Home / कविताएं / विवेक निराला की कविताएं

विवेक निराला की कविताएं

कल विवेक निराला का जन्मदिन था. विवेक की कविताओं की चर्चा नहीं होती है. उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि की चर्चा बहुत होती है. उनके नाम के साथ ऐसे कवि का नाम जुड़ा है जिनकी कभी हमने पूजा की  है. लेकिन विवेक की कविताओं की  रेंज बहुत बहुत है, उनकी संवेदना बहुत गहरी है. उनको जन्मदिन की शुभकामनाओं के साथ विवेक की कुछ पसंदीदा कविताएं- प्रभात रंजन
==================================== 
बाबा और तानपूरा
****************
(निराला जी के पुत्र रामकृष्ण त्रिपाठी के लिए)
हमारे घर के एक कोने में
खड़ा रहता था बाबा का तानपूरा
एक कोने में
बाबा पड़े रहते थे।
तानपूरा जैसे बाबा
बाबा पूरे तानपूरा।
बुढ़ाते गए बाबा
बूढा होता गया तानपूरा
झूलती गयी बाबा की खाल
ढीले पड़ते गए तानपूरे के तार।
तानपूरे वाले बाबा
बाबा वाला तानपूरा
असाध्य नहीं था
इनमें से कोई भी
हमारी पीढ़ी में ही
कोई साधक नहीं हुआ।
नागरिकता
*********
(मक़बूल फ़िदा हुसैन के लिए)
दीवार पर एक आकृति जैसी थी
उसमें कुछ रँग जैसे थे
कुछ रँग उसमें नहीं थे।
उसमें कुछ था और
कुछ नहीं था
बिल्कुल उसके सर्जक की तरह।
उस पर जो तितली बैठी थी
वह भी कुछ अधूरी-सी थी।
तितली का कोई रंग न था वहाँ
वह भी दीवार जैसी थी
और दीवार अपनी ज़गह पर नहीं थी।
इस तरह एक कलाकृति
अपने चित्रकार के साथ अपने होने
और न होने के मध्य
अपने लिए एक देश ढूंढ़ रही थी।
सांगीतिक
********
एक लम्बे आलाप में
कुछ ही स्वर थे
कुछ ही स्वर विलाप में भी थे
कुछ जन में
कुछ गवैये के मन में।
गायन एकल था
मगर रूदन सामूहिक था
आँखों की अपनी जुगलबंदी थी
खयाल कुछ द्रुत था कुछ विलंबित।
एक विचार था और वह
अपने निरर्थक होते जाने को ध्रुपद शैली में विस्तारित कर रहा था।
पूरी हवा में एक
अनसुना-सा तराना अपने पीछे
एक मुकम्मल अफ़साना छिपाए हुए था।
इस आलाप और विलाप के
बीचोबीच एक प्रलाप था।
मैं और तुम
*********
मैं जो एक
टूटा हुआ तारा
मैं जो एक
बुझा हुआ दीप।
तुम्हारे सीने पर
रखा एक भारी पत्थर
तुम्हारी आत्मा के सलिल में
जमी हुयी काई।
मैं जो तुम्हारा
खण्डित वैभव
तुम्हारा भग्न ऐश्वर्य।
तुम जो मुझसे निस्संग
मेरी आख़िरी हार हो
तुम जो
मेरा नष्ट हो चुका संसार हो।
हत्या
*****
एक नायक की हत्या थी यह
जो खुद भी हत्यारा था।
हत्यारे ही नायक थे इस वक़्त
और नायकों के साथ
लोगों की गहरी सहानुभूति थी।
हत्यारों की अंतर्कलह थी
हत्याओं का अन्तहीन सिलसिला
हर हत्यारे की हत्या के बाद
थोड़ी ख़ामोशी
थोड़ी अकुलाहट
थोड़ी अशान्ति
और अन्त में जी उठता था
एक दूसरा हत्यारा
मारे जाने के लिए।
==========
उस स्त्री के भीतर की स्त्री
*********************
उस स्त्री के भीतर
एक घना जंगल था
जिसे काटा
उजाड़ा जाना था।
उस स्त्री के भीतर
एक समूचा पर्वत था
जिसे समतल
कर दिया जाना था।
उस स्त्री के भीतर
एक नदी थी
बाढ़ की अनन्त
संभावनाओं वाली
जिसे बाँध दिया जाना था।
उस स्त्री के भीतर
एक दूसरी देह थी
जिसे यातना देते हुए
क्षत-विक्षत किया जाना था।
किन्तु, उस स्त्री के भीतर
एक और स्त्री थी
जिसका
कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता था।
============

भाषा
******
मेरी पीठ पर टिकी
एक नन्हीं सी लड़की
मेरी गर्दन में
अपने हाथ डाले हुए
जितना सीख कर आती है
उतना मुझे सिखाती है।
उतने में ही अपना
सब कुछ कह जाती है।
पासवर्ड
*********
मेरे पिता के पिता के पिता के पास
कोई संपत्ति नहीं थी।
मेरे पिता के पिता को अपने पिता का
वारिस अपने को सिद्ध करने के लिए भी
मुक़द्दमा लड़ना पड़ा था।
मेरे पिता के पिता के पास
एक हारमोनियम था
जिसके स्वर उसकी निजी संपत्ति थे।
मेरे पिता के पास उनकी निजी नौकरी थी
उस नौकरी के निजी सुख-दुःख थे।
मेरी भी निजता अनन्त
अपने निर्णयों के साथ।
इस पूरी निजी परम्परा में मैंने
सामाजिकता का एक लम्बा पासवर्ड डाल रखा है।
कहानियाँ
*********
इन कहानियों में
घटनाएं हैं, चरित्र हैं
और कुछ चित्र हैं।
संवाद कुछ विचित्र हैं
लेखक परस्पर मित्र हैं।
कोई नायक नहीं
कोई इस लायक नहीं।
इन कहानियों में
नालायक देश-काल है
सचमुच, बुरा हाल है।
=========== 


युग्म
*****
एक समय में रहे होंगे
कम से कम-दो
जितने कि आवश्यक हैं सृष्टि के लिए।
दो आवाज़ें भी
रही होंगी कम से कम
एक सन्नाटे की
एक अँधेरे की।
अँधेरा भी दो तरह का
रहा होगा अवश्य
एक भीतर का
दूसरा बाहर का।
जल-थल
सर्दी-गर्मी
दिन-रात
युग्म में ही रहा होगा जीवन
सुख-दुःख से भरा हुआ।
ऋतु चक्र
********
स्वर के झरनों से जैसे
स्वर झर-झर
झर रहे हैं
और पतझर में पत्ते।
बीन-बटोर कर इकठ्ठा
किए मेरे सुख
उड़े जा रहे हैं।
ऋतुचक्र से यह
वसंतागम का समय है
और दुःख की धार में
मैंने अपनी डोंगी
धीरे से छोड़ दी है।
हम ही थे
********
हमारे लिए कुछ भी
न शुभ था, न लाभ।
किसी अपशकुन की तरह
दिक्शूल हम ही थे।
हमारे लिए
न अन्न था
न शब्द
वस्त्रहीन
भयग्रस्त भी हम ही थे।
हमारे पास
न कला थी, न विचार
न सभ्यता, न संस्कृति
न घृणा, न क्रूरता
न उम्मीद, न विश्वास
न एक टुकड़ा ज़मीन
न खाली आकाश।
जैसे हम हैं
वैसे हम ही थे।
 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

गिरिराज किराडू की लगभग कविताएँ

आज विश्व कविता दिवस पर पढ़िए मेरी पीढ़ी के सबसे प्रयोगशील और मौलिक कवि गिरिराज …

10 comments

  1. विवेक निराला जी को जन्मदिन की ढेरों शुभकामनायें ……..कवितायें छोटी लेकिन गहन अर्थ संजोये ………बधाई

  2. बधाई विवेक भाई

  3. हत्यारे ही नायक थे इस वक़्त/और नायकों के साथ/लोगों की गहरी सहानुभूति थी.. विवेक निराला की कविताएं हमारे समय की कविता के एकजैसेपन से अपने को बेशक अलग करती है लेकिन इसके लिए वह किसी आवेग में आकर उपस्थित परिदृश्‍य को अनदेखा कर देने का उतावलापन नहीं दिखाती। जो है, जैसा है उसे नजरंदाज कैसे किया जा सकता है। यह कवि का विरल विवेक है जिसे उपलब्धि के रूप में ग्रहण किया जाना चाहिए। 'कहानियां' में जब वह कहते हैं : इन कहानियों में/नालायक देश-काल है/सचमुच, बुरा हाल है।.. तो पहले सपाटबयानी का अहसास कौंधता है लेकिन दूसरे ही पल दरपेश हकीकत पर कवि की टिप्‍पणी 'नालायक देश-काल' इस आश्‍वस्ति से भी भर देती है कि कविता में प्रतिकार की नई धार नए आकार ग्रहण कर रही है। उम्‍मीद जाग रही है कि कवि का यह अंदाज कुछ अंजाम पैदा कर सकेगा।.. उनकी कविताओं पर बात होनी चाहिए। मित्रवर को जन्‍मदिन की अशेष शुभकामनाएं..

  4. vivek ji ko janm diwas ki haardik shubhkamnaaye .. umda kavitaye ..inhe ham pathako tak pahuchane ke liye haardik aabhar 🙂

  5. विवेक निराला जी को जन्म दिन की अशेष शुभकामनाये |कविताये बहुत अच्छी है ,विशेषकर स्त्री के भीतर स्त्री ,पासवर्ड…..प्रेम का कोई प्रतिक नहीं था ,बहुत गहराई में ले जाती है यह पंक्ति |

  6. साँझा करने के लिए हार्दिक आभार

  7. विवेक निराला जी से परिचय के साथ उनके जन्मदिन पर उनकी पसंदीदा कवितायेँ प्रस्तुति हेतु आभार!
    निराला जी को जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *