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सौम्या बैजल की कविताएं

हिंदी के मठाधीश कविता की विविधता को सेंसर करते रहे, उसकी आवाजों को एकायामी बनाने की जिद करते रहे. लेकिन आज अच्छी बात यह है कि हिंदी कविता की हर आवाज सक्रिय है, दबावों से मुक्त है. ऐसी ही एक आवाज सौम्या बैजल की भी है, जो हिंदी कविता की विशाल दुनिया में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्षरत है. उनकी कुछ नई कवितायेँ- मॉडरेटर 
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छूटे शहर
छोटी गलियों के वह छूटे शहर,
असली आवाज़ें, अब बस वहीँ पड़ती हैं कानों में,
टूटी हुई सड़क पर चलते हुए जहाँ तलुए घिस जाते थे
क़दमों की निशाँ शायद वहीँ मिलेंगे अफ़्सानो में।
हर कोई जहाँ मामा-मासी बन जाता था,
रिश्ते बात बात पर बन जाते थे,
चाय की चुस्कियों के साथ जब पुराने क़िस्से सुनते थे,
शायद भूली हुई पहचान फिर मिल जाए ठहाकों में।
जहाँ दिल जितना बड़ा होता था,
उतनी बड़ी बन जाती थी जेबें,
जहाँ दूर तलक तक फैलती थीं,
छौंक लगाने की तरकीबें।
जब तरकारी चखाना तो बहाने होते थे,
एक दूसरे से मिलने को
जब घड़ियाँ देखा करते थे
एक दूसरे की आवाज़ सुनने को।
जब आँखें होती थी किताबों में,
पर कान होते थे कहीं और,
जब चाचा की चप्पल कंकड़ पर पड़ने की आवाज़
लाती थी मुँह में पानी बार बार.
अब कान तरसते हैं,
कुछ अपना सा सुनने को,
बड़ी बड़ी गलियों में,
खो गए प्यार के वह रिश्ते क्यों?
भीड़ में चलते हैं,
पर खबर नहीं कौन चलता है साथ में,
रोज़ चेहरे बदल जाते हैं,
या मिल जाते हैं ख़ाक में।
छोटी छोटी उन गलियों में
हाथ पकड़कर चलते थे हम साथ में
आज अपनी ही दोनों हथेलियों को पकड़कर
देखते दूसरो को डर से।
इन बड़े बड़े शहरों में,
बुत रह गए हैं हम
न कोई नाम है
न कहीं हम।
चलो लौट चलें उन गलियों में
जहाँ कभी गिरे थे हम
हातों के सहारे
कभी उठे थे हम।
यहाँ गिरे तो देखेंगे नहीं,
उठेंगे तो बढेंगे नहीं
झुकेंगे तो चलेंगे नहीं
मिलेंगे तो पहचानेंगे नहीं।
यहां मरें तो मिलेंगे नहीं
बोले तो जियेंगे नहीं
नींद से जागेंगे नहीं
चैन से सोयेंगे नहीं.
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वक़्त वक़्त की बात है
वक़्त वक़्त की बात है,
खामोशियों के दौर चले हैं
जहाँ अब लव्ज़ भी चुप चाप
सन्नाटों में जिया करते हैं.
जब तसवीरें कुछ कहती थी
जब लफ्ज मायने रखते थे
जब एक साथ कुछ करने के
दौर चला करते थे
वक़्त वक़्त की बात है
की जिन्हे सज़ा मिलनी थी
वह आज सज़ा देते हैं
जिन्हे शब्द लिखने थे
वह अब कफ़न ओढ़ा करते हैं
अब मुँह से निकलने वाले हर शब्द को
सामने वाला टटोलता है
समझने के लिए नहीं
जवाब देने के लिए सुनता है
वक़्त वक़्त की बात है
कलम को अब डराते हैं
आवाज़ें अवाम को जगा देंगी
इस डर से उन्हें दबाते हैं
दौड़ते हैं सब एक मंज़िल की ओर
जिसको कभी देखा नहीं
एक जैसे बन जाने के लिए
ख़ुशी से दफ़न करते हैं आपने वजूद कहीं.
वक़्त वक़्त की बात है,
खामोशियों के ही दौर चले हैं
जहाँ अब लफ्ज भी चुपचाप
सन्नाटों में जिया करते हैं.
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ख्वाब और ख्याल
रहने दो कुछ ख्यालों को
दबे हुए पलकों के बीच
कई बार वैसे भी
तकिये के ज़रिए, ख्वाबों में आया करते हैं
सोने दो कहीं
उन भूले हुए ख्वाबों को
क्योंकि जब जाग उठते हैं ख्वाब वही
कुछ भी और देखने नहीं देते आँखों को
कुछ ख्वाब सोना दूभर कर देते हैं
यथार्थ से कोसो दूर ले जाते हैं
दूर से खुद को देखो तो
यथार्थ के सच भी सपने ही नज़र आते हैं
आज फिर नींद चल दी है दूर कहीं
थक गयी है जागती आखों के ख्वाबों से
जब सहारा लेना ही नहीं उसका,
क्यों ले चले वह आपको गुलज़ारों में?
रूठते जाते हैं सब
चले जाते हैं सब
जब तक आँखें मल कर जागेंगे
छोड़ चुके होंगे उम्मीद सब
जब ख्वाब हदें तोड़ दें
जब जूनून सिर्फ शब्द न हो
जब नींद सिर्फ तब खुले
जब ख्वाबों को पूरा करना हो
समझ लो की तभी बस
जीने की सबब मिल गया है
जिसकी तलाश में कई लोगों का
वक़्त से साथ छूट गया है
ज़िद करो, लड़ो, जीतो तुम
ख्वाब को न निराश करो तुम
मौत की दहलीज़ पर पलट कर जब देखो
ज़िन्दगी को मुस्कुराते देखो तुम
जियो उस ख्वाब को,
जिसने तुम्हे चुना है
मिलो अपने आप से
जिसे अपने लिए खुद तुमने चुना है
चुनो उस ख्वाब को
जिसने तुम्हे चुना है
अपनी बनाओ उस ज़िन्दगी को

जिसको तुमने चुना है
 
      

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5 comments

  1. सौम्या जी में काफी संभावनाएं है।शुभकामनाएं।

  2. अच्छी कवितायेँ,आशा है आगे भी मिलेंगी।

  3. अच्छी कवितायेँ,आशा है आगे भी मिलेंगी।

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