कविता कई बार हमारी बेचैनियों को, हमारी चिंताओं को भी आवाज देती है. देश-समाज पर चिंता करने की एक शैली. सौम्या बैजल की कविताओं को पढ़ते हुए वही बेचैनी महसूस हुई. मुक्तिबोध की पंक्तियाँ हैं- क्या करूँ/कहाँ जाऊं/ दिल्ली या उज्जैन?
सौम्या बैजल हिंदी और अंग्रेजी दोनों में लेख, कवितायेँ और फिल्म reviews लिखती हैं, जो उनके ब्लॉग: saumyabaijal.blogspot.com पर पढ़े जा सकते हैं. वह आतिश नाट्य संस्था की सह संस्थापक है, और विज्ञापन की दुनिया में पिच्छले ८ सालों से काम कर रही हैं. वह कत्थक सीख रही हैं, और अपनी गुरु की प्रदर्शनियों में हिस्सा ले चुकी हैं. साथ ही IHC फिल्म क्लब और समन्वय से भी जुडी रह चुकी हैं.
==============================================================
1.
कौन अंदर, बाहर है कौन?
कौन ऐसा
कौन वैसा
कौन तेरा
कौन मेरा
किसका मौला
किसका राम
किसका रक्त
इतना आम?
किसकी भाषा
किसका नाम
किसके बोल
किसका काम?
किसकी सोच
किसका होश
जिसकी कुर्सी
उसी के बोल
किसका घर
किसकी टीस
किसका धर्म
किसकी पीर?
कौन बागवान
किसकी सत्ता
कैसा भगवान
जिसकी सत्ता?
किसने चीरा
किसने काटा
किसने उधेड़ा
जिसकी सत्ता?
कौन है घर का
कौन पराया
किसका घर था?
कौन है आया?
किसकी गाय
किसका सूअर
किसका आंदोलन
किसे खबर?
कौन है सुनता
किसको होश?
किसके क़दम?
किसका दोष?
किसकी चुप्पी?
किस पर ज़ोर?
किसकी मिट्टी?
किसकी भोर?
क्या 1975?
क्या 2015 ?
क्या 2002?
क्या 2013?
क्यों सहें भगवाकरण?
किसका है वो रंग?
क्यों ना करें विद्रोह?
कुछ हम जैसों संग?
उसकी आवाज़
जिसका कलम
उसकी चीख
जिसका कलम
किसका देश?
कहो किसका देश?
आपका देश?
या मेरा देश?
तेरा देश?
या हमारा देश?
नारंगी देश?
या हरा देश?
खूनी देश?
या शांत
2.
वार
हम सब जो यहाँ बैठे हैं,
सभी वार का शिकार हैं.
देखिए एक दूसरे की आँखों में,
कुछ कहते सहमते हुए निशान, नज़र आएँगे.
कुछ घाव शरीर पर होते हैं,
कुछ होते हैं सोच पर,
कुछ होते हैं आवाज़ पर,
और कुछ होते हैं आत्मा पर.
वह निशान जो अंदर से,
दीमक की तरह चाटते हैं,
वह गहरे नासूर होते हैं,
जो आत्मा पर बार बार,
क्रूरता से किए गये वार हैं.
एक औरत होना, शर्मनाक होना,
एक औरत होना, सभी की जागीर बनना,
एक औरत होना, तो चुप रहना,
एक औरत होना, महज़ एक शरीर होना.
क्यों एक बहादुर औरत, आश्चर्य की बात है?
क्यों एक सफल औरत को, संदेह की नज़र से देखा जाता है?
क्यों एक औरत के, आदर्श के दायरे कोई और तय करता है?
क्यों एक औरत को, इंसान नहीं, केवल औरत कहा जाता है?
सोचिए, आपके होने पर प्रश्न उठे हैं, क्या वह आप पर वार नहीं हैं?
आपके बोलने पर प्रश्न उठे हैं, क्या वह आपकी आवाज़ पर वार नहीं हैं?
आपको दायरों में दबाने की, समेटने की कोशिश, क्या आपकी स्वतंत्रता पर वार नहीं हैं?
आपकी अखंडता पर प्रश्न उठे हैं, क्या वह आपके व्यक्तित्व पर वार नहीं है?
आपके सपनो पर प्रश्न उठे हैं, क्या वह आपकी योग्यता पर वार नहीं है?
आपको हौसलों पर प्रश्न उठे हैं, क्या वह आपकी सोच पर वार नहीं हैं?
कुछ वार ऐसे भी होते हैं,
जो औरतें, रोज़ झेलती हैं,
कुछ निशान ऐसे भी होते हैं,
जिन्हे औरतें अब शान से दिखाकर चलती हैं.
लेकिन क्यों दबाए वह वार चिन्ह,
अपनी सहमी हुई हँसी में?
क्यों भूलने की कोशिश करें वह वार,
अपने रोज़ के वेशवास में?
कब रुकेंगे यह वार,
आज या कल की उम्मीद में?
कब जिएंगे हम सभी,
निशानों के अभाव में?
वहुत सुंदर सौम्या जी
बहुत सुन्दर रचना हैं AchhiBaatein.com
अपने ब्लॉगर.कॉम ( http://www.blogger.com ) के हिन्दी ब्लॉग का एसईओ ( SEO ) करवायें, वो भी कम दाम में। सादर।।
टेकनेट सर्फ | TechNet Surf
Aap sabhi ka bahot bajot shukriya. Padhne aur protsaahan, dono ke liye.
Gari soch gahre waar ki tarah hi.Yataarth hai yehi naari ka swaroop!
Bahut sadhi hui, sundar kavitaayen…
अच्छी हैं कविताएँ। शिल्प की सहजता मोहक है। कवि को बधाई।