होली का पर्व अलग अलग रंगों के एक हो जाने का पर्व है. इसे पहले धर्म से जोर कर नहीं देखा जाता था. प्रसिद्ध लेखक अब्दुल बिस्मिल्लाह के इस लेख से यही पता चलता है- मॉडरेटर
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बनारस की होली का हाल सुनिए, यहाँ, यानी दिल्ली में तो रंग खेलने का समय सुनिश्चित है, मगर जिन दिनों मैं बनारस में था, रंग खेलने का कोई निश्चित समय नहीं था. (अब क्या स्थिति है पता नहीं ), मगर बनारस की खूबी देखिये कि सड़कों पे रंग खेला जा रहा है और वहां के मुसलमान बुनकर खुलेआम बाहर निकलकर इधर-उधर चले जा–आ रहे हैं, पर मजाल है कि कोई उनपर रंग डाल दे. अगर गलती से किसी मुसलमान पर रंग के छीटें पड़ जाए तो वो बुरा नहीं मानता.
बनारस में वैसे तो हमेशा भंग का सेवन होता है. काशी विश्वनाथ मन्दिर में प्रतिदिन सायंकाल शिवलिंग पर भंग चढ़ाई जाती है. आसपास के बाज़ार में वह भांग “प्रसाद” के रूप में बंटती है. मगर होली के अवसर पर उसका आधिक्य हो जाता है. भांग की गोलियां, भांग से बनी ठंडई, भांग की पकौडिया, भांग मिली हुई मिठाईयां….आदि. न जाने कितने रूपों में उसका सेवन होता है.
इसके अतिरिक्त एक बात और. होली की रात में बनारस के ‘अस्सी’ नामक मोहल्ले में एक ऐसा कवि-सम्मलेन होता है जिसमे ऐसी ऐसी अश्लील कविताओं का पाठ होता है, जिन्हें कोई शरीफ आदमी सुन ही नहीं सकता. उस कवि- सम्मेलन में बनारस के नामी-गिरामी लोगों से लेकर तमाम उच्चाधिकारी, विधायकों सांसदों, मंत्रियों तथा उनसे भी ऊपर के लोगों तक को गालियों से नवाज़ा जाता है. इसके बावजूद उस कवि-सम्मलेन में श्रोताओं की भीड़ इतनी अधिक होती है कि ‘अस्सी’ ही नहीं, उससे पीछे और आगे तक की सड़क भी श्रोताओं से भर जाती है.
अब एक और घटना बनारस की ही. मैं बनारस के ‘कोयला बाज़ार’ नामक मोहल्ले में रहता था और ठीक सामने एक हिन्दू परिवार का घर था, जो कांग्रेसी थे, जब हमारा-उनका मिलना घनिष्ठ हो गया, तो उनके घर के लोग हमारे यहाँ आते थे और हम उनके यहाँ जाते थे, यानी उनका हमारा सम्बन्ध पारिवारिक जैसा हो गया था. तब, एक बार होली के दिन हमारे सामने वाले परिवार से दो जवान लड़कियां हमारे यहाँ आईं. उनके हाथों में गुलाल था. उन्होंने मुझसे पूछा, “भाई साहब, (तब मैं अंकल की उम्र का नहीं था ) क्या हम आपको गुलाल लगा सकते हैं?” मैंने कहा, “गुलाल ही क्यूँ तुमलोग चाहो तो मेरे साथ रंग भी खेल सकते हो”. पहले तो वो चकित हुईं, मगर बाद में पूछा, “अगर आप के ऊपर हम रंग डालेंगे तो आप बुरा तो नहीं मानेंगे?” मैंने कहा, “नहीं, बल्कि मुझे तो आनंद आएगा.” इसके बाद वो लड़कियां वापस लौट गईं और थोड़ी ही देर बाद गुलाबी रंग से भरी एक बाल्टी ले आईं और पूरी बाल्टी मेरे ऊपर उड़ेल दी. मैं वाकई गदगद हो गया. उसके बाद तो ये सिलसिला तब तक जारी रहा, जबतक मैं बनारस में था.
अब जरा दिल्ली की होली को देखी. होली के अवसर पर मेरे कई विद्यार्थी शाम को मेरे घर आते थे और मेरे माथे पर गुलाल लगाते थे, मेरे चरण छूकर आशीर्वाद लेते थे. मगर अब कोई नहीं आता. सेवानिवृत होने के बाद विद्यार्थियों से मेरा नाता लगभग टूट सा गया है. मगर होली! अब मैं होली का आनंद नहीं ले पा रहा हूँ, यहाँ यानी दिल्ली में कौन मुझ पर रंग डालेगा और कौन मुझे अबीर-गुलाल लगाएगा? अतः जब भी होली का पर्व आता है मैं उदास हो जाता हूँ.
अंत में एक बात और, कि कुछ तत्वों ने यह धारणा बना ली है कि मुसलमान लोग होली से घृणा करते हैं. अतः मैं इस सन्दर्भ में होली से सम्बंधित दो मुसलमान कवियों की कुछ पंक्तियों को उद्धृत कर रहा हूँ. एक कवि उर्दू का है और दूसरा कवि हिंदी का.
पहले उर्दू के कवि का काव्य चित्रण देखिये. कवि का नाम है: नजीर अकबराबादी. वे लिखते हैं –
हुआ जो आ के निशां आशकार होली का/
बजा रबाब से मिल कर सितार होली का//
इसके आगे –
हर जगह थाल गुलालों से खुशरंग की गुलकारी है/
और ढेर अबीरों के लगाये सो इशरत की तैयारी है//
फिर –
आलम में फिर आई तरब से होली/
फरहत को दिखाती ही गयी शान से होली//
अब जरा हिंदी के एक सूफी कवि मालिक मुहम्मद जायसी को देखिये. वे कहते हैं:
फागुन पवन झखोरा बहा/
चौगुन सिउं जाई नहीं सहा//
तन जस पियर पाट भा मोरा/
तेहि पर बिरह देइ झकझोरा//
+ + + + + + + + + + + + +
चैत बसंता होई थमारी/
मोहिं लेखे संसार उजारी//
+ + + + + + +
बुडी उठे सब तरिवर पाता/
भीजी मजिठी टेसू बन राता/
मो कंह फूल भए सब कांटे/
दिष्टि परत जस लागहिं चांटे//
‘होली का पर्व और विरहिणी की पीड़ा- जायसी की उक्त पंक्तियों में खुद उनकी पीड़ा भी झलकती है. तात्पर्य यह है कि ‘होली’ का पर्व सिर्फ हिन्दुओं का पर्व नहीं है. यह समूचे हिन्दुस्तानियों का पर्व है. इस पर्व में किसी धर्म या जाति का भेदभाव नहीं है. जो लोग इसे सिर्फ हिन्दू का पर्व मानते हैं, वे इसकी गरिमा को कम करके आंकते हैं.
‘कादम्बिनी’ से साभार
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