कुछ दिन पहले हम ने श्री श्री की कविताएं पढ़ी थीं. आज उन्होंने प्रसिद्ध कोरियन फिल्म निर्देशक किम की डुक की पांच फिल्मों का सूक्ष्म विश्लेषण किया है. पढियेगा- मॉडरेटर
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सिनेमाई सौंदर्य को कठोर धरातल पर एक महीन दार्शनिक विद्वता के साथ समानांतर ले चलते हुए उस बोध पर ले आने का कायांतरण किम की डुक की सृजनात्मक दृष्टि का मूल विस्तारण है। दक्षिण कोरियाई फ़िल्म निर्देशक किम की-डुक की सिनेमाई शैली अपने आप में मार्मिकता के साथ जीवन की विशालकाय अंतर्मुखी संवेदना और भटकते हुए मानव की सापेक्ष वेदना है। यह भटकाव चेतना के स्तर पर भी है और मानसिक स्तर पर भी। मनुष्य एक रूप में कितना तत्व-बोध से भावांजित है और कितना सहृदय है ,अपने भावों को व्यक्त करने में यह सिनेमा स्क्रीन पर चित्रित करना किम की डुक की एक अनोखी, परिपूर्ण और किंचित अर्जित तथा व्यापक, धार्मिक और अस्तित्व स्वीकार्य क्षति की परिणति है। जहाँ हम तर्क तलाशते हैं लेकिन हमारे हाथ आता है स्वयं को मुक्त करता पूर्ण और तकलीफदेय यथार्थ। किम अपने सिनेमा में बौद्धिक चेतना को बुद्ध के स्तर तक ले जाते हुए जैसे जीवन और ईश्वर का तिरस्कार करने की उपासना को खंडित कर देते हैं। स्वयं को खंड-खंड करते हुए भी वो अपने किरदारों को किसी अविश्वसनीय तरीके से जाने कैसे बचा लेते हैं कि अंत में केवल और केवल करुणा का भाव आँखों में तैरने लगता है और दृश्य देखने वाले को अपने में समाहित कर लेता है।
इस पंचतत्वीय गाथा में किम की-डुक की पांच सिनेमाई कृतियों को एक अधीर आधार पर सौन्दर्यबोधि विश्लेषण में मिले-जुले भूदृश्य, रंग और आवाज़ को अपनी कल्पना और भावभीनी आत्मपरक ठंडी हवा का झौंका दे रही हूँ। इन कृतियों को मैंने जो आधार दिए हैं उनकी विषयवस्तु पर रैंडमली और क्षणिक आवेग में इन्हें अपने कैनवेस पर उतार रही हूँ।
ये आधार हैं –
किम का अपना जीवन जिसे मैंने देखा नहीं पर एक पछुआ हवा की तरह महसूस कर सकती हूँ और जिसके लिए बेशक मेरे पास शब्द नहीं पर महसूसना भी तो कम बात नहीं।
जिस अवश्यम्भावी प्रायश्चित को किम अपने सिनेमा में दिखाते हैं वह कोमल, कठोर और जड़ मगर उच्च भाव की भूमि वे कहाँ से पाते हैं? एक साथ कोमल भी और कठोर भी, जड़ भी उच्च भी यही विरोधाभास किम को एक अनुशासित और उदास वैभव से युक्त कलाकार बनाता है।
किम की फिल्मों में ख़ामोशी एक शब्दहीन कविता की तरह हर जगह है। अमूर्त आनंद की तरह जो आत्मा में प्रवेश करने का रास्ता बिना किसी सिद्धांत के,बिना किसी उत्तेजना के बना लेती है। यानी किम अपने किरदारों को एक अनोखी भाषा से भर देते हैं। यह ध्यान की उच्च अवस्था को परिलक्षित करता है।
किम का सिनेमा अपने गरिमामय संगीत का एक अविरल झरना है जिसके पास लय, गति और शांतिपूर्ण वेदना है। उनकी फिल्मों का संगीत पाश की कविता ‘ मैं अब विदा लेता हूँ ‘,आंद्रेई तारकोवस्की के अनोखे स्वप्नों की कृति ‘द मिरर‘ और बुद्ध की देशनाओं का परस्पर सम्मिलित सम्मिश्रण सा प्रतीत होता है। जिसे सुनते हुए या तो आँखे बहेंगी या अपने भीतर झुक जाएंगी।
जहाँ पश्चाताप एक अवश्यम्भावी तत्व है, किम के सिनेमा में वहीं पीड़ा का ऐसा दिल दहला देने वाला, आत्मा की सारी शक्ति को जीर्ण-शीर्ण कर देने वाला रुदन है जो कोई आश्वासन नहीं देता उन दृश्यों को देखने वालों को। यह जीवन के निरर्थक-बोध पर तेज़ और तीखी रोशनी से प्रहार करता है। यह रुदन तब तक आत्मा की तोड़-फोड़ करता है जब तक एक करूण पुकार प्रायश्चित के रूप में बाहर नहीं आ जाती।
Pietà (2012)
किम जैसे कला की किरण पर जीवन की आकस्मिक मुस्कुराहट देख चुके। जैसे टूटे तारों में बिखरी और अर्थहीन उत्कृष्टा का पूर्वानुमान लगा चुके। यहाँ सबसे पहले ज़िक्र करना चाहूंगी Pietà का। एक व्यथित संहारक, पैशाचिक रूह का अति निकटतम चेहरा जिसे वस्तु और लोग अलग-अलग मंतव्यों से केवल भोग की चीज़ लगती हैं।जिसके भीतर एक भुतहा अकेलापन है जो निरंतर अग्नि की तरह जल रहा है। यह पैशाचिक हैवानियत क़र्ज़ लिए लोगों को या तो अपाहिज बना देता है या अंतिम विकल्प के तौर पर मृत्यु को अपनाने को मजबूर करता है। पर दृश्य में जो नहीं दिखाई देता किम उस पर लगातार नज़र रखे हैं। इसके लिए किम उसके जीवन में एक आवरण ओढ़े प्रेम को भेजते हैं,उसकी माँ के रूप में। अब जो इंसान बेहताशा नफरत से भरा है, चाकू की तेज़ धार से इंसान और जानवर को एक समान मौत के अंजाम पर पंहुचा सकता है वही इंसान इस माँ नाम के प्रेम से द्रवित होने लगता है। लेकिन यह केवल किम की अदा है अपने किरदार को एक जाल में फसाने की। उसे उस समतल भूमि पर लाने की जहाँ से वो खुद चोटिल हो।जहाँ से वह जीवन की योजनाओं को टूटते हुए महसूस करे। जहाँ से अपनी आत्मा में थकान महसूस करे। और अंतिम परिणति के रूप में अपने होने को धिक्कारते हुए खुद को कड़ी से कड़ी सजा दे। Pietà का अंतिम दृश्य कभी न भूलने वाला है । आत्मा के कोष को चिथड़े-चिथड़े कर देने वाला अति मार्मिक पर स्थूल नही बल्कि वह सूक्ष्म दृश्य है जिसकी तुलना केवल सूखे रेगिस्तानी आकाश तले लेटी किसी कब्र की बेचैनी से की जा सकती है।
Spring, Summer, Fall, Winter… and Spring (2003)
किम की एक्सट्रीम आत्म-साक्षात्कार करती हुई कृतित्व को मैं नाम दूंगी उनकी बहुत ही सधी हुई आत्मवार्तालाप करती हुई पहेली नुमा भूल-भुलैया सी फ़िल्म ‘Spring Summer Fall Winter and Spring’ का .
किम की सिनेमैटिक दुनिया अतीत,वर्तमान और भविष्य के बीच से गुज़रती एक लकीर है जिसमें हम हो तो सकते हैं लेकिन उस लकीर पर बैलेन्स कैसे बनाना है उसका रास्ता चुनते हुए, यह आसन नहीं । किम आपकी आँखों में आँखें डालकर आपको चोट पहुँचाते हैं, मनुष्यता की इच्छित ग़लतियों और छुपी गहरी बातों को बाहर आने देते हैं। उनसे क्षमा का रास्ता भी बताते हैं और आपको अपने जीवन और फ़ैसलों के साथ एक आस्थानुमा तिनका भी पकड़ा जाते हैं।
ज़िंदगी को देखने की सारी क़वायद हमारे भीतर इस तरह होती है कि हम परित्याग, देवदूतों की स्तुतियाँ और विश्वास जो किम के ज़ोन में कड़े अनुशासन में दिखाई देता है, को एक पश्चाताप के रूप में ग्रहण करने लायक हो जाते हैं। आप रोना चाहेंगे तो किम यही चाहते है क्यूँकि किम की डुक का सिनेमा इसी मोटिव को लेकर चलता है।
इस फ़िल्म में एक दृश्य है जहाँ एक बच्चा अनजाने में जीवों को कष्ट पहुँचाता है लेकिन फिर उसे आत्मदोहन की कड़ी प्रक्रिया से भी गुज़रना पड़ता है।किम इस ख़ूबसूरत फ़िल्म में मनुष्यता का एक वृहद विश्लेषण करते हैं क्यूँकि इस चीर-फाड़ में वे इंसानो को पाप और पुण्य के मध्य उलझा हुआ देख पाते हैं।
Moebius ( 2013 )
किम की-डुक के ज़ोन में जाना हो तो पहले तैयार होना होगा सारे नियमों से ऊपर होकर।
हम यह नही सोच सकते कि किम कोई असाधारण बात कह जाने वाले हैं फ़िल्म में बल्कि Moebius रूह को हिला कर रख देगी। यह इस हद दर्जे की वीभत्सता लिए हुए असाधारणता है मानवीय संवेदनाओं के आयाम की । हालाँकि इस वीभत्सकारी घटनापूर्ण त्रासदी में वही चिरपरिचित करुणा और क्षमा और ख़ुद को दिया दंड पश्चात्ताप रूप में फ़िल्म देखने वालों को अपनी नज़र में गिरने से बचा लेता है।
एक अति विस्मयकारी अनुभूति जो सहसा उपजने लगती है जब दृश्य दर दृश्य फ़िल्म की कहानी यह सोचने को बाध्य कर देती है कि आखिर किस तरह देह की मिचलाहट रिश्तों को जटिल और जीवन को पशु समान बना देती है . एक ऐसा रिश्ता जिसका आधार केवल और केवल मानवीयता की गुथी हुई सर्वोत्तम आभा है वो देह की पाश्विकता के समक्ष अपने सजे हुए मस्तक का अभिशाप बन जाता है। इस दैहिक खाई में गिर कर माँ-पुत्र का रिश्ता बस बचते बचते ही बच पाता है। लेकिन इसकी घृणित चोट किसी प्रेत-छाया की तरह दर्शक के मन में सुबकती रहती है।
Moebius देह, रिश्तों और नए खुलते वीभत्स सत्यों की एक ऐसी गाथा है जिसे अनुभूति के स्तर पर एक मौन के रूप में रखना भी किसी दुस्वप्न से कम नहीं क्योंकि जब भी इस तरफ दृष्टि जायेगी तब-तब आत्मा बुरी तरह से छलनी होगी।
3-Iron ( 2004)
किम की-डुक की फिल्मों की एक और विशेषता है कि वे अपने किरदारों को संवादों से दूर रखते हैं।इस दृष्टि से कलाकारों का काम किसी भी तरह से भ्रमित नहीं कर सकता। ‘3-Iron’ में किम प्रेम की नाज़ुक सुगंध को हृदय की पहचान बताते हुए और किसी संताप और दैवीय उपस्थिति के साथ उसे नायिका के जीवन में पहुँचाते हैं। एक दृश्य में जब नायक के हाथ में एक आँख उग आती है और वह उससे दुनिया देख रहा है तो दर्शक किसी स्वप्निल सत्य की तरह उसकी ऊष्मा से खुद को सम्मोहित किये बिना रह ही नहीं पाता। थ्री आयरन एक साउंड वेव की तरह देर तक मीठा और अचंभित अहसास देती रहती है। यह किम जैसे दुर्लभ फिल्मकार का ही करिश्मा है जो अनुपस्थित में उपस्थित और उपस्थित में अनुपस्थित की दर्शन-प्रणाली को तर्कसंगत रूप में अनुभव करवाती है। यह ऐंद्रिकता का भावबोध अपने चरम पर लिए सारतत्व में रूपांतरित हो जाती है और कुछ चीज़े दिखाई नहीं देती केवल महसूस होती हैं, थ्री आयरन इस शाश्वत तरंग को उत्पन्न करती हुई एक खूबसूरत और कोमल सिनेमाई कृति है।
Samaritan Girl ( 2004)
एक उम्र ऐसी होती है जब कोई भी युवा अपनी दैहिक और मानसिक ज़रुरत,अनजानी तृष्णाओं और दिवास्वप्नों को परित्यक्त निद्रा में देखता है।उसे नहीं पता होता कि उसे इस विशाल धुंध से कैसे बचना है। उसे नहीं पता होता उसके किस कृत्य से उसकी आत्मा पर तमाम ज़िन्दगी के लिए दाग लगने वाला है। उसे यह भी नहीं पता होता कि उसके आस-पास छाया कोहरा अंत में राख बन जाएगा। किम की दृष्टि यहाँ आधुनिक समय की समस्या से बहुत पीड़ा से सामना करती दिखती है। एक पिता की भूमिका में एक इंसान अपनी जवान होती बेटी को कदम-कदम पर जीवन के रहस्य समझाना चाहता है।उसे मासूमियत के लिहाफ में संरक्षित करना चाहता है लेकिन युवा होती बेटी के समक्ष वह बेशर्त हार जाता है।
अपराधबोध बनी बनाई सारी आस्थाओं को, प्यार को तोड़ कर विध्वंसक बन जाता है। हिंसा,आत्मग्लानि, ख़ुद से किया छल और फिर उनके प्रायश्चित का बोध…सब ऐसे घुल-मिल जाता है कि इंसान ख़ुद के साथ-साथ दूसरों को भी अपनी हिंसा का शिकार बनाने लगता है लेकिन विध्वन्सकारी आत्मग्लानि के साथ।
एक ऐसा पल जब वह हाथ खड़े कर देता है कि हमारे पास इससे ज़्यादा करने को कुछ नहीं। यह घोर निराशा के साथ जन्मी आसक्ति और निर्णायक स्थिति है। शायद यही अंतिम भाव बचता है मनुष्य के पास।
विस्थापना के बीज कोई नहीं बो सकता।
श्री श्री |
किम एक अनोखे फिल्मकार हैं।दर्द को दर्द की तरह दिखा सकते हैं, प्रेम को प्रेम की तरह।घृणित और वीभत्स एक्ट को भी उनके सिनेमा में उसी फ्रीक्वेंसी पर महसूस कर सकते हैं।लेकिन झेल पाते हैं या नहीं यह किम की-डुक की शर्त नहीं बल्कि हमारी अपनी है।
Bahut umda likha hai aapne. kuch filme maine dekhi hain. phir se unhe jee gayi.
सुन्दर प्रेरक प्रस्तुति ..
एक आला दर्जे के कलाकार द्वारा की गयी महीन पच्चीकारी को आपने माइक्रोस्कोपिक नजर से पढ़ा …उम्दा चित्रण । साधुवाद !!!!
किम के सिनेमाई जादू का उत्कृष्ट विश्लेषण। किम निश्चय ही अपने समय के श्रेष्ठतम फिल्मकारों में से एक हैं।