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उपासना झा की कहानी ‘ईद मुबारक’

आज ईद का मुबारक त्यौहार है. सेवैयाँ खाने के इस त्यौहार को मीठी ईद भी कहते हैं. यही दुआ है कि समाज में मीठापन आये, कडवाहट घुल जाए. आज जानकी पुल पर पढ़िए युवा लेखिका उपासना झा की कहानी ‘ईद मुबारक’. सबको ईद मुबारक- मॉडरेटर 
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ईद मुबारक
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शाम होने को थी, सबीन के हाथ तेज़ी से चल रहे थे। कपड़ो की तहें लगाती बार-बार घड़ी की तरफ भी देख रही थी। रात के खाने की तैयारी हो चुकी थी, और कल ईद की दावत की भी। बस बाज़ार से कुछ मिठाइयाँ और गिफ्ट्स लाने बाकी थे। उसने सोच रखा था कि इस बार सभी छोटे-बड़ो को तोहफे देगी, उसकी जॉब लगी थी इसी साल, लेकिन उसके अच्छे काम की वजह से उसका प्रमोशन हो गया था। अपने घर के लोगों की मेहनत और छोटे-छोटे त्याग उसके ध्यान में थे। अम्मी के लिए सूट और एक नया चश्मा, छोटी बहन के लिए एक लेटेस्ट फोन, जो वो बहुत दिनों से मांग रही थी। और प्यारे अब्बा के लिए उनकी पसंद की किताबों की सेट, जो महँगी होने की वजह से वो कम ही खरीद पाते थे। इसके अलावा उसने दोस्तों और रिश्ते के भाई-बहनों के लिए कुछ न कुछ जरूर लिया था। इस ईद के लिए उसने बहुत पैसे बचाये थे, न ऑफिस वालों के साथ मूवी जाती न लंच या डिनर पर। कुछ लोग मज़ाक में कंजूस भी कहते लेकिन वो हँस के टाल देती।

सब हिसाब लगाकर उसके पास फिर भी इतने पैसे बच रहे थे कि खुद के लिए नयी स्कूटी ले सके, ऑफिस दूर था और बस से आने जाने में बहुत दिक्कत होती थी। वो और छोटी बहन आयशा बाज़ार की तरफ चले आये। यहाँ की रौनकें देखकर उसका जी खुश हो गया। चारो तरफ रंग-बिरंगी चूड़िया और दुप्पट्टे।  दोनों बहनों ने मेहंदी लगवाई और अम्मी के लिए मेहंदी का कोन ले लिया। वो यूँ भी सिम्पल डिजायन पसंद करती थी।
सबके लिए गिफ्ट्स लेकर घर का रुख किया।
मुहल्ले में बाकी घर तो ख़ुशी से चमक रहे थे बस एक घर में उदासी का अँधेरा पसरा था। सबीन ने आयशा की तरफ देखा तो उसने कुछ जवाब न दिया। उसको वैसे तो पूरे मोहल्ले की खबर रहती थी फिर ऐसी क्या बात थी जो वो बता नहीं रही है।
घर आकर अगले दिन की तैयारियाँ करते करते बहुत देर हो गयी। आयशा तो अम्मी को मेहंदी लगाने का बहाना कर जो बैठी तो सब काम खत्म होने के बाद ही किचन में आयी। सबीन ने मुस्कुराकर छोटी बहन की तरफ देखा जिसने दो साल उसको कोई काम नहीं करने दिया था, जब वो परीक्षा की तैयारी कर रही थी। सबीन को अचानक वो घर ध्यान में आ गया, जहाँ उसने अँधेरा देखा था।
-“छोटी, बता न.. देख आखिरी बार पूछ रही हूँ
-“सबीन बाज़ी, आपको क्या करना है जानकर? छोड़िये न इस बात को
-“छोटी, बताती है कि अब्बू  से पूछ लूँ!
आयशा ने अब्बू के नाम की धमकी सुनते ही कहा
-“आप तो उनकी प्यारी बेटी हो, आपको जरूर बता देंगे लेकिन इतनी रात में उनको परेशान मत करिये। चलिये मैं ही बता देती हूँ।
-“आपको जीशान याद है?
सबीन अपनी पढाई में इतनी मशगूल रही थी कि उसे आस-पड़ोस की कुछ ख़बर ही नहीं रही थी। और उसने भी सब भूलकर बहुत मेहनत की थी और आज सरकारी मुलाजिम थी। मुस्लिम समुदाय से होने के बावजूद उसके अम्मी-अब्बू रौशन ख़्याल थे और तालीम को बेहद जरुरी मानते थे। अपनी प्राइवेट नौकरी की खींचतान और कम सैलरी में भी कभी उनदोनो ने अपनी बच्चियों को अच्छे स्कूल और कॉलेज में पढ़ाया था।
सबीन ने बहुत दिमाग पर जोर डाला तो एक धुंधला सा नक्श उभरा।
-“हाँ, वही न जो कॉलेज की फ़ुटबाल टीम का कैप्टेन था। अच्छा खेलता था। उसे क्या हुआ?
-“बाज़ी! वो 7-8 साल पहले की बात है। आयशा ने हैरत से बहन को देखते हुए कहा।
-“उसके बाद तो तू जानती ही है, पढ़ाई में ही रम गयी थी।
-“बाज़ी, जीशान भी जॉब करने बाहर चला गया था, वहाँ उसकी दोस्ती कुछ गलत लड़को से हो गयी थी। जबतक जीशान को कुछ समझ आया, तबतक बहुत देर हो चुकी थी। उसकी मौत एक बम धमाके में हो गयी अपने साथियों के साथ। उसके पास से बहुत हथियार वगैरह मिले। बार-बार पुलिस यहाँ आती थी। उनके सवालों से और लोगों की चुभती नज़रों से डरकर उसके अब्बा ने ख़ुदकुशी कर ली। अब उसकी अम्मी और बेवा एक बच्चे के साथ उसी घर में रहते हैं। रिश्तेदार भी कन्नी काटने लगे उनसे।
-“उनका घर कैसे चलता है अब? कोई कमाने वाला तो रहा नहीं?
-“पता नहीं ये सब तो। अब बहुत रात हुई सो जाते हैं, कल बहुत काम भी हैं।
सबीन कुछ सोचती सी रही और सो गयी। सुबह उठकर नमाज़ के बाद उसने अम्मी अब्बा को मुबारकबाद दी। उसने एक टोकरी में फल और मिठाइयाँ रखी और पहुँच गयी जीशान के घर। उसके दिमाग में कई सवाल घुमड़ रहे थे। बहुत दरवाज़ा खटखटाने पर किसी के आने की आहट हुई। दरवाज़ा खुलते ही जो शक्ल उसे दिखी उसने सब सोचे समझे जुमले हवा में उड़ा दिए। उस चेहरे पर भूख और लाचारी लिखी थी। अंदर आने का इशारा करती वह परे हो गयी।
एक बूढ़ी औरत भी एक बच्चे को लिए बैठी थी। बच्चा रो रोकर थक गया था और चुपचाप बैठा था। सबीन के मुंह से काफी देर तक कुछ न निकला। वो हड्डी का ढाँचा दिखती औरत निम्बू वाली चाय ले आयी थी। इस बीच जीशान की अम्मी से उसने दुआ सलाम कर ली थी। बच्चे के रोने की आवाज़ फिर आयी, बच्चा उसके हाथ की टोकरी को ललचायी नजरों से देख रहा था। सबीन को शर्मिंदगी का अहसास हुआ। उसने झट वो टोकरी बढ़ा दी।
-“ये क्यों रो रहा है?
-” बाहर जायेगा, दोस्तों के संग।
-“तो जाने दीजिए न!
-“नहीं बीवी, बच्चा है न, दूसरे बच्चों के खिलौने और  नए कपड़े देखकर तरसेगा।
अचानक सबीन पूछ बैठी।
-“घर कैसे चलता है?
-“क्या बताऊँ! बहुत मुश्किल से। जीशान खुद तो मर गया, हम रोज़ मरते हैं। उसके अब्बू शर्म से म गए, हमको भूख और गरीबी मारती है। बर्तन धोती है उसकी बीवी लेकिन वो भी इधर बीमार हो गयी है।
-“सिलना आता है?
-“हाँ बीवीजी।
“-मैं तुम्हें एक नयी मशीन खरीद देती हूँ। तुम सिलाई करो, बच्चे को पढ़ाओ भी।
तीन जोड़ी आँखे उसे लगातार घूर रही थी।प्यार, अविश्वास, स्नेह और कौतुहल से।
सबीन घर आई। अपने एटीएम से पैसे निकालकर कल ही रख चुकी थी। अम्मी अब्बू को अपनी मंशा बतायी। बाजार खुलते ही सबीन अब्बा के साथ जाकर नयी मशीन, कपड़े और राशन का सामान ले आयी और पहंच गयी फिर से वहीँ।
अम्मा अब्बू  की नजरों में प्यार था। और उन दोनों औरतों की
नजर में प्यार और कृतज्ञता। यही उसकी ईद थी। खास और खूबसूरत!

 
      

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11 comments

  1. मार्मिक और अनुकरणीय कहानी। लेखिका को बधाई।

  2. बहुत सुन्दर सार्थक और वास्तविक कहानी .

  3. सुंदरम। असली ईद यही हुई…

  4. Shukriya monu

  5. शुक्रिया गीता जी

  6. Kya baat bahut sundar !!!

  7. सही मायने में ईद मनाई| ईद मुबारक

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