‘उड़ता पंजाब’ फिल्म को लेकर लोगों ने ऐसे लिखा जैसे सोशल एक्टिविज्म कर रहे हों. फिल्म का ठीक से विश्लेषण बहुत कम लोगों ने किया. युवा लेखिका अणुशक्ति सिंह ने एक बहुत चुटीली समीक्षा लिखी है इस फिल्म की. पढ़िए- मॉडरेटर
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पाकिस्तान से गोले उड़े कि हिंदुस्तान मे गर्द उडी… गोले कौन से? बम के नहीं… हेरोइन के। जिसको फिल्म की अनाम लड़की हेरोइनी कहती है। भई, पूरी की पूरी फिल्म बना डाली… टॉमी को इंसान बना दिया। इंसान को टॉमी बना दिया। पंजाब बना दिया। बिहार बना दिया… गर्दा उड़ा दिया। सेंसर की नाक उड़ा दी। पब्लिक के होश उड़ा दिये। इधर से टेक्निक उड़ाई। उधर से कहानी का दम।
टॉमी सिंह गाता है। क्या? ड्रग और हाई पिच म्यूजिक का कॉकटेल। समझ मे नहीं आता है लेकिन अच्छा लगता है। फिल्म आगे बढ़ती है। फुस्स होता टॉमी सिंह दिखता है। पंजाब पुलिस का घूसखोर ऑफिसर भी। चाँद छाप वाली दवाई की शीशी दिखती है। उसको अपने बॉडी मे घुसेडता बल्ली दिखता है। ड्रग की डील क्रैक करने की कोशिश करती एक लड़की और समाज सुधार की हेरोइनी डॉक्टर दिखती है। सब दिखता है लेकिन ऊंची दुकान मे फीके पकवान की तरह…
हल्ला उड़ा था कि उड़ता पंजाब सच का पताका उड़ाएगा। देख कर पता चला कि उड़ते-उड़ते इस फिल्म की जान भी उड़ गयी। कल एक दोस्त की टिप्पणी मिली थी, फिल्म एमोरेस पेरोस होते-होते रह गयी है। अरे मतलब, कहानी मे नहीं, तकनीक के लिहाज़ से। कहानी से कहानी जोड़ने वाली तकनीक उड़ा कर लाये अभिषेक चौबे, उड़ता पंजाब बनाने के लिए। वही अभिषेक चौबे, जिनहोने इश्किया बनाई थी। याद है आपको? अरे वही, जिसमे दिल तो बच्चा है जी वाला गाना था। फिल्म अच्छी थी। हाथ पाँव थोड़े छितरे थे। वो तो विशाल भारद्वाज सर की गाइडेंस थी कि फिल्म का ढांचा ठीक लगा। जो ढांचा विशाल सर ने संभाल कर रखा था, वो पंजाब को उड़ाते-उड़ाते एकदम छितर गया। एक फिल्म जो शानदार हो सकती थी, औसत के आस-पास कहीं रुक गयी। पूत के जो पाँव पालने मे बड़े सुहावने लगे थे, आधा घंटा बीतते ही किसी अच्छे बेटे के ड्रग एडिक्ट बन जाने वाले कदम से लगने लगे।
इतनी सारी कहानिया थी। उस एडिक्ट सिंगर की, जो शाहिद कपूर की शक्ल मे शानदार लग रहा था। डॉक्टर और इंस्पेक्टर की, बल्ली की और बिना नाम वाली लड़की की लेकिन कहीं कुछ रह जाता है, जिसे ढूँढने की कोशिश पूरी फिल्म मे जारी रहती है।
पाइरेट्स ऑफ कैरेबियन की देसी कॉपी दिख रहा हमारा लीड एक्टर इनसेनली सेन हो जाता है। अचानक से सुधर जाता है। बाबा बन जाता है। एक्टिंग धाँसू है लेकिन फिर वही, फिल्म बनाने वाले बाबा को समझ मे ही नहीं आया कि इतनी सॉलिड एक्टिंग उड़ाए बिना किनारे तक कैसे पहुंचाया जाये। बिना नाम वाली पगलिया का रोल क्या था? मतलब, कैसे क्यों और कहाँ… अच्छा ठीक है, मान लिया जाता है कि फिल्म मे ड्रग की तीन कहानी चल रही थी, इसलिए उसकी भी एक कहानी थी। लड़की ने बढ़िया खेला है। या फिर, खेलते – खेलते बार्डर से ऐन पहले उसका दम निकल जाता है। मुंह खोलने के साथ ही बिहार कम, बिहार की पाइरेटेड कॉपी ज़्यादा लगती है। अभिषेक जी,एक सलाह है, ई डाइलॉग फिक्स करने से पहले एक बार ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ फिर से काहे नहीं देख लिए। थोड़ा टिरेनिंग मिल जाता, ठीक से हमरी जबान बोलने का… दो पगला-पगलिया के बीच तीसरी कहानी है पंजाब दा पुत्तर सरताज (दिलजीत), बल्ली और डॉ प्रीति ( करीना) की। लगा यहाँ फिल्म मुद्दे पर आएगी। पंजाब का ड्रग वाला कारोबार दिखेगा, जिसको निहलानी साहब छिपाना चाहते थे। ले… कहीं कुछ नहीं दिखा, बस भटकी हुई कहानियाँ और गालियां। इसमे क्या नया है। जो दिल्ली मे बसा उसने गाली न सुनी हो तो यमुना मे नाक गाड़ ले। कुल मिला जुला कर पूरा किस्सा ये समझ मे आया कि अनुराग सर कप्तानी मे धोनी के भी बाप हैं। ऐसा घेर कर खेला कि उफ… लगा अब पंजाब उड़ेगा तो बस पकड़ मे ही न आएगा, लेकिन ये तो ईकारोस निकला। अनुराग सर ने खप्पच्ची मे मोम भरकर पंख तो बना दिया लेकिन पुत्तर को समझाना भूल गए कि हौले से जाना, नहीं तो औंधे गिरोगे। उड़ता पंजाब वही है, खूब तेज़ी से उड़ान भरती है और उतने ही झटके से ज़मीन पर गिरती है। एकदम शमशेर के शॉटपुट की तरह, निशाने से भटकी हुई।
(नोट – रिव्यू की आखिरी पंक्ति के लिए फिल्म के पहले दृश्य तक जाएँ … 😉 )
ओ तेरी! असली समीक्षा तो यहाँ मिला। जबरदस्त लिखे हो। जारी रखो।
Badhiya likha hai.Filam ka samikcha naap taul ke kiya hai.Dandi nai mara.
Likhte rahiye.