परिवारों की कहानियों का आदान-प्रदान हुआ, और अमर सिंह मंगेतर बन गए, और जल्दी ही उन्होंने खुद को पति और गृहस्वामी की नई भूमिका में पाया.

गुरुओं के बनाए कायदों का पालन करते हुए अमर सिंह ने गृहस्वामी के रूप में घर को ऐसे चलाया जहाँ सादगी का वास था, इस हद तक सादगी कि घर में चाय तक पीने की मनाही थी. फिर भी, उनको ऐसे आदमी के तौर पर जाना जाता था जो अपने खुले दिल और उदारता के लिए जाने जाते थे. उनके पास जो भी थोड़ा-बहुत था वे उसको अपने नाते रिश्तेदारों के साथ साझा करने में यकीन रखते थे. उनको 11 बच्चे हुए. वे अपने 11 बच्चों के सख्त पिता साबित हुए होते लेकिन जो सात बच्चे जीवित बचे उनका पालन उन्होंने पूरी सख्ती और कायदों के मुताबिक़ किया. 

उन लोगों ने खामोश लेकिन मेहनत से भरा जीवन जिया. अमर सिंह घर के सदस्यों के लिए साधन जुटाने में लगे रहते थे, जबकि उनकी पत्नी खाना पकाती थी, कपड़े सीती थी, घर और बच्चों की जरूरतों का ख़याल रखती थी. उन्होंने इस बात के ऊपर ध्यान दिया कि जगमोहन के जन्म के बाद उनके जीवन के मायने बदल गए थे, हालाँकि किसी और ने इस बात के ऊपर ख़ास ध्यान नहीं दिया. हालाँकि इस बात को अमर सिंह इस बात को काफी बाद में कहने वाले थे, जब उनको यह समझ में आने वाला था कि भविष्य उनके लिए क्या लेकर आने वाला था.

संभवतः अमर सिंह को इस बात का पहला आभास तब हुआ कि उनका बेटा जगमोहन सबसे ख़ास था जब उनके नामधारी गुरु ने उनको इस बात की सलाह दी कि वे जगमोहन का नाम बदल कर जगजीत कर दें. यह दुनिया जीत लेगा’, गुरु ने इस बात की भविष्यवाणी की. उनकी बात का पालन करते हुए बच्चे का नाम बदल दिया गया. औपचारिक रूप से जगजीत सिंह का जन्म हुआ.

जगजीत दुनिया को तलवार से जीतेगा या कलम से या उसके अंदर हाकिम बनने का हुनर था, यह सोच का विषय नहीं था. उसने वही किया जो उसके भाइयों ने कियास्कूल गया जहाँ उसने उर्दू पढना और लिखना सीखा, और गणित के सवाल हल करने सीखे. स्कूल साधारण था जहाँ विद्यार्थी फर्श पर पालथी मारकर पढ़ते थे, और स्लेट पर लिखते थे. शाम के बाद पढ़ाई लालटेन की मद्धिम रौशनी में चलती.

संगीत उनके रोज रोज के जीवन का हिस्सा नहीं था, कम से कम उस तरह से नहीं जिस तरह से वह आज उनके जीवन का हिस्सा है. रेडियो तब विलासिता की चीज था और वह हर आदमी के बूते का नहीं होता था’, जगजीत सिंह ने अपने आरंभिक जीवन के बारे में कहा था. तब द्वितीय विश्वयुद्ध का समय था, और मुझे याद है कि मैं अपने पिता के साथ पास के पार्क में जाता था ताकि हम पास के घर से आती रेडियो पर पर समाचार की आवाज को सुन पायें.

सबसे पहले जगजीत सिंह ने जो संगीत सुना होगा वह गुरबानी का पाठ रहा होगा. बार बार सुनने के कारण गुरुओं की बानी का संगीतबद्ध पाठ उनको जाना पहचाना लगने लगा होगा. अमर सिंह को खुद भी संगीत की धुन से प्यार था, और उन्होंने यह फैसला किया कि उनके किसी बच्चे को भी संगीत का औपचारिक ज्ञान हासिल करना चाहिए, संगीत की बारीकियों की समझ के लिए, और उस आनंद के लिए भी जो संगीत के साथ आता है.

उन्होंने इसके लिए जगजीत का चुनाव किया. ऐसा लगता था कि उस बच्चे में गीतों को लेकर नैसर्गिक प्यार था. जब उनका परिवार श्रीगंगानगर वापस गया, अमर सिंह मूल रूप से जहाँ के रहने वाले थे, तो वहां हालात बेहतर हो गए. वहां उनके पास अपना रेडियो आ गया जिसके ऊपर वे अपने घर में प्रसारित होने वाला संगीत सुनते थे और संगीत सुनकर रोज की थकान उतारा करते थे.

जगजीत ख़ास तौर पर उन गानों से प्रभावित थे जो उस समय की फिल्मों के होते थे और रेडियो पर प्रसारित होते थे. 12 साल के जगजीत ध्यान से उन गानों को सुनते थे और जब घर में अपने हिस्से के काम करते थे तो उनको गुनगुनाया करते थे, उनके जिम्मे जो काम थे उनमें कुएं से घर के लिए पानी लाना, सब्जी खरीदना और रोजमर्रा के काम.

ऐसा नहीं था कि उनके गाने के ऊपर लोगों का ध्यान नहीं गया. जिसकी वजह से उनको औपचारिक तौर पर इसकी शिक्षा दिलवाने का फैसला किया गया. उनको तब बहुत ख़ुशी हुई जब उनको नेत्रहीन गायक पंडित छगनलाल शर्मा के पास ले जाया गया ताकि उनको शास्त्रीय संगीत की दीक्षा दिलवाई जा सके… जगजीत में एक पक्के शिष्य के सारे गुण थे, वे ध्यान लगाकर सुनते थे, उनके शिक्षक उनको जो भी सिखाते थे वे उसको पूरी लगन से ग्रहण करने की कोशिश करते थे. जल्दी ही वे पंडित जी से काफी कुछ सीख गए. जब उनको बुनियादी ज्ञान हो गया तो उनको उस्ताद जमाल खान के पास ले जाया गया जिन्होंने उनको आगे संगीत की शिक्षा दी, और उनको ठुमरी और ख़याल में पारंगत करवाया. वे उनसे अधिक प्रभावशाली परम्परा वाले उस्ताद के बारे में सोच भी नहीं सकते थे, क्योंकि उस्ताद का यह दावा था कि उनका ताल्लुक महान तानसेन की परम्परा से था.

जगजीत सिंह के छोटे भाई करतार सिंह, जो दिल्ली में रहते हैं और यहाँ चाइनीज फ़ूड का एक बेहद सफल रेस्तरां हाओ शी नियान चलाते हैं, इस बात को याद करते हुए बताते हैं कि किस तरह उनके भाई घंटों एक कोने में बैठकर उस्ताद की शिक्षा को मनोयोग से ग्रहण करते थे. वे बड़े शरारती थे, उनमें से कुछ बातों को छापा नहीं जा सकता है’, करतार याद करते हुए बताते हैं, ‘लेकिन जब संगीत की बात आती थी तो वे कोई और ही इंसान बन जाते थे. हम खेल रहे होते थे लेकिन जब खान साहब आते थे तो वे दौड़ कर उनके पास चले जाते थे, उनके बाल खुले होते थे, गंदे, पसीने से सने कपड़े और उनसे सीखने के लिए बैठ जाते थे. उस्ताद एक लम्बी, पतली छड़ी लेकर चलते थे, और अगर जगजीत से कोई गलती होती तो वे टखनों पर एक लगा देते थे. हम सब उस सबक में ऐसे खो जाते थे कि वहीं बैठ जाते थे. नहीं तो, हमें वहां से भगा दिया जाता था. 

करतार के दिमाग में इस बात की स्मृति भी साफ़ है कि उस्ताद के जाने के बाद भी उनका भाई मैले कुचैले कपड़े में, पीछे की तरफ लटके खुले बालों के साथ घंटों तानपुरे की संगत में गाता रहता था. घर में हम सभी को उसका अभ्यास करना पसंद था, लेकिन हम में से कोई भी गाता नहीं था. मुझे संगीत कुछ समझ में नहीं आता था लेकिन तब भी मुझे वह पसंद था, और हालाँकि मुझे यह कहा गया था कि मेरी आवाज अच्छी थी, मैं खुद को रियाज़ की मशक्कत के सामने नहीं झुका सकता था. वैसे मेरे बड़े भाई तबला बजाते थे.

बाद में, उन्होंने आदरणीय उस्ताद जमाल खान से सीखना शुरू किया, जिनका ताल्लुक सेनिया घराना से था और जिनकी ख्याति यह थी कि वे तानसेन की परम्परा से आते थे. जगजीत ने उस्ताद जमाल खान से जो बंदिशें सीखी थी उनको वे अपनी प्रिय बंदिशों में शुमार करते थे, जिन्होंने उनको उनको मालकौंस तथा बिलासखानी तोड़ी में ध्रुपद भी सिखाया. जगजीत सिंह ने तब उस संगीत की धरोहर को अमूल्य नहीं समझा था लेकिन अपनी संगीत यात्रा में वे उनकी वजह से बेहतर बने रहे.

जगजीत सिंह के भाई-बहनों में सबसे करीबी थे करतार, जिनका जगजीत के साथ रोज रोज का संपर्क तब ख़त्म हो गया जब वे कक्षा 3में पढ़ते थे, जब बड़े भाई आगे की पढ़ाई के लिए जालंधर चले गए. लेकिन हमारे बीच का बंधन बरकरार रहा और जब वे छुट्टियों में घर आते थे तब हम पतंगबाजी करके उनके आने का लुत्फ़ उठाते थे.

फ़िल्मी संगीत तथा शास्त्रीय संगीत, मोहम्मद रफी के गाने, पूरी पाकीजगी के साथ गुरबानी: जगजीत की संगीत यात्रा के ये आरंभिक अक्षर थे. संगीत के प्रति उनका प्यार और गहरा हो गया,
 
      

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