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‘आजादी’ के दौर में ‘आजादी मेरा ब्रांड’

‘आजादी मेरा ब्रांड’– कायदे से मुझे इस किताब पर जनवरी में ही लिखना चाहिए था. जनवरी में विश्व पुस्तक मेले में जब इस किताब का विमोचन हुआ था तब मैं उस कार्यक्रम में गया था. संपादक सत्यानंद निरुपम जी ने आदरपूर्वक बुलाया था. कार्यक्रम में इस किताब पर रवीश कुमार और अनामिका जी ने इतना अच्छा बोला था कि अगले दिन उसी के सहारे कुछ लिखकर निपटा देना चाहिए था. किताब पर जल्दी से लिखकर फर्स्ट हो जाता. लेकिन नहीं. पुस्तक मेले के एक हफ्ते बाद जब डबल डेकर ट्रेन से जयपुर जा रहा था तो चार घंटे की यात्रा के दौरान इस किताब को पढना शुरू किया तो जयपुर स्टेशन आते आते किताब ख़त्म हो चुकी थी. अनुराधा बेनीवाल की इस यात्रा-कथा में बह गया. लेकिन लिखा तब भी नहीं.

कई यात्रा वृत्तान्त याद आये- शिवानी की किताब ‘यात्रिक’ की याद आई, याद आए कृष्णनाथ जी के यात्रा वृत्तान्त, वात्स्यायन जी नहीं याद आये. बहुत बनावटी गद्य लिखा है उन्होंने अपने यूरोप यात्रा-वृत्तान्त की किताब में. लिखने का बहुत मन हुआ. लेकिन लिख नहीं पाया. क्या लिखता? यह बड़ा सवाल था. सबसे आसान था यही लिख देता कि इसमें स्त्री-मुक्ति का विमर्श है, स्त्री-विमर्श का एक जीवंत दस्तावेज है, पहली बार किसी स्त्री ने यात्राओं के बहाने इतना खुलकर लिखा है. हा हा हा! आज तक स्त्रियों के लिखे को इसी क्लीशे में तो निपटाया जाता रहा है.

सच बताऊँ, अच्छी तो लगी लेकिन क्या अच्छा लगा यही समझ में नहीं आया. दो लेखिकाओं ने अलग-अलग समय में यह कहा कि उनको यह किताब बहुत अच्छी लगी. मैंने बार-बार लिखने का आग्रह किया लेकिन मुझे तब यह बात समझ में आई कि लेखिकाओं में ईर्ष्या का भाव अधिक होता है. वे सार्वजनिक रूप से किसी लेखिका की तारीफ नहीं कर पातीं. लेखकों में दूसरे लेखकों के लिए अकुंठ भाव होता है. लेखिकाओं के लिए तो और भी अधिक गदगद भाव रहता है. कुछ दिन इसी संकोच में नहीं लिखा कि कोई इसे पढ़कर गदगद भाव न कह दे. एक लेखक को किसी लेखिका पर लिखते हुए बहुत सारी बातों का ध्यान रखना पड़ता है. आप ईमानदारी से किसी लेखिका के लिखे की तारीफ कीजिए, लोग उसकी अंतर्कथा बनाने में लग जाते हैं.

लेकिन अब बिगाड़ के डर से ईमान की बात कहने से खुद को कैसे रोक सकता था. ‘आजादी मेरा ब्रांड’ सच में एक ऐसी किताब है जो सच में अपने ढंग कि पहली किताब है. इसके आसपास जो किताब ठहरती है वह निर्मल वर्मा की किताब ‘चीड़ों पर चांदनी’ है. अब आप कहेंगे कि निर्मल जी तो महान लेखक थे, कहाँ अनुराधा बेनीवाल? यह तो शतरंज की चैम्पियन खिलाड़ी थी, यह तो लन्दन में शतरंज पढ़ाती है. लेखन के कबीले में इसका क्या काम? लेकिन क्या यह बात गलत है कि निर्मल वर्मा आज महान लेखक बने तो ‘चीड़ों पर चाँदनी’ जैसी किताबों के कारण ही.

लेकिन मैंने कहा ऊपर कहा था कि यह हिंदी में अपने ढंग की अनूठी किताब है. ‘चीड़ों पर चांदनी’ की सबसे बड़ी खूबसूरती यह है कि उसमें यूरोप की यात्राओं एक वृत्तान्त भर नहीं हैं, बल्कि वह भौतिक यात्राओं के साथ-साथ मन के उन्मुक्त होते जाने का भी वृत्तान्त है. अकारण नहीं है कि कौतूहलवश ‘आजादी मेरा ब्रांड’ को खोलने के बाद मैंने सबसे पहले इसमें प्राग का वृत्तान्त पढ़ा था. मेरे लिए प्राग का मतलब निर्मल वर्मा है. अनुराधा की किताब पढने के बाद भी वह मेरे लिए निर्मल वर्मा का ही बना रहा. मैं इसमें डब्लिन को ढूंढ रहा था. वह नहीं है. लेकिन अनुराधा के पेरिस, बर्लिन, ब्रुसेल्स, बर्न, बुडापेस्ट में घुमते-घुमते मेरा मन भी मुक्त होता गया.

असल में यही इस किताब की थीम है- नक़्शे के सहारे घूमते-घूमते नक्शों से बाहर निकलने का सफ़र. एक उद्धरण पेज 9 से- ‘मैं पैदा हुई, 12वीं क्लास तक कभी फॉर्मल स्कूल नहीं गई, शतरंज खेली, 15 साल की उम्र में अपने आयु-वर्ग में नेशनल चैम्पियन बनी, कॉलेज गई, अंग्रेजी साहित्य में बीए-एमए किया, लॉ की पढ़ाई की, नौकरी की, पत्रकारिता की पढ़ाई की, फिर नौकरी की, प्रेम-विवाह कर अपना घर बसाया- कहने को एक परफेक्ट लाइफ जी रही थी. और क्या चाहिए होता है एक लड़की को- घर, नौकरी, गाड़ी, फर्नीचर, कामवाली बाई और जीवनसाथी के अलावा? और कुछ नहीं! लेकिन वह क्या था, जिसे ढूंढने की तड़प मेरे दिल में उमड़ रही थी! मैं किस स्वतंत्रता की बात सोच रही थी? क्या थी मेरी निजता? मैं आजाद देश की आजाद नागरिक होकर भी खुद को आजाद महसूस क्यों नहीं कर पा रही थी? अटकाव कहाँ था? बाधा क्या थी? मेरे पास इन सवालों का कोई जवाब नहीं था, लेकिन उन्हें ढूंढने की चाह जरूर थी.’

अब एक दूसरा उद्धरण पेज 147 से, यह बुडापेस्ट के वृत्तान्त के बीच आता है- ‘अब मुझे शहर को केवल देखना भर था. देखना भी नहीं, सिर्फ चलना भर हाँ, मैं शहर में यों ही चलना चाहती थी, जैसे टहलने आई होऊं! नई-नई इमारतों के बीच, नए-नए लोगों के बीच से बस गुजरना चाहती थी. गुजर ही जाना था सिर्फ, और क्या! बिना कोई जान-पहचान बनाए. बिना कुछ लिए-दिए. बिना कुछ सोचे-समझे. बस, कोरी आँखों से देख भर लेना. मुस्कराहट आई तो आई, नहीं तो उसकी कोई भी जरुरत नहीं. अच्छा, यह भी है! –बस जान भर लेना. केवल इतना शायद. अब एकदम बेमकसद हो चली थी. यों तो कोई ख़ास मकसद पहले भी न था. कौन-सा मशहूर म्यूजियम, कौन-सी मशहूर इमारत, कौन-सा मशहूर रेस्तरां- अब मुझे कुछ पता नहीं करना था. न ही उन्हें देखने की लगन थी. चलते-चलते सामने आ गया कुछ तो ठीक, नहीं आया तो ठीक.’

इन दो उद्धरणों से समझ में आ जाता है कि आजादी खोजने निकली हरियाणा की की एक छोरी कैसे मन के उन्मुक्तावस्था में पहुँचती जाती है. यह किताब इसी रूपांतरण का वृत्तान्त है. बरसों बाद मैंने कोई ऐसी किताब पढ़ी जिसने मेरे मन को भी रूपांतरित कर दिया है. यात्रा मन की भी तो होती है.
अब तक मैंने अपना पासपोर्ट भी नहीं बनवाया था. चाहता तो हिंदी पढ़ाने कभी भी जा सकता था. एक बार अमेरिका के वर्जिनिया यूनिवर्सिटी में मनोहर श्याम जोशी ने रॉबर्ट ह्युक्स्देट के साथ एक साल काम करने की फेलोशिप का इंतजाम कर दिया था. भयानक बेरोजगारी के दिन थे. लेकिन पासपोर्ट का बहाना करके एप्लाई ही नहीं किया.

अब आजादी की यात्रा पर निकलने का मन कर रहा है. किताब पढने के बाद पहला मौक़ा आया तो अपना और अपनी बेटी का पासपोर्ट बनवाया है. मुझे अनुराधा बेनीवाल के दिखाए शहरों को महसूस करना है.

लेखन की दुनिया की सबसे बड़ी ब्यूटी होती है कि जिनको स्थापित करने के लिए सत्ता-ताकत एक हो जाते हैं उनकी किताबें धूल में मिल जाती हैं. लेकिन कोई अनजान लेखक धूल का फूल बन जाता है.

मैं सलाम करता हूँ लेखन की दुनिया के इस नए सितारे को और अपना लैपटॉप बंद करता हूँ. 
 
      

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4 comments

  1. आपके कहे से पूरा इत्तफ़ाक़ रखता हूँ सर
    पुस्तक चर्चा में है और लम्बे समय तक हिंदी पाठक के जेहन से जुदा न होगी यह मेरा भरोसा है .
    राजकमल प्रकाशन (सार्थक) और निरुपम जी बधाई के पात्र हैं लीक से हट कर किताबों पर तथा भीड़ में दबे रचनाकारों पर विश्वास दिखाने के लिए

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