हुआ यूँ कि जानी मानी थिएटर आर्टिस्ट/लेखिका विभा रानी ब्रेस्ट कैंसर की शिकार हुईं और अपनी मजबूत जिजीविषा के कारण इस बीमारी से उबर भी गईं। लेकिन बीमारी के दौरान वो अपने मन की बात काग़ज़ों पर दर्ज़ करती रहीं। वो बातें, एक कविता संग्रह के रूप में प्रकाशित हुई हैं। संग्रह का नाम है- समरथ। दरअसल, ‘समरथ’ उस निजी अनुभव का बयान है, जो व्यक्ति को व्यक्ति के रूप में और परिपक्व करता है। किताब से गुज़रते हुए कुछ बातें- त्रिपुरारि
समय ने छेड़ी है एक नई तान
देह में दिए हैं अनगिन विरहा गान
मन की सीप में बंद हैं
कई बूँद- स्वाति के!
सबको समेटने और सहेजने को आतुर
व्याकुल, उत्सुक
यह मैं ही हूँ न!
ये पंक्तियाँ एक तरह का एक्सेप्टेंस है, जो उम्र के एक ख़ास पड़ाव पर,जीवन जीने का फॉर्मुला बन जाता है। यही एक्सेप्टेंस मन के दायरे से बाहर जाकर परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाने की क्षमता देता है। फिर दुख, दुख नहीं बल्कि विरह का एक गीत बन जाता है, जिसे गाने के लिए हर एक कंठ आतुर हो उठता है।
लेकिन क्या जीवन में इस तरह का एक्सेप्टेंस अपने आप आ जाता है? शायद नहीं। इस एक्सेप्टेंस के लिए एक विशेष तैयारी की आवश्यकता पड़ती है। यह तैयारी उतने ही साफ़ मन और उत्साह से होना चाहिए, जितने साफ़ मन और उत्साह से कोई शर्मीली लड़की अपने ब्याह की तैयारी करती है। इसी साफ़ मन से एक आवाज़ यह भी आती है-
पड़ गए शगुन के पीले चावल
चलो, उठाओ कोई गीत
गाँठ हल्दी तो है नहीं
जो पिघल ही जाएगी
कभी न कभी बर्फ़ की तरह।
कम से कम इतना उत्साह तो चाहिए ही कैंसर जैसी बीमