Home / ब्लॉग / मातृभाषाओं में शिक्षा को लेकर गहरी उदासीनता है

मातृभाषाओं में शिक्षा को लेकर गहरी उदासीनता है

मातृभाषा में शिक्षा  के सम्बन्ध में बांगला भाषा में अमिताभ देव चौधुरी का बहुत ही विद्वत्तापूर्ण लेख आया था. जिसका अनुवाद करके हमें भेजा गंगानंद झा जी ने. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर

===================================================

आज जब झुम्पा लाहिड़ी, अमिताभ घोष या अमित चौधुरी अंग्रेजी में कहानियाँ और उपन्यास लिखकर शोहरत और समाचार की सुर्खियों में छा जाते हैं तो हम प्रशंसा एवम् गर्व से फूले नहीं समाते। अंगरेजी में लिखते हैं तो क्या हुआ, बंगाल, भारत या बांग्ला देश की ही बातें लिखी हैं इन्होंने। हममें से कोई कोई दबी या ऊँची आवाज में निन्दात्मक टिप्पणियाँ भी करते सुने जाते हैं कि उन्होंने बंगाल, भारत या बांग्ला देश और भारतीयता को विदेशी बाजारों में असबाब में बदल दिया है। लेकिन जब हम पढ़ते हैं कि तथाकथित ऐंग्लोइण्डियन साहित्य का मुख्य स्रोत, सलमान रुशदी के शब्दों में imaginary homeland के लिए छटपटाहट  है अथवा जब झुम्पा लाहिड़ी से उनके देश का नाम पूछे जाने पर वे कहती हैं कि तीस साल विदेश में बिताने के बावजूद उनके माता-पिता का देश आज भी भारत ही है. तो इतिहास की कौतुकप्रियता और अपने को दुहराते रहने की प्रवणता पर हमारा ध्यान नहीं जाता। जब पिछले एक सौ साल के बांग्ला कहानी साहित्य के विवरण में झुम्पा लाहिड़ी की कहानी का भी सुमार किया जाता है तो  हम सबों को स्वतः उस महाकवि माइकेल मधुसूदन दत्त की याद नहीं आती जिन्होंने आप्रवासी नहीं होते हुए भी मिल्टन की तरह  ख्यातिप्राप्त कवि होने का स्वप्न देखा था। पराए धन के लोभ में उन्होंने सारे सुखों को त्याग कर भिक्षावृत्ति अपनाकर विदेश भ्रमण किया था, जिसके सपने में अन्त में प्रकट होकर कुललक्ष्मी भाषाजननी ने खजाना उड़ेल दिया था।

“शास्त्रों में कहा गया है, परजन अगर गुणवान हों, और स्वजन गुणहीन, तो भी गुणहीन स्वजन श्रेय होते हैं पराए हमेशा पराए ही रहते हैं।“

माइकेल बांग्ला भाषा के एक अनिवार्य द्वन्द्व का नाम है। उन्होंने घर में रहते हुए भी, अपने जीवन के पारम्भिक भाग में विदेश को, घर समझा था। झुम्पा जैसे लोग विदेश में रहते हुए भी इस भारत की मिट्टी में एक काल्पनिक घर तलाशते रहते हैं। माइकेल ने अन्ततः विदेशी भाषा की मेहमानवाजी स्वीकार नहीं की, उन्हें यह भिक्षावृत्ति लगी थी। आज झुम्पा लोग अंगरेजी भाषा का उपयोग भिक्षुक की भाँति नहीं, राजा के अधिकार से करते हैं। जरूरत पड़ने पर ये दाता की भूमिका लेने से भी नहीं हिचकिचाते। इनकी अंगरेजी में अकसर ही अनियन्त्रित तौर पर बांग्ला और भारतीय भाषाओं के शब्द और मुहावरे घुस आते हैं। अंगरेजी भाषा यह दान ग्रहण करे या न करे, इससे उनको कोई फर्क नहीं पड़ता। हो सकता है पराधीन देश के कवि होने के कारण माइकेल को यह भिक्षावृत्ति लगी हो और आज देश स्वाधीन है इसीलिए आप्रवासी झुम्पा- अमित-अमिताभ लोगों के लिए अंगरेजी में लिखना अपने अधिकार का उपयोग करने जैसा है। लेकिन इतिहास की यह पुनरावृत्ति विस्मयकर है कि आज भी ये झुम्पा- अमित-अमिताभ भारत के प्रति नॉस्टाल्जिक माया से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं।

इस तरह एक अनिवार्य,अमोघ द्वान्द्विक सम्पर्क भारतीय भाषाओं के इतिहास में अंगरेजी भाषा के साथ गुँथ गया है। आज की अधिकतर आधुनिक भारतीय भाषाओं के प्रारम्भिक प्रधान साहित्यकर्म अंगरेजों के जमाने में ही रचे गए थे। इन साहित्यकर्मों ने ही इन भारतीय भाषाओं के वर्तमान स्वरूप का निर्द्धारण किया है।  अंगरेजी का आधुनिक भारतीय भाषाओं के साथ गम्भीर द्वन्द्वात्मक सम्पर्क रहा है। जो अंगरेज अपने अन्यायपूर्ण आचरण, अमानविकता, स्वार्थपरता शोषणपूर्ण शासन और पीड़ा देने की प्रवृत्ति के कारण हमारे लिए असह्य थे उन्हीं अंगरेजों की भाषा एवम् साहित्य के जादुई आकर्षण से हम अपने को बचा भी नहीं पाते थे।

द्वन्द्व प्रगति का सूत्रपात करता है। इसीलिए इस विदेशी भाषा के साथ, ऐतिहासिक कारणों से ही, हमारी भाषा के साथ जितने गहरे द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध में हमारी भाषा बँधती गई, उसी अनुपात में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उसकी प्रगति होती रही है। नए नए रास्ते उभड़ते गए हैं। यहाँ तक कि अंगरेजी के प्रभाव को पूरी तरह नकारते हुए भी भारतीय भाषाओं में जो कुछ लिखा गया है, वह भी इसी द्वन्द्वमय इतिहास के कारण ही सम्भव हुआ है।

इसीलिए आज मध्य वर्ग के अभिभावकों को अपने बच्चों के लिए एकमात्र अंगरेजी माध्यम स्कूलों का विकल्प होना इतिहास का परिहास ही है। जब अंगरेज हमारे देश में थे, तो हमारा गन्तव्य था आत्म-आविष्कार, आत्म उन्मोचन,एवम् स्वभाषा के स्वरूप का उद्घाटन। उस वक्त मातृभाषा का आविष्कार और लालनपालन हमारे कारागार की कुञ्जी थी।  आलफॉसा दॉयत (Alphonse Daudet ) की कहानी का वाक्य, “ When a people are enslaved, as long as they hold fast to their language, it is as if they have the key  to their prison.”

और आज जब अंगरेज हमारे देश में नहीं हैं, हमारा गन्तव्य है आत्म-विस्मरण, आत्मावलुप्ति, एवम् स्वभाषा के प्रति अवज्ञा। अंगरेज हमारे सामने थे तो हम स्वदेश, स्वभाषा की तलाश करते थे। जब अंगरेज हमसे दूर हैं , हम विदेश के लिए हा-हुताश कर रहे हैं।

सामने नहीं होने के बावजूद अंगरेज और अंगरेजी हम लोगों के बहुत निकट ही हैं. ब्रिटिश के रूप में उतना नहीं जितना अमेरिका के रूप में। प्रथम विश्व की भ्रुकुटि के रूप में है, बहुराष्ट्रीय संस्थाओं के    सर्वभक्षी भूख के रूप में है ,हमारी पूँजी एवम् भाग्य के नियन्ता के रूप में नेपथ्य या प्रत्यक्ष में है। भूमण्डलीकरण के फॉर्मूला में, केबल टी.वी. के मनोहारी स्वर्णमृग चैनेल सृष्टि में, विज्ञापन विपणन की चकाचौंध में है। चाटुकारिता की हमारी प्रवृत्ति में है। जब हम पराधीन थे, हमारा रक्त स्वाधीन था, कम से कम स्वाधीनताकामी तो था ही। आज जब हमारा देश स्वाधीन है, हमारा रक्त विदेश का गुलाम है। माँ की भाषा भूलकर केवल अंगरेजी पढ़ाने की इच्छा रखकर हम मातृभाषा के साथ अंगरेजी के ऐतिहासिक द्वन्द्वात्मक पृष्ठभूमि को ही भूल रहे हैं। हमें उपलब्धि और आश्वस्ति का एहसास होता है कि हमारे बच्चे मातृभाषा में काम चलाउ जानकारी रखने के बावजूद अंगरेजी पर पूरी दखल रखते हैं। इन्हें वर्णमाला ही नहीं मालूम तो ये हिन्दी, बांग्ला पढ़ेगे कैसे। जैसे भारत के स्वाधीनता संग्राम के शत्रु रायबहादुर, खाँ बहादुर उपाधियों के उम्मीदवारों का नई पृष्ठभूमि में, नए कलेवर में पुनरुत्थान हुआ है।

लेकिन हमारी नई पीढ़ी जो अंगरेजी पढ़ रही है, वह उसका परिचय अंगरेजी साहित्य से नहीं करा पाती। वह भाषा नितान्त काम काज की भाषा है, रोजगार की भाषा, इस अंगरेजी में प्राण नहीं होता। हम अपनी भावी पीढ़ी के मन की खिड़की खोल देने के लिए अंगरेजी नहीं सिखा रहे हैं। अंगरेजी सीखने से वे अच्छा रोजगार कर सकेंगे, इतना ही हमारा अभीष्ट है।

शिक्षा-व्यवस्था का जीविका-केन्द्रित होना कोई हमारे काल-खण्ड की ही खासियत नहीं है, अंगरेजों के समय भी ऐसा ही था। इसके पहले जीविकोपार्जन के लिए फारसी, उर्दू पढ़ना पड़ता था। लेकिन तब जीविका के लिए जरूरत होने के साथ साथ शिक्षा भाषा-केन्द्रिक थी। स्वयम् की अभिव्यक्ति करने का माध्यम भाषा होती है। इसीलिए भाषा-केन्द्रिक शिक्षा मनुष्य को आत्माभिव्यक्ति का अवसर उपलब्ध कराती थी। चूँकि हम मातृभाषा में सबसे सहज रूप से आत्माभिव्यक्ति कर पाते हैं, हमारा तब का अंगरेजी ज्ञान मातृभाषा को भूलकर नहीं , उसके साथ उस विदेशी भाषा के पठन पाठन को सेतु की तरह जोड़े रहकर हुआ करता था। अनिवार्यतः हमारी मातृभाषा एवम् विदेशी भाषा के बीच का द्वन्द्व अटूट रहता था।

आज चूँकि भाषा हमारी शिक्षा व्यवस्था के हाशिए पर ही है, हमारे द्वारा अपनी सन्तान को उतना ही भाषाज्ञान हस्तान्तरित हो रहा है, जो उनकी जीविकार्जन के लिए सहायक हो। आज भाषाज्ञान ऐसी कोई जरूरी उपलब्धि नहीं है। आत्माभिव्यक्ति की छटपटाहट, आकुलता आज हमारे पास मूल्यहीन है। अंगरेजी के साथ अपनी मातृभाषा के उस द्वान्द्विक  सह अस्तित्व को अपने भविष्य की आँखों से हमने मिटा दिया है। आज हम अंगरेजी भाषा के निकट समर्पित हैं और समर्पण द्वन्द्व का दुश्मन होता है। एक अवलोकन के अनुसार पाठ्य पुस्तकों की रचना इतनी त्रुटिपूर्ण होती है कि छात्रों में भाषा अध्ययन के प्रति प्रवणता संचारित नहीं हो पाती। लेकिन इन्हीं पाठ्यपुस्तकों से छात्र प्राणरस से अपने को प्रेरित कर सकते थे। इसकी वजह थी कि उनमें इस रस की पिपासा थी। आज के छात्रों में वह प्राणपिपासा नहीं है। हकीकत तो यह है कि जीवन के मायनी तलाशने की बेचैनी,सन्धानहीनता हमारे कालखण्ड की विशिष्ठता है। मात्र इसी बेचैनी की प्रबलता ने उन्नीसवीं सदी के रूसी साहित्य में हमें अनेकों अमर उपन्यासों का उपहार दिया है। और सिर्फ इस बेचैनी के अभाव में हमारी मातृभाषा हमारे लिए सौतेली माँ के समान हो गई है। भाषा केन्द्रिक शिक्षा उस युग में ही सफल हो पाती है जब आत्मप्रकाश अपनी अनुभूति की अभिव्यक्ति की आकांक्षा प्रबल हो रहती है। हमारा कालखण्ड पहले की तुलना में आत्मप्रकाश, आविष्कार, उन्मोचन की दिशा में उस तरह बेचैन नहीं है। आत्मप्रकाश के लिए छटपटाहट की अनुपस्थिति के कारण ही हम भाषा के प्रति उदासीन हैं।

अहिन्दी भाषाई क्षेत्रों में अंगरेजी के अलावे हिन्दी को भी सम्बन्धित क्षेत्रीय भाषा के पठन-पाठन में परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से अवरोधकारी की संज्ञा दी गई है। स्वान्त्र्योत्तर भारत में हिन्दी को राजभाषा के रूप में चिह्नित किया गया, समझा गया कि यह अंगरेजी की जगह लेगी। दुर्भाग्यजनक रूप में अहिन्दी भाषाई लोगों को लगा कि  औपनिवेशिक काल में अंगरेजी की तरह अब हिन्दी उनके उपर लादी जा रही है। अंगरेजी बाहर की दुनिया के साथ हमारे सम्पर्क की खिड़की बन गई थी। क्षेत्रीय भाषाओं की हिन्दी के साथ उस तरह की गठनमूलक या द्वन्द्वात्मक आत्मीयता विकसित नहीं हो पाई। राजनैतिक कुटिलावर्त नहीं रहने पर हिन्दी का क्षेत्रीय भाषों के साथ निकट संयोग स्थापित हो सकता था। इसका प्रमाण रोज रोज विभिन्न सांस्कृतिक, वाणिज्यिक गतिविधियों में देखा जा रहा है।

एक सवाल है, भावी पीढ़ी को मातृभाषा क्यों पढ़नी चाहिए? इसका जवाब होगा कि मातृभाषा नहीं जानने से आत्म परिचय सम्पूर्ण नहीं होता। भारत की तरह के बहुभाषिक राष्ट्र के किसी खास जनपद के किसी व्यक्ति या समूह का प्राथमिक परिचय उसका आंचलिक या प्रादेशिक परिचय होता है। उसे यह परिचय अपनी मातृभाषा से मिलता है। भारतीय भाषा के साथ जब उसका द्वन्द्वात्मक याबहुमात्रिक सम्पर्क कायम होता है तो उसका देशी परिचय तात्विक स्तर पर भी प्रतिष्ठित होता है।और विदेशी भाषा की शिक्षा एवम् साहित्य पाठ उसमें विश्वनागरिकता का बोध पैदा करता है। इस प्रबन्ध की शुरुआत ऐंग्लो इण्डियन  लेखकों की चर्चा से हुई है जो विश्वनागरिक होने के बावजूद, विदेशी भाषा को मातृभाषा की तरह सहजता से उपयोग करने के बावजूद असम्पूर्णता बोध के एहसास से पीड़ित हैं। इसका परिचय हमें उनके साहित्यकर्म से मिलता है। अर्थात् विश्वनागरिकता भी मातृभाषा मुखापेक्षी होने से नहीं रोक सकती। ऐसा हो ही सकता है कि कोई सोचे कि आत्मपरिचय फरिचय बुद्धिजीवियों का बुद्धिविलास है, साधारण लोगों को इन पचड़ों में पड़ने की जरूरत नहीं है।

कदाचित् आपने लक्ष्य किया हो कि मातृभाषा में शिक्षाग्रहण करने के प्रसंग में मैंने अंगरेजी माध्यम बनाम हिन्दी बांग्ला माध्यम स्कूलो के विवाद से इस चर्चा को सावधानी से अलग रखा है। मेरे विचार से  चूँकि आज की शिक्षाव्यवस्था के मर्म में भाषाकेन्द्रिकता या भाषा-मनस्कता या आत्मप्रकाश के लिए उपयोगी भाषाज्ञान अनुपस्थित है ,स्कूल की पढ़ाई से सही भाषाज्ञान होना सम्भव नहीं है।

मेरे खयाल में साहित्य को दरकिनार कर भाषाज्ञान सम्भव नहीं हो सकता।  साहित्य केवल भाषानिर्भर शिल्प नहीं होता। साहित्य का इतिहास भाषा के क्रमिक विकास का भी इतिहास होता है। प्राचीन काल से लोकगीतों और लोकोक्तियों के अज्ञात, अनाम रचनाकारों से आज के प्रतिष्ठित, अविस्मरणीय एवम् विख्यात कवियों एवम् साहित्यकार साक्षी हैं— शिशुओं का मातृभाषा ज्ञान साहित्य के रास्ते से ही सहज रूप से अनायास ही अग्रसर होता रह सकता है। साहित्य ,साहित्य एवम् साहित्य——- भाषाशिक्षा के क्षेत्र में इसका कोई विकल्प नहीं।

आज भाषाज्ञान के अनेको प्रबल शत्रु हैं। अखबारों की भाषा विकृति, टीवी. चैनलों का भाषा-व्यायाम? हाँ, क्योंकि ये दोनों ही घर के माहौल के साथ जुड़े हुए होते हैं. पढ़े लिखे अभिभावकों में से भी अनेको ऐसे हैं जो समाचारपत्रों की भाषा को प्रामाणिक मानते हैं।

भाषा के इतने सशक्त एवम् प्रभावशाली शत्रु होते हुए भी सबसे अधिक प्रभावशाली शत्रु के रूप में पहचान की जानी चाहिए उस मानसिकता की जो मातृभाषा को भी पराया समझती है, दूसरे की मातृभाषा को अपनी मातृभाषा से बड़ी और जरूरी समझना सिखाती है। इस मानसिकता का स्रोत  मुख्यतः आर्थिक अनिश्चयता में है, लेकिन आंशिक रूप से शायद हमारी चाटुकारिता का मनोवृत्ति में भी। जीवन को सुरक्षित रखने की प्रवणता ने ही तो पारम्परिक शिक्षा के विषयों जैसे बांगला, हिन्दी, अंगरेजी दर्शनशास्त्र, अर्थ शास्त्र, रसायन शास्त्र, जीवविज्ञान इत्यादि का मूल्य कम कर दिया है ।  होटल मैनेजमेंट, व्यवसाय प्रबन्धन इतादि पेशागत विषयों का जन्म हुआ। फिर भी क्या इतना कुछ करने पर भी क्या हमारा जीवन सचमुच में अन्ततः सुरक्षित हो रहा है? सुख का अधिकार अर्जित करने के अभियान छेड़कर हम  दुःख सहने की क्षमता खो रहे हैं।

हम लोगों के लिए कुछ बड़ा करना बहुत कठिन है। बहुत बड़ा हो पाना क्या अब कभी सम्भव होगा?

Posted 2nd December 2016 by prabhat Ranjan

Labels: amitabh dev chaudhuri ganganand jha अमिताभ देव चौधुरी गंगानंद झा

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

तन्हाई का अंधा शिगाफ़ : भाग-10 अंतिम

आप पढ़ रहे हैं तन्हाई का अंधा शिगाफ़। मीना कुमारी की ज़िंदगी, काम और हादसात …

17 comments

  1. Howdy just wanted to give you a quick heads up. The words in your article seem to be running off the screen in Opera.
    I’m not sure if this is a format issue or something to do with browser compatibility but
    I thought I’d post to let you know. The layout look
    great though! Hope you get the issue resolved soon. Thanks

  2. This article is actually a nice one it helps new web users,
    who are wishing in favor of blogging.

  3. Can I show my graceful appreciation and show my inside to really good
    stuff and if you want to have a checkout Let me tell you a brief about how to get
    connected to girls for free I am always here for yall you know that right?

  4. Гамма казино — это новое онлайн-казино,
    основанное в 2023 году. Казино имеет лицензию от Кюрасао и предлагает своим клиентам более 2000 игр различных категорий от ведущих производителей программного обеспечения.

  5. What’s up to every single one, it’s in fact a nice for me to pay
    a quick visit this website, it contains priceless
    Information.

  6. I for all time emailed this webpage post page to all my associates,
    as if like to read it next my friends will too.

  7. Hi there I am so grateful I found your web site, I really
    found you by accident, while I was searching on Bing for
    something else, Nonetheless I am here now and would just like to
    say thank you for a fantastic post and a all round thrilling
    blog (I also love the theme/design), I don’t have time to read through it all at the minute but I have
    bookmarked it and also included your RSS feeds, so when I have time I
    will be back to read more, Please do keep up the fantastic
    work.

  8. I got this website from my pal who informed me regarding this web site and now this time I am browsing this site and reading
    very informative articles at this time.

  9. excellent issues altogether, you just gained a new reader.
    What might you suggest about your put up that you
    just made a few days in the past? Any certain?

  10. Hi! I simply would like to give you a big thumbs up for your excellent info you’ve got right here on this post.
    I will be returning to your web site for more soon.

  11. Good replies in return of this query with genuine arguments and describing all on the topic of that.

  12. whoah this weblog is great i really like studying your
    posts. Stay up the great work! You recognize, many individuals are hunting round for
    this info, you can aid them greatly.

  13. Remarkable! Its actually remarkable paragraph, I have
    got much clear idea about from this paragraph.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *