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मनोज कुमार पाण्डेय की कहानी ‘मदीना’

मनोज कुमार पाण्डेय समकालीन लेखकों में सबसे नियमित और निरंतर कुछ बेहतर लिखने के लिए जाने जाते हैं. उनकी यह नई कहानी भी इसी ताकीद करती है- मॉडरेटर 
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गाँव में मेरा घर गाँव से थोड़ा परे हटकर था। पूरा गाँव जहाँ हरियाली और रास्ता था वहीं मेरे घर के आसपास की जमीन जैसे बंजर। बारिश के कुछ महीनों को छोड़ दें तो दुआर पर साल भर रेह फूलती रहती। कच्चे घर की दीवारें हमेशा लोना छोड़ती रहतीं। हमें घर की फर्श और दीवालों को दुरुस्त करने के लिए दूर से मिट्टी ढो कर लानी पड़ती। वह सफेद मिट्टी तो और दूर से आती जिससे घर की दीवारें और चूल्हे पोते जाते।
      घर पर पेड़ पौधों के नाम पर बस बस थोड़े से पेड़ थे। घर के सामने थोड़ी दूर पर नीम का एक पुराना पेड़ था। हालाँकि यह भी गाँव के अपने हमउम्र पेड़ों जितना घना नहीं था फिर भी उसका होना हमारे लिए बहुत बड़ी बात थी। उसके अलावा घर के पूरब की तरफ बबूल और विलायती बबूल के कई पेड़ थे। जिनकी छाँव कई बार हमारे उठने बैठने के और इससे भी ज्यादा जानवरों के काम आती। हम उन्हीं बबूलों के नीचे जानवर बाँधते। एक सहूलियत यह भी कि खूँटे नहीं गाड़ने पड़ते। उनकी जगह बबूल के पेड़ ही काम में आ जाते। वहीं टूटी-फूटी ईंटों और मिट्टी के जोड़-तोड़ से एक चरही बना दी गई थी जिसमें जानवरों को चारा डाला जाता।
      मेरे घर पर एक भी ऐसा पेड़ नहीं था जिसमें फल लगता और हम खाते। मैं आम, जामुन या बेर आदि की तलाश में दूसरों के पेड़ों के नीचे भटकता और झिड़कियाँ खाता। कई बार तो वे लोग ओरहन लेकर घर तक चले आते और मुझे घर पर डाँट और मार पड़ती। फल ही नहीं फूल वाले पौधे भी घर पर न के बराबर थे। कुएँ की बगल की एक जगह पर हर साल देशी गेंदे के कुछ पौधे उगते और बड़े होते। उनमें फूल खिलते फिर वे सूख जाते। इसके सिवा हमारे यहाँ कोई दूसरा फूल भी नहीं था। बाबा या बाबू रोज सुबह कहीं और से फूल तोड़ कर ले आते। हालाँकि इसके लिए भी उन्हें कई बार उसी तरह से भुनभुनाहट का सामना करना पड़ता जिस तरह से हमें आम और जामुन के लिए।
      शायद यही अभाव रहा होगा जिसने मेरे मन में यह घनघोर लालसा भरी होगी कि हमारे यहाँ भी खूब सारे फल और फूल वाले पेड़ हों। बल्कि उतने हों जितने कि गाँव में किसी के यहाँ न हों। यह सोचना आसान था पर इसे संभव कर पाना बहुत मुश्किल। मैं आमों और जामुनों के बीज ले आता और उन्हें जहाँ तहाँ बो देता। कई बार उनमें से पौधे भी निकलते। उनकी रंगीन आभा मेरा मन मोह लेती। मैं दिन में कई कई बार उन्हें देखने जाता। उन्हें बढ़ता देखता और गहराई तक एक सम्मोहन से भर जाता। उन्हें लेकर मन में बहुत सारे सपने देखने लगता। सपनों में जब वे कद्दावर पेड़ों में बदल रहे होते यथार्थ में उनकी पत्तियाँ अपनी चमक खोने लगतीं और वे धीरे धीरे सूख जाते। मेरे घर की मिट्टी में पता नहीं ऐसा क्या था जो उन्हें मार डालता। मैं कई बार उस मिट्टी को चखता कि कहीं उनमें कोई जहर तो नहीं है। मेरे मुँह का स्वाद नमकीन हो जाता पर मेरा कुछ नहीं बिगड़ता।
