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मीना कुमारी के ‘आखिरी अढाई दिन’ की दास्तान

आज मीना कुमारी की बरसी है. मुझे याद आई मधुप शर्मा की किताब ‘आखिरी अढाई दिन’ की. मीना कुमारी के आखिरी दिनों को लेकर लिखे गए इस उपन्यास में आत्मकथा की शैली में मीना कुमारी अपनी कथा कहती हैं. कुछ कुछ रामकुमार वर्मा के एकांकी ‘औरंगजेब की आखिरी रात’ की तर्ज़ पर. अब यह किताब मिलती नहीं है. इसका एक अंश मीना कुमारी को श्रद्धांजलि के रूप में. उस मीना कुमारी को जो खुद एक तरह से ट्रेजेडी की पहचान बन गई थी- मॉडरेटर

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“कल मेरी तबियत और भी ज्यादा बिगड़ गई तो खुर्शीद आप ने डॉक्टर को फिर बुला लिया. वो हमेशा की तरह मुस्कुराकर बोला, “कहिये, कैसी हैं मैडम?”

मैंने अपने जज्बात पर काबू पाने की कोशिश करते हुए कहा, “नया कुछ नहीं… सब वही… पुराना. दर्द… जैसे नश्तर सा चुभा रहा हो कोई…सांस लेना भी दुश्वार होता जा रहा है.”

डॉक्टर ने मरी नब्ज देखी. सीने पर स्टेथेस्कोप लगाकर मेरी धड़कन सुनी. हाथों, पैरों और पेट का मुयायना कर चुकने के बाद आपा से मुखातिब हुआ, “इनको फिर से नर्सिंग होम में रखना होगा.”

मैं कुछ देर से आँखें बंद किये खामोश लेटी हुई थी, पर डॉक्टर की बात सुनकर चुप नहीं रहा गया मुझसे. मेरी आवाज में दर्द और उदासी तो घुली हुई थी ही, शायद तल्खी भी आ चुकी थी, जब मैंने कहा, “नहीं, नहीं, अब मुझे कहीं नहीं जाना.”

कुछ देर सन्नाटा सा रहा.

फिर डॉक्टर की ही आवाज सुनाई दी थी. मुझे समझाने के से लहजे में बोला, “देखिये मैडम, आपके हाथों, पैरों और चेहरे पर आज भी कुछ ज्यादा सूजन है. पेट में भी पानी बहुत भर गया है, जिसका निकाला जाना बहुत जरूरी है. नर्सिंग होम में इलाज बेहतर और आसानी से हो सकेगा. …मैं आपका खैरख्वाह हूँ, कोई गलत राय थोड़े ही दूंगा आपको.”

कुछ देर बाद किसी बच्चे को मीठी गोलियां थमाकर बहलाने के से अंदाज़ में डॉक्टर ने कहा था, “मैडम, मैं आपको किसी और अस्पताल में ले जाने की बात थोड़े ही कर रहा हूँ. वहीं चलेंगे आपके देखे भाले पसंदीदा सेंट एलिजाबेथ नर्सिंग होम में. वहां तो आप कई बार जा चुकी हैं, और कुछ ही दिनों में हंसती-मुस्कुराती लौटी हैं, ठीक होकर. वहां के तो सारे डॉक्टर्स और नर्सें भी आपकी बड़ी फैन हैं. बहुत चाहते हैं आपको. आपने तो खुद भी दो-एक बार कहा है कि वहां बिलकुल घर के से माहौल का अहसास होता है आपको.”

मैं सोच रही थी, कैसे समझाऊँ डॉक्टर को कि वक्त के साथ साथ अहसास भी बदलते रहते हैं, कि अब न कुछ कहने सुनने की चाहत है दिल में, न ही ताकत इस सूखे हुए कमजोर हलक में. मैं कैसे बताऊँ इसे कि मरीज भी अगर बिना घबराए अपने आपको परवरदिगार की मर्जी पर छोड़ दे, तो उसे अपनी मौत के फरिश्तों की आहट काफी पहले सुनाई दे जाती है. मैं भी अगर इस वक्त कहूं कि मैं वो आहट सुन चुकी हूँ, कई दिनों से मुझे लग रहा है कि मेरे आखिर सफ़र का वक्त आ चुका है… घर में रहूँ या नर्सिंग होम में…

 

 
      

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