प्रकृति करगेती की कहानियों से हम सब परिचित रहे हैं. उनकी कविताओं का भी विशिष्ट स्वर है. भाषा और विचार का जबरदस्त संतुलन साधने वाली इस कवयित्री की कुछ नई कविताएं- मॉडरेटर
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सभ्यता के सिक्के
सभ्यता अपने सिक्के
हर रोज़ तालाब में गिराती है
कुछ सिक्के ऐसे होते,
जिन पर लहलहाती फ़सल की
दो बालियाँ नक्काश होती हैं
या कुछ पर
किसी महानुभाव की तस्वीर
या गए ज़माने का कोई विख्यात शासक ही
ये सभी, और इनके जैसे कई सिक्के
सभ्यता की जेब से
सोच समझकर ही गिराए जाते हैं
वक़्त की मिट्टी परत दर परत
इन पर रोज़ चढ़ती है
इस बीच, न चाहते हुए भी
कुछ सिक्के हाथों से फ़िसल जाते हैं
वो सिक्के, जो काली याद बन आते हैं
पुरातत्व के अफ़सर जिन्हें,
काँच के पीछे सजाते हैं
सिक्के, जो सौदे की दहलीज लाँघ
इंसानों से बड़े हो गए थे कभी
सिक्के, जिनपर दहशत की नक्काशी है
सभ्यता के सिक्के
जो आज मिले,
तो कल की परख करवा गए
और काँच की दीवारों से झाँकते
ये कह गए
“अतीत के तालाब में,
तुम कौन से सिक्के फेंकोगे ?”
स्वप्नलोक की परछाईयां
स्वप्नलोक की परछाईयां
सुन्दर होती हैं
जागने पर,
मैं जो हूँ,
उसकी परछाई
ज़मीन पर पड़ती है
वो जो,
मेरे होने के किनारों का अंधेरा है
पर स्वप्नलोक में
मेरी परछाइयों से,
एक “मैं” और बनता है
वो “मैं” जो
परछाइयों के तलवों के
उपर खड़ा होता है
वो, जो सभी अंधेरों का कारण है
उसे स्वप्नलोक की परछाईयां
माया कह देती हैं
स्वप्नलोक की परछाईयां
अपने गुमान में रहती हैं
उन्हें किसी
“मैं” के अँधेरे की ज़रूरत नहीं
गरम तवा
कुछ जला नहीं था अन्दर
बस धुवां सा उठा था
जैसे कोई गरम तवा
गरम तवा ,
जिसपर कुछ सेका गया
बिन चिमटे के,
आग भी छुई उँगलियों ने
जब सब कुछ सिक गया
सब कुछ पक गया
गरम तवे को
पानी की बौछार के नीचे रख दिया
जिससे उठा फ़िर,
ढेर सारा धुवां
जैसे ग़ुबार
जिसे ख़त्म हो जाना था
क्यूंकि
कुछ जला नहीं था अन्दर
बस धुवां सा उठा था
जैसे कोई गरम तवा
नंबर लाइन
मैं होने,
और न होने की छटपटाहट में
खुश हूँ
न होना मुश्किल है
और होना एक संभावना
होने में जो सब होगा,
उतना ही नहीं होने में नहीं होगा
पर इस होने और न होने के बीच
एक शून्य है मेरे पास
उसी के आगे होना है,
और उसी पीछे न होना
जो भी हो या न हों
मैं इस होने और न होने की
छटपटाहट में खुश हूँ
very mature writing. lucid but deep. i admire the flow!