      इसके बावजूद मैंने कोशिशें नहीं छोड़ीं हालाँकि नतीजा शून्य ही रहा। फिर मैंने हाई स्कूल के लिए घर से लगभग तीन कोस दूर एक कस्बे के स्कूल में दाखिला लिया। स्कूल इसलिए भी मेरे सपनों के नजदीक लगा कि उसमें इतनी तरह के फूलों के पौधे और पेड़ थे जितने मैंने एक साथ पहले कभी नहीं देखे थे। ज्यादातर के तो मैं नाम भी नहीं जानता था। मैं अपने स्कूल में बहुत खुश था पर उस दिन मेरी खुशी और बढ़ गई जब मैंने स्कूल के नजदीक ही एक पेड़-पौधों की नर्सरी ढूँढ़ निकाली। मेरे सपनों को जैसे पंख ही लग गए फिर।
      जल्दी ही मैंने स्कूल के माली से जान-पहचान बढ़ानी शुरू कर दी। मुझे उससे वह गुर सीखना था जिससे पौधे सूखें नहीं और वैसे ही बढ़ते जाएँ जैसे मेरे स्कूल में बढ़ रहे थे। माली ने पहले तो मुझमें रुचि नहीं दिखाई फिर मेरी तमाम कोशिशों और पीछे पड़े रहने के बाद एक दिन उसने मुझसे स्कूल के पीछे चलने के लिए कहा। मैं खुश हो गया। माली मुझे स्कूल के पीछे वाली नहर में ले गया और उसने मुझमें ऐसी रुचि दिखाई कि मैं उठ के खड़े होने के काबिल भी नहीं बचा। न जाने किस तरह से साइकिल चलाकर मैं घर पहुँचा। अगले कई दिनों तक मुझे बुखार आता रहा और टट्टी जाने के नाम से भी मेरी रूह काँपती रही। पर मुझमें न जाने कैसा डर या शर्म थी कि यह बात मैं किसी को भी नहीं बता पाया।
      जब मैं दोबारा स्कूल पहुँचा तो एक अजीब तरह के भय से भरा हुआ था। अब वहाँ स्थिति उलट गई थी। पहले मैं माली के पीछे घूमता था अब माली मुझे ढूँढ़ रहा था। उसने मुझे लालच दिया कि अगर मैं उसका कहा मानता रहूँ तो वह भी मुझे पेड़ पौधों के बारे में बहुत सारी बातें बताएगा। यही नहीं वह स्कूल में लगने के लिए आने वाले पौधों में से बहुत सारे पौधे मुझे देगा। यह प्रलोभन मेरे लिए बहुत तगड़ा था पर उसके साथ का अनुभव उससे भी ज्यादा भयावह था। मैंने मना कर दिया। फिर भी वह बहुत दिनों तक मेरे पीछे पड़ा रहा। आखिर में कई दिनों की कोशिश और अभ्यास के बाद एक दिन मैंने माली को गाली बकी और कहा कि मैं उसकी शिकायत प्रिंसिपल से करूँगा। माली हँसा और बोला तो प्रिंसिपल तुम जैसे चिकने को छोड़ देंगे क्या? वह मुझसे भी ज्यादा शौकीन हैं। मेरी अभ्यास से जुटाई हुई हिम्मत न जाने कहाँ गायब हो गई। मैं रोने लगा।  
      यह एक संयोग था कि मेरी ही क्लास का एक लड़का उधर आ निकला। उसने मुझसे रोने की वजह पूछी। उसके पूछने में न जाने ऐसा क्या था कि मैं भरभरा गया और जो बात मैंने अब तक किसी को नहीं बताई थी वह उसे बता डाली। फिर तो उसने माली का कालर पकड़कर उसे कई हाथ मारे और जो जो गालियाँ सुनाईं कि मेरा जी ही खुश हो गया। उतनी गालियाँ मैंने पहले कभी एक साथ शायद ही सुनी हों। बाद में उसने बताया कि उसका बाप वहीं कस्बे के ही थाने में पुलिस है और वह अपने बाप की गालियाँ सुनकर रोज उनके बकने का अभ्यास करता है। बाद में भी उस दोस्त ने मुझे बहुत सारी मुश्किलों से बचाया।
      माली से निराश होने के बाद अब नर्सरी ही थी जो मेरे सपनों में बसने वाले पेड़-पौधों को जमीन पर उतार सकती थी। पर वहाँ मुफ्त का कुछ नहीं था। नर्सरी में जाने से पहले मुझे कुछ रुपये चाहिये थे जिनसे मैं पौधे खरीद सकता। दरअसल मैं एक एक पौधा खरीदने और लगाने के बारे में नहीं सोचता था। मेरा लालच बहुत बड़ा था। मैं एक साथ बहुत सारे पौधे खरीदना चाहता था। मैं सपने में देखता था कि वे बहुत सारे पौधे पेड़ बन गए हैं। वे तरह तरह के फूलों और फलों से लदे हुए हैं। उन पेड़ों के बीच बहुत सारी रंग-बिरंगे पंछियों के घोसले हैं। उन पंछियों के बीच बहुत सारे तोते हैं। वे तोते आमों को जूठा कर देते हैं और वे जूठे आम बहुत मीठे होते हैं। कोयल हैं जो आमों पर पाद देती हैं और वे आम महकने लगते हैं।
      यह सब सपनों की बातें थीं पर असल में भी इसके लिए मैं बहुत कुछ कर रहा था। एक दिन जब मेरे पास पचास रुपये हो गए तो मैंने नर्सरी में जाने की हिम्मत जुटाई। मैं बहुत देर तक नर्सरी में इधर उधर घूमता रहा। तरह तरह के पौधों के दाम पूछता रहा। पौधों को दिखाने वाला लड़का थोड़ी देर में मुझसे उकता हो गया। उसने कहा कुछ लेना हो तो लो नहीं तो आगे बढ़ो। मैंने बहुत सोच समझ कर खुद को फूलों के पौधों पर केंद्रित किया। मेरी सोच यह थी कि ऐसा करने से बाबा और बाबू खुश होंगे और आगे दूसरे पौधों के लिए रुपये माँगने और जुटाने में मुझे आसानी होगी। इस तरह से मैंने पचास रुपये में कुल पाँच पौधे खरीदे। लाल कनेर, गुड़हल, गुलाब और मदीना। मदीने के पेड़ मैंने अपने इस स्कूल में आने के पहले बस एक दो बार ही देखे थे और मोहित हुआ था। तब मैं इसका नाम नहीं जानता था। यह तो स्कूल में आकर पता चला कि यह पेड़ मदीना है और उस दिन नर्सरी में यह पता चला कि इसे गुलमोहर भी कहते हैं। नाम जो भी हो मेरे लिए मदीना एक हरे भरे, छतनार, लाल फूलों से लदे पेड़ का नाम था। इसका कोई और भी मतलब हो सकता था यह मुझे बाद में जानना था। इन पौधों के साथ एक अमरूद का पौधा खरीदने से मैं खुद को रोक नहीं पाया। आखिर सपने में कुछ फल भी तो थे जिन्हें तोतों द्वारा जूठा करके मीठा करना था।
      पौधे खरीदने के बाद मैं देर तक नर्सरी के मालिक के साथ बतियाता रहा। यह मालिक एक बूढ़ा था जिससे जी भर के बातें की जा सकती थीं। वह खुद पेड़ पौधों के बारे में बहुत सारी बातें बताना चाहता था। मैंने उसे अपने घर की बंजर मिट्टी के बारे में बताया। यह भी बताया कि कैसे पौधे उगते हैं फिर सूख जाते हैं। उसने सब धैर्य से सुना फिर मुझे मिट्टी को सुधारने की कई तरकीबें बताईं। मुझे गहरे गड्ढे खोदने थे। उनकी मिट्टी निकाल कर उनमें बढ़िया मिट्टी डालनी थी। बीच बीच में पुआल या पेड़ों की पत्तियाँ, गोबर की खाद की परत, फिर मिट्टी और फिर यही सब। यह सब बड़े पेड़ों के लिए तैयार होने वाले गड्ढों के लिए था। जिन्हें यह सब करके बारिश भर के लिए छोड़ देना था। मैंने छोटे पेड़ों वाले पौधे खरीदे थे। उनका काम बाहर की मिट्टी और गोबर की खाद से चल जाना था। बाकी कुछ रसायनिक खादें भी थी जो कि घर पर खेती आदि के लिए आती ही रहती थीं।
      मैं बहुत उत्साहित होकर घर आया। घर आकर मेरा सारा उत्साह जाता रहा। मुझे बाबा की डाँट का सामना करना पड़ा और उन्हें यह सब बताना पड़ा कि मेरे पास पचास रुपये आए कहाँ से? उसके बाद ये पौधे कहाँ लगाए जाएँगे इसके बारे में मेरी एक न चली। मैंने मन ही मन उन्हें कहीं और लगाने की सोच रखी थी और बाबा ने जो जगहें बताई वह मुझे अच्छी नहीं लग रही थीं। पर अंततः मुझे ही झुकना था और मैंने बाबा द्वारा तय की गई जगहों पर ही गड्ढे तैयार करने शुरू कर दिए। इस बीच पौधे एक जगह छाया में रखे हुए थे जिन पर मैं बीच बीच में पानी छिड़कता रहता। आखिरकार चार दिन बाद एक साथ पाँचों पौधों को उनके हिस्से की जमीन सौंप दी गई।
      मैं रोज सुबह शाम जब भी मौका मिलता उन पौधों के पास जाता। उन्हें पानी देता। उनके पत्ते छूता, उन्हें सहलाता पर हफ्ते भर के भीतर अमरूद का पौधा सूख गया। इस तरह से फल का किस्सा खत्म। अब सिर्फ फूल बचे थे और उन चारों में नई कोंपलें निकल रही थीं। मैं खुशी में मगन था कि अब वह दिन दूर नहीं कि जब मेरे लगाए हुए पौधों में फूल खिलेंगे। पौधे बढ़ते रहे। मुझे भरोसा नहीं हो रहा था कि पौधों ने जड़ पकड़ ली है और इस बंजर जमीन के साथ उनका एक जीवित रिश्ता बन रहा है। मेरे सपनों को पंख लग गए थे कि अगर यह चार यहाँ अपनी जड़ जमा सकते हैं तो अगले चालीस भी जमाएँगे। मैंने दादा से जगह के बारे में तय किया। कुछ जगहों पर अपने मन से गड्ढे खोदने शुरू किए। मुझे जब भी समय मिलता मैं उनमें दूर खेत से बढ़िया मिट्टी लाकर डालता। बीच बीच में जलकुंभी, पुआल, पेड़ों की पत्तियाँ और गोबर की खाद डालना न भूलता। यह अगले साल की तैयारी थी। पौधे खरीदने के लिए रुपये इकट्ठे करने का काम अलग से चल ही रहा था। उसके लिए भी बहुत सारा प्रपंच रचना पड़ रहा था।
      अचानक एक दिन मेरे सपने को फिर से झटका लगा। लाल कनेर और गुड़हल के पौधे कोई उखाड़ ले गया था। उनकी जगह खाली थी। मेरी आँखों में आँसू आ गए। जैसे जमाने भर की निराशा मेरे भीतर आकर इकट्ठा हो गई थी। यह बात तो मैंने सोची ही नहीं थी कि पौधे चोरी भी हो सकते हैं नहीं तो उनके चारों तरफ कँटीली बाड़ का इंतजाम तो कर ही सकता था। पर अब कुछ नहीं किया जा सकता था। इस घटना से सबक लेकर मैंने बाकी बचे पौधों की सुरक्षा के लिए बबूल की डालियों की बाड़ लगाने का निश्चय किया।
      तभी मैंने गुलाब की एक नई नई कोंपल में एक नन्हीं सी कली देखी। मैं खुशी के मारे पागल ही हो गया। मेरे अपने गुलाब में फूल खिलने वाला है यह खुशी इतनी नई और अनोखी थी कि मैं अमरूद का सूखना और गुड़हल और लाल कनेर का चोरी चले जाना जैसे भूल ही गया। मदीना भी तेज गति से बढ़ रहा था। तीन चार महीनों के भीतर वह मुझसे भी बड़ा हो गया था और उसमें सभी दिशाओं में नए नए कल्ले फूट रहे थे। पर गुलाब में एक कली दिख गई थी इसलिए मैं उसके प्रति एक तरह के पक्षपात से भर गया था। मैं उसके आसपास किसी घास का एक तिनका भी नहीं रहने देना चाहता था। तभी एक दिन किसी दोस्त ने उसमें रसायनिक खाद डालने की सलाह दी। मैंने गुलाब के पौधे के आसपास गुड़ाई की और उसमें अँजुरी भर यूरिया और अँजुरी भर डीएपी लाकर डाल दिया। अगले दिन सुबह पौधा मुरझाया हुआ था। उसकी नई कोंपले नीचे से काली पड़ गई थीं। मैंने खाद डालते हुए सोचा भी नहीं था कि जरूरत से ज्यादा खाद मेरे गुलाब की जान भी ले सकती है। इस लहलहाते पौधे की हत्या की जिम्मेदार मेरी ही नासमझी थी। यह चीज मुझे लंबे समय तक सालती रहने वाली थी।  
      अब पाँच में से सिर्फ एक पौधा बचा था, मदीने का। इसके साथ मैं किसी भी तरह का खतरा उठाने को तैयार नहीं था। मैं दिन में कई कई बार उसके पास जाता। उससे बातें करता। उससे इस बात का वादा लेता कि अपने बाकी साथियों की तरह वह मुझसे दगा नहीं करेगा। वह मेरा साथ देगा। वह मेरे हरे भरे सपनों की जमीन बनेगा और उसने मेरा पूरा साथ दिया। साल भर के भीतर ही वह एक किशोर छतनार पेड़ में बदल गया। बारिश आने के बाद जब साल भर की धूल मिट्टी साफ हुई और नई कोंपले प्रकट हुईं तो उनकी हरी आभा ने मेरा मन ही मोह लिया। पर असली जादू अभी बाकी था। उन कोंपलों की फुनगियों में ढेर सारी कलियाँ छुपी हुई थीं। मैंने सोचा ही नहीं था कि उसमें इतनी जल्दी फूल आएँगे। शायद इसलिए कलियों की तरफ मेरा ध्यान ही तब गया जब वह खिलने खिलने को हो आईं। और एक दिन सुबह उसमें कई फूल एक साथ खिले हुए थे। मेरे बोए गए या लगाए गए पौधों में यह पहला था जिसने मेरी आँखों में सफलता की एक रंगीन चमक पैदा की थी।
      मैं घर भर में सबको दिखाना चाहता था। पर मैंने जल्दी ही पाया कि मेरा उत्साह किसी पर कोई खास असर नहीं डाल रहा है। बाबा जरूर पेड़ तक गए। उन्होंने उसका एक फूल तोड़ा और सूँघा फिर फेंक दिया। बोले इसमें तो कोई महक ही नहीं है बल्कि एक अजीब सी जंगली बू है। मैंने उनके फेंके हुए फूल को उठाया और सूँघा। सचमुच उसमें एक भीनी सी जंगली बू थी पर यह बू मुझे सबसे अलग और खास लगी। मुझे लगा कि यह मेरे सपनों की महक है। एकदम सबसे अलग, सुंदर और जंगली। वह अपने साथ मेरे भी होने का एहसास लेकर आया था। यह जो एक नन्हें से पौधे से खूबसूरत घने पेड़ में बदल रहा है और जिस पर लाल रंग के फूलों के गुच्छे खिले हुए हैं उसे मैंने लगाया है। वह मेरी मेहनत और देखरेख में बड़ा हुआ है। वह मेरा है।
      उसकी आभा दिन पर दिन बढ़ती ही जाती थी और उसी के साथ साथ और पौधे लगाने का मेरा उत्साह भी। मैंने इस बार पौधे लगाने के लिए गिनकर पूरे पचास गड्ढे तैयार किए थे। पर एक साथ पचास पौधे ले आना मेरी क्षमता के बाहर की बात थी। इसलिए मैंने तय किया कि मैं पाँच पौधे रोज ले आऊँगा और इस तरह से अगले दस बारह दिनों में पूरे पौधे आ जाएँगे। इससे यह भी फायदा होगा कि पौधों को घर लाकर रखना नहीं पड़ेगा और वे रोज के रोज लगा दिए जाएँगे। जिस दिन पौधों की पहली खेप घर लाया मैं नए उत्साह से भरा हुआ था। मेरे पास पाँच पौधे थे उन्हें लेकर मैं मदीने के पास पहुँचा। मुझे उन पौधों को उनके बड़े भाई से मिलाना था जो उसी नर्सरी से साल भर पहले आया था और लहलहा रहा था।
      वहाँ पहुँचकर मैं जैसे जड़ हो गया। मदीना कटा हुआ पड़ा था। उसकी आभा खत्म हो गई थी। उसकी बड़ी बड़ी पत्तियाँ, कलियाँ और फूल सब मिट्टी में पड़े हुए थे। मेरी समझ में ही नहीं आया कि मैं क्या करूँ अब। पौधे मेरे हाथ से छूटकर नीचे गिर गए थे। जब मेरी जड़ता टूटी तो मैं चिल्लाते हुए घर की तरफ भागा। घर में माँ थी बस। माँ ने बताया कि कोई पंडितजी आए थे। उन्होंने उस पेड़ के लिए कहा कि यह तुम्हारे यहाँ कैसे? यह तो मुसलमानी पेड़ है। इससे गंदी गंदी हवाएँ निकलती हैं जो बहुत अशुभ होती हैं और घर में तरह तरह के रोग फैलाती हैं। यही नहीं अगर घर के सामने यह पेड़ रहे तो घर वालों का मन मांस खाने को करने लगता है। वे अपने धर्म के बारे में सब कुछ भूलने लगते हैं और इस तरह उनकी अगली पीढ़ी मुसलमान हो जाती है। बाबा यह सुनते ही भड़क गए। उन्होंने कहा कि नर्सरी वाला जरूर ही मुसलमान होगा और उसने जान-बूझकर यह पेड़ बचवा को दिया होगा। यह कहते हुए उन्होंने कुल्हाड़ी उठाई और पेड़ को काट डाला।
      माँ की बात पूरी होते होते मैं चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा। माँ मुझे चुप कराने लगी। वह मुझे समझा रही थी कि कोई बात नहीं तुम वहाँ दूसरा पेड़ लगा देना। उन्हें क्या पता कि वह पेड़ कितनी मुश्किल और प्यार से मैंने इतना बड़ा किया था। मैंने माँ से कहा कि मैं मर जाता हूँ तुम दूसरा बेटा पैदा कर लेना। माँ ने मुझे चाँटा मारा पर तुरंत ही गले से लगा लिया। मेरी रुलाई बंद होने का नाम ही नहीं ले रही थी। थोड़ी देर बाद बाबा आए तो अब तक का सारा डर भूलकर मैंने उनसे पूछा कि किससे पूछकर उन्होंने मेरा पेड़ काटा। बाबा ने मुझे गाली दी और कहा कि मेरा घर है मेरी जमीन है मैं जो मर्जी होगी करूँगा। मुझे किसी से पूछने की कोई जरूरत नहीं है।
तब मैंने उनसे पूछा कि मेरी साल भर की मेहनत का क्या? इसके पहले मैंने बाबा से कभी जबान नहीं लड़ाई थी। वे गुस्से में बमक उठे। बगल में पड़ा डंडा उठाया और मुझे कई डंडे मारे। वे गाली बक रहे थे कि साला मेरे ही घर में यह बित्ता भर का लौंडा मुझसे सवाल-जवाब करेगा। मेरे दरवाजे पर मुसलमानी पेड़ लगाएगा और मैं उसको काटूँगा नहीं उसमें जल चढ़ाऊँगा! पढ़ाई-लिखाई छोड़ के पेड़ लगाएँगे बबुआ। मालीगीरी करनी है। अब इस चक्कर में पड़े तो हाथ पैर तोड़ कर भीख मँगवाऊँगा। तभी उनकी नजर उन पौधों पर गई जिन्हें मैं थोड़ी देर पहले मदीने के पास से ले आया था। वे एक साथ एक रस्सी में बँधे हुए थे। उन्होंने पाँचों को एक साथ उठाया और जमीन पर पटक दिया। वह पालीथीनें जिनमें मिट्टी भरी थी और जो जड़ों को सँभाले हुए थीं फटकर बिखर गईं। पाँचों पौधों की जड़ें नंगी हो गईं। बाबा ने उन्हें तोड़ा-मरोड़ा और दूर फेंक दिया।
बाकी पैतालिस पौधे कभी नहीं आए। मैंने अगले दिन सभी तैयार किए हुए गड्ढों में बबूल के बहुत सारे बीज डाल दिए। हालाँकि वे उगे या कि नहीं मैं दोबारा पलटकर देखने नहीं गया।  
  
‘रचना समय’ से साभार 
मनोज कुमार पांडेय
फोन : 08275409685
ई-मेल : chanduksaath@gmail.coms

 
      

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12 comments

  1. अनुलता जी, तूलिका जी, वंदना जी, अननोन जी और हिमांशु जी आप सबके प्रति प्रेम और आभार.

  2. इस कहानी की प्रशंसा में कहने लायक मेरे पास शब्द नहीं हैं … दिल को स्पर्श करने वाली रचना के लिए बहुत – बहुत बधाई!

  3. कहानी पढी। बिलकुल सामयिक। आज हर कही हर चीज की जाति, धर्म आदि का अन्वेषण जारी। प्रक्रति, परिस्थिति पर नजर नही डालते। समय सेसरोकार करती कहानी।

  4. बढ़िया…
    सहज और आत्मीय सी लगती कहानी!
    बधाई!
    तूलिका

  5. वाह……
    शानदार कहानी है….एकदम अलग…एक सांस में पढ़ जाने लायक !!
    बधाई!
    अनुलता

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