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‘दिल्ली में पैसा है। गांव में कुछ भी नहीं’


कुछ महीने पहले बिहार के सिवान में ‘कथा शिविर’ का आयोजन किया गया था. जिसमें कई पीढ़ियों के लेखकों ने हिस्सा लिया. लेखक-लेखिकाओं ने वहां के जीवन को करीब से देखा और बाद में अपने लेखन में याद किया. यहाँ प्रसिद्ध लेखिका वंदना राग का रागपूर्ण स्मरण, जिसमें हर्ष भी है विषाद भी, छूट जाने का दर्द भी है, फिर से पहुँच जाने की हुमक भी. वंदना राग मूल रूप से सिवान की हैं इसलिए इस गद्य में याददहानी का लुत्फ़ है. एक अवश्य पठनीय टाइप गद्य. इस तरह के आयोजन होने चाहिए और इस तरह का लेखन भी सामने आना चाहिए- मॉडरेटर 
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कहते हैं, दुनिया गोल है और एलिस इन वंडरलैंड’, एक प्रचलित गल्प है। पहले वाली बात के बरअक्स इतने तर्क गढ़ लिए गए हैं, कि स्वीकार करना ही पड़ा है। दूसरी वाली बात को छोड़ दिया गया हस्बे-मौका के भरोसे मानो या ना मानो की तर्ज पर। वैसे सवाल जे़हन से जुड़ा है-एलिस इन वंडरलैंडकभी बड़ी हुई है क्या? उसे कैसे मालूम दुनिया गोल है?
बचपन में नक्शे पर उकेरे, एक गरीब प्रदेश की राजधानी में रहने का मौका मिला था उससे भी पहले लेकिन, कंठस्थ था प्रदेश और राजधानी का नाम। प्रदेश था बिहार और उसकी राजधानी पटना।
ऐसा नहीं था कि जानकारियां वहीं तक महदूद रह गई थीं। मौका मिला था नातेदारी बदौलत, उसी प्रदेश के नक्शे में उकेरे गए एक अत्यंत छोटे जिले से पहचान करने का भी, जहां की मिट्टी में कुछ परिचित गंधें थीं।
हम यहीं के हैं’, पापा ने बताया था, उसी मिट्टी की गंध में सराबोर।
इस जगह का नाम?’
सिवान’, पापा ने कहा था, और एक भूगोल खण्ड कहीं धीरे लेकिन मजबूत ढंग से धंस गया था, दिलोदिमाग के किसी कोने में।
आना जाना लगा रहना चाहिएगांव वाले कहा करते थे, मेरे बचपन में। खूब याद है मुझे। बहुत छोटी थी तब और अच्छा लगता था, जाने पर गांव के ज्यादा लोगों का जुटना, अपने इर्द गिर्द और छू कर देखना कि हम शहरी लोग असल हैं, या मिथकीय। बाद में कभी थोड़े बड़े होने पर, एक गांव के लड़के ने शहरी बेहतर वाले मिथक और दंभ को चूर-चूर कर दिया था, अंग्रेजी की स्पेलिंग में हरा कर। भुराभुरा कर टूटा था, भ्रम कि शहरी हूं, अंग्रेजी माध्यम से पढ़ती हूं तो बेहतर ही जानती हूं, गांव के स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों से। गांव ने बार-बार चकित किया मुझे अपने बड़े होते जाने के सालों में। अलबत्ता यह दीगर बात थी, कि उसी बड़े होने के सालों में गांव के अनुभव स्मृतियों के कोष में स्थान पाते चले गए, और उस छूटी हुई दुनिया से बावस्ता होने की कभी सोच पैदा ही नहीं की।
जब परिवर्तन से, रंजन जी ने बुलावा भेजा, तो एक क्षण जैसे नास्टैलजिया और हिचक से भर हां बोली थी। मन में यह तो आता ही था कि अपने गांव तो नहीं, लेकिन सिवान जिले के किसी गांव में रहूंगी और शायद कुछ छूट गई चीजों से रूबरू होंगी। आधुनिक भारत के इतिहास के कई प्रतीक पुरुषों से अंटा पड़ा है, यह क्षेत्र। स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद का गांव जीरादेई लोकप्रिय ठग, जिसे कुछ लोग राबिनहुड का भारतीय संस्करण भी कहते रहे हैं, ‘नटवरलालका गांव, रूइयां वंगार भी है यहां। स्वतंत्रता सेनानी मजहरूल हक का गांव भी, इसी जिले में हैं। इन मशहूर नामों के अलावा भी कई ऐसे नाम होंगे, जिनकी जानकारी नहीं और जानकारी लेने का मन हो आया।
आधुनिक भारत के इतिहास के अलावा, कुछ गांवों के पौराणिक इतिहास भी होंगे। क्या नरेंद्रपुर के पास भी कुछ आख्यान होंगे? इतिहास की इबारतें हमेशा हांट करती हैं मुझे हमेशा लगता है, देश के इतिहास में इन छोटे भू खण्डों का इतिहास कितना शामिल हुआ है। इसकी कितनी उपलब्ध जानकारियां हैं, हमारे पास। भारत के इतिहास के  नैरेटिव में सिवान जिले के इतिहास का कितना देय रहा है? कैसा देय रहा है। और आज भी कहीं कोई बैठा हुआ दूर या पास, लगातार निर्मित होते जा रहे इतिहास को दर्ज कर रहा है या नहीं।
इन्हीं सवालों को मन में समेटे नरेंद्रपुर गांव में स्थित परिर्वतनपहुंची। परिवर्तन का विशाल कामप्लैक्स दिखलाई पड़ा। एकदम अचंभित करता हुआ। गांव के चकित कर देने की परिस्थिति फिर हाजिर थी। एक ठेठ गांव में, ये कैसी संस्था खड़ी है। कौतुक भरा था, सब कुछ परखने के अंदाज में मेरे।
साथ में आईं, उषाकिरण खान जी और नीलमप्रभा जी को जरूर, हंसी आई होगी मेरे इस तरह ठक हो जाने पर। एलिसफिर नए वंडरलैंड में प्रवेश कर रही थी। और ये एक छूट गए भू-खण्ड से नया संबंध स्थापित करने की ऐतिहासिक घटना थी। हर कोण पर एक नया निर्मित होता इतिहास था, कुछ सक्रिय लोग थे, कुछ कर गुजरने के स्पेस्स थे। समझा फिर चोला उतारना होगा यहां, नजरिया बदलव होगा, एक क्षण एक बाहरी की तरह कैसे रह पाऊंगी यहां? यहीं का होकर, रहना होगा। धंसना होगा उसी मिट्टी में तब जाकर शिविर की थीम को साकार कर पाऊंगी। वहीं से मेरी नई यात्रा शुरू हो गई।
नवनीत नीरव, अभिषेक पाण्डेय और श्रद्धा थवैत, से मिलने, उन नए विंडोज, से परिचित होने जैसा था, जिन पर उत्तजेना से भरा नया साफ्टवेयर होता है। हिंदी कथा लेखन के लिए, नई सौगात। गांव भ्रमण में देखी नई सरसों की फसल जैसे खूबसूरत पीले फूले, चारों ओर एक हरे और पीले के नीच की जमीन, उर्वर नई संभावनाओं से भरी हुई। सरसों के उन खेतों में, एक नए तरह के एस्थेटिक्स का भी दर्शन था। उनका साथ ‘‘साथ फूलों का।’’ विद्या बिन्दु सिंह जब देर शाम, परिवर्तन परिसर में स्थित घास के नरम गलीचे पर दूर से आती दिखलाई पड़ीं, तो मन में चांद का बिंब उभर आया। बजुद सुंदर हैं वे। यह दर्ज करते हुए, उनकी प्यारी सी मुस्कुराहट भी याद आ रही है। और उनका बहुत प्यार से धीमे-धीमे बोलना भी।
बाद में राजेन्द्र उपाध्याय जी और नीहारिका जी से भी परिचय हुआ। सबसे अन्त में आए आरिफ। आरिफ मेरे दोस्त, बरसों पुराने। कुछ यादें साझा करते वक्त, याद आया दोस्ती की नींव में हमारी कहानियां, जो एक ही साथ छपीं थी, वागर्थ में, और कैसे फोन घुमा कर मैंने उन्हें बधाई दी थी। वह एक पुरानी पहचान की कड़ी थी। कथा शिविर में कुछ नई कड़ियां जुड़ी। पहचान कब आत्मीयता में बदल जाती है, किसे कब पता चला है। कथा शिविर ने यह अवसर मुहैय्या कराया और हम सब चल पड़े हैं, अपनी आत्मीय यात्राओं में। कुछ सुंदर रास्तों पर, कुछ और सुंदर रास्तों की यात्राएं करने।
कुल जमा दो कहानियां हैं मेरी थाती। सिवान की थाती। पात्रों की तलाश, यूंही तो नहीं हो जाती? भटकना पड़ता है। मन से। तन से। विरासत में मिलीं यायावरी, बड़ी काम आई। दिल्ली में हिंदी पट्टी को ले चल रहे विमर्शों में भारी तोड़-फोड़ लगने लगी। इतिहास गवाह है, हारना ही होता है, खुद को कुछ जीतने के लिए। सो फिर हारा खुद को। बचपन की तरह किसी होड़ के तहत नहीं। एक लगातार विनीत होते जाते लेखक की तरह। किस बात पर रिक्लेम करूं अपनी विरासत को? मेरी किताबों के परिचय में यह लिखा जाता है कि मूलतः सिवान की है’, इसका वास्तविक अर्थ है क्या आखिर? क्या किया है, मैंने इस क्षेत्र के लिए। कुछ जमा दो कहानियां हैं, मेरी थाती। सिवान की भाती। उन्हीं में से एक का पाठ करती हूं। एक गुजरती शाम के दरम्यान। शाम का धुंधलका गहराने को है। मैं एक खूबसूरत काटेज की सीढ़ियों पर बैठी हूं। खुले आंगन के ऊपर से चिड़िया चहचहाते हुए, उड़ रहीं हैं अपने ठिकानों पर, मैं भी अपनी कहानी की मार्फत अपने ठिकाने पर लौट रही हूं। सीवान की मिट्टी की ही कहानी है, जिसका पाठ मैं करती हूं। पता नहीं, कितना संप्रेषित कर पाती हूं, एक बीत गई दुनिया के प्रति, लेकिन कोशिश करती हूं। हर बार की तरह इस बार भी कोशिश करती हूं। लेकिन कहानी का पाठ करते वक्त थोड़ी उत्तेजना से भरी हुई जरूर थी। पाठ के बाद लगा निचुड़ गया, अंदर का मलाल। बहुत कुछ दर्ज नहीं कर पाने का मलाल। फिर नया मलाल पलने लगा।
बहुत ही आत्मीय माहौल में, परिवर्तन के कुछ लोग आशुतोष जी के निर्देश में बेसिक वाद्य यंत्रों के साथ गीत प्रस्तुत करते हैं। वे गीत, देश और समाज में न्यायप्रियता और समान अधिकारों की बात करते हैं। मैं सोचती हूं कि भारतीय सामाजिक संरचना का परिामिड ऊपर से विचार थोपता है और एक सरकारी टेक्स्टुअल विचार बरस दर बरस पनपता जाता है, फैलाया जाता है, थोपा जाता है राज्य के एजेण्ट्स के द्वारा। पिरामिड के निचले हिस्से पर बसे देश के ज्यादा लोग, उससे बेहतर बात कहते हैं। वे उस तथाकथित मेनस्ट्रीम से बेहतर सामाजिक संरचना और तालमेल की बात करते हैं।
रात को इस क्षेत्र के ऐतिहासिक व्यक्तित्व, भिखारी ठाकुर द्वारा लिखित बेटी बेचवानाटक का मंचन होता है। परिवर्तन में एक खुला मंच हैं, और एक बड़ा खुला ऑडिटोरियम। नाटक शुरू होने के पहले लोग आकर अपना स्थान ग्रहण करने लगते है। किस गांव से आए हैं लोग पूछती हूं। अगल-बगल के कई गांवों से, जवाब कोई देता है। सब मनोयोग से नाटक देखते हैं। राजेन्द्र उपाध्याय जी की आंखों में आंसू आए, ऐसा उन्होंने बाद में बताया। अभिनय इतना शानदार था। कच्चे कलाकारों को, तराशा कर आशुतोष जी ने एक मिसाल कायम की, न सिर्फ अभिनय के क्षेत्र में बल्कि प्रोडक्शन के क्षेत्र में भी, दिल्ली से गए, रूरल थियेटर में स्नातक, रोहन की मदद से भी।
महिला सामख्या में आई ग्रामीण महिलाएं और, पंचायत जागरूकता अभियान में आई ग्रामीण महिलाओं में कोई विशेष अंतर नहीं था। वे रूढ़ परिस्थितियों से निकल कर, अपने लिए नए रास्ते तलाशने आई थीं।
धीरे-धीरे खुलने लगे थे, हम सबके मन के किवाड़। हम नई जानकारियों से लैस हो रहे थे। वे महिलाएं जानती नहीं थी कि वे बिना शोरगुल के महानगरों में चलने वाले स्त्री विमर्श में महत्वपूर्ण इबारतें दर्ज कर रही थीं। पितृसत्ता के खिलाफ उनकी लड़ाई
 
      

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13 comments

  1. पठनीय ,यादो की तारतम्यता के साथ – साथ पलायन की पीड़ा का मार्मिक शब्द चित्र

  2. अच्छा संस्मरण ।

  3. मैं भी पूर्वी चंपारण के एक छोटे से गाँव का हूँ मूलतः ,बहुत चुभती है यह बात और बल्कि यथार्थ कि मैं अपने मातृभूमि से पलायित हूँ।शिक्षा के लिए दिल्ली जाना हुआ और तदुपरांत रोजगार और बेहतर जीवन की तलाश में डेरा बनाता रहा हूँ ।
    एक कसक और दर्द है कि मैं जहाँ जन्मा वहाँ क्यों नहीं हूँ,क्या राजकीय कुव्यवस्था ही मेरे विस्थापन के लिए जिम्मेदार है?कही ऐसा तो नहीं की आधुनिक भारत में शिक्षा को कुछ ज्यादा ही प्रचारित कर दिया गया है?कभी कभी तो लगता है कि बाज़ार ,आधुनिकतावाद और वर्तमान शिक्षा हमसे बहुत कुछ छीन रहे हैं।

  4. सुंदर संस्मरण… एक गहरी कसक से भरा हुआ…

  5. जमीन से जुड़ा लेखक जब यथार्थ लिखता है तो पाठक प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता।

  6. उम्दा,बधाई।
    जमीन से जुड़े रहने में आंतरिक व वाह्य सकारात्मक परिवर्तन सम्भव है…स्त्री की निज स्वतंत्रता में पुरुष व समाज की भी उन्नति है…धन्यवाद…

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