युवा शायर त्रिपुरारि कुमार शर्मा की इन दो गज़लों की भूमिका में कुछ नहीं लिखना. ये आज के युवा आक्रोश का बयान हैं- मॉडरेटर
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1.
हुकूमत जुर्म ही करती रही है इक ज़माने से
मगर जनता नहीं डरती मियाँ आँखें दिखाने से
अगर हक़ है तो बढ़ के छीन लो तुम माँगते क्यूँ हो
यहाँ कुछ भी नहीं मिलता फ़क़त आँसू बहाने से
सियासत आग में घी डालने का काम करती है
नहीं थकते हैं उसके हाथ लाखों घर जलाने से
सियाही रूह के दामन पे जो इक बार लग जाए
वो हरगिज़ मिट नहीं सकता है जिस्मों के नहाने से
न जाने बद्’दुआ किसकी लगी मासूम होंठों को
झुलस जाते हैं अक्सर होंठ हँसने मुस्कुराने से
2.
ख़ून फूलों से बहे गंध की लज़्ज़त टूटे
अब तो बस इतनी दुआ है कि क़यामत टूटे
वक़्त की कोख से निकलेंगे कई अच्छे दिन
शर्त ये है कि सर-ए-आम हुकूमत टूटे
सरहदें ख़त्म हो सकती हैं यक़ीनन लेकिन
उससे पहले ये कमीनी सी सियासत टूटे
शर्म इतनी भी नहीं है कि वो शर्मिंदा हो
फिर तो ये ठीक है उस पर कोई वहशत टूटे
खौल उट्ठे हैं नए ख़्वाब मिरी आँखों में
अब ये लाज़िम है मिरी नींद की आदत टूटे
बहुत अच्छे
सियासत आग में घी डालने का काम करती है
नहीं थकते हैं उसके हाथ लाखों घर जलाने से
maujuda halat ki sachbayani karti umda gazal
सियाही रूह के दामन पे जो इक बार लग जाए
वो हरगिज़ मिट नहीं सकता है जिस्मों के नहाने से
न जाने बद्’दुआ किसकी लगी मासूम होंठों को
झुलस जाते हैं अक्सर होंठ हँसने मुस्कुराने से
इन्हें सिर्फ़ युवा आक्रोश कहना मसलहत-भरी नासमझी है.एक-दो जगह कुछ मामूली तकनीकी नाइत्तिफ़ाक़ियाँ हैं लेकिन ग़ज़लें बाअसर हैं.