नॉर्वे प्रवासी मिथिलावासी डॉक्टर व्यंग्यकार प्रवीण कुमार झा के ‘कक्का’ इस बार क्रांति के मूड में लौट आए हैं. पढ़िए- मॉडरेटर
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सुबह उठा तो बर्फ की चद्दर बिछी पड़ी थी। पूरी रात बस बर्फ गिरती रही शायद। पहाड़ों में जैसे जान आ गई। यह मनोरम दृश्य निहार रहा था कि तभी कवि कक्का का मिस्ड काॅल आया। मैनें टाला, दुबारा आया। मूड तो बात करने का बिल्कुल नहीं था पर क्या करता काॅफी की घूंट पी कर रह गया।
¨कक्का नमस्कार, आज सुबह-सुबह कैसे याद किया?¨
¨बस ये समझ लो, मेरा वक्त आ गया।¨
¨क्या कह रहे हैं कक्का? डाक्टर चेला पाला है आपने। इतनी आसानी से नहीं मरने देगा।¨
¨मरे मेरे दुश्मन! बाबा नागार्जुन के कर्ज चुकाने का वक्त आ गया है। सत्य को लकवा मार गया है। वह लंबे काठ की तरह पड़ा रहता है सारा दिन, सारी रात।¨
¨कौन? अपना सत्तू? वो तो मुझसे भी दो साल छोटा है। पर वो तो कलकत्ता चला गया था।¨
¨अरे बुरबक! कौन सत्तू? मैं सत्य मतलब ´ट्रूथ´ की बात कर रहा हूँ।¨
¨ट्रूथ को लकवा? कक्का कुछ बुझा नहीं रहा।¨
¨तुमलोग चाँदी का चम्मच लेकर पैदा हुआ। बाबा को जेल में चूड़ा दही पहुँचाने हम जाते थे। इमरजेंसी सूँघ लेते हैं हम।¨
¨कक्का, आप भी फेसबुकिया होते जा रहे हैं। ये सब कुछ नहीं होने जा रहा। और आप की उमर हुई, अब आप करेंगे क्या?¨
¨जेपी वाज सेवेंटी फाइव एंड सो एम आई¨
कक्का वाकई सीरियस थे। वो यूँ ही अंग्रेजी नहीं बोलते।
¨कक्का, देखिये ये सब राजनीति है, और कुछ नहीं।¨
¨प्रेस पर पाबंदी लग रही है। जबरन कानून बन रहे हैं। नकली मेघ दहाड़ रहे हैं। छात्रों के लहू का चस्का लगा है। काले चिकने माल का मस्का लगा है।¨
¨प्रेस नहीं टी.वी.। अमरीका से पैसा आता है उनका। खाली सरकार को गरियाते हैं। उनको टाइट करना जरूरी था।¨
¨क्या है? ढक्कन? कि टाइट करोगे? अमरीका से तो टाइट हुआ नहीं। क्या नाम है उसका, जो तुम्हरा नाॅर्बे में बैठके बुलेटिन निकालता था?¨
¨एडवर्ड स्नोडेन। नाॅर्वे नहीं रूस में। देशद्रोही था।¨
¨अब क्या था, ये तुम सिखाएगा? प्रेस को बंद करोगे, वो और खुराफात करेगा।¨
¨बाकी की मीडिया तो नहीं करती।¨
¨देखो, ये सब धंधा को समझना आसान नहीं। रिपोर्टिंग दोनो टाइप होता है और होना भी चाहिए। राजा लोग थे तो चन्दबरदाई और अबुल फजल टाइप दो-चार रखते थे। अब क्या काम?¨
¨निरपेक्ष भी तो हो सकती है?¨
¨नीरस होता है। न इधर वाला पढ़ेगा, न उधर वाला। पेपर का भट्ठा बैठ जाएगा।¨
¨गोयनका साहब?¨
¨एकदम विपक्षी। बाबा मिलवाए थे एक बार। आह!¨
¨पर उनका अखबार भी आखिर घुटना टेक दिया था शुक्ला जी के सामने।¨
¨घुटना टेकेगा वो आदमी? बहुत शातिर थे। इंदु जी का नाक में दम कर दिया था।¨
¨इंदिरा जी के साथ तो बिरला जी थे। उनको क्या डर?¨
¨तुम नहीं बूझेगा, प्रेस हमेशा एक रहता है। आज एक का नंबर है, कल दूसरे का आएगा।¨
¨अभी एक नहीं है।¨
¨अभी मारवाड़ी बुद्धि नहीं है न? कौन कहाँ देसाई लोग है।¨
¨मतलब बिरला गोयनका मिले हुए थे?¨
¨ये तुम पूछो सरदार जी से, खुशवंत जी से। खैर अब तो न शुक्ला जी रहे, न सरदार जी।¨
¨देखिए, वो सब पुरानी बाते हैं। अब एक दिन बंद हो जाने दीजिए। आप आराम कीजिए।¨
¨बस मरने से पहले एक बार इमरजेंसी आ जाता, तो हम भी जेपी बन जाते। नहीं आएगा क्या?¨
¨आएगा भी तो जेपी बनने के लिये बहुत कम्पीटीशन है। आप भाँग घोटते रह जाएँगें।¨
कक्का शांत हो गए। होपलेस।
फिर बड़बड़ाने लगे।
¨हम तो प्रैक्टिस भी शुरू कर दिए थे। खद्दर का कुर्ता, धोती, चश्मा, झोला। सब रेडी है। बोलो तो हम थोड़े-थोड़े जेपी नहीं दिखते? बाबा होते तो चुप न रहते। भाँग न घोटते। कहते…
सुन रहीं गिन रहीं
गिन रहीं सुन रहीं
सुन रहीं सुन रहीं
गिन रहीं गिन रहीं
हिटलर के घोड़े की एक-एक टाप को
एक-एक टाप को, एक-एक टाप को…….¨
कक्का बड़बड़ाते रहे। मैं फोन रख अलाव जलाने लगा। ठंड बहुत बढ़ गई है।
वाह …नहीं..नही…आह-उफ़…खूब !!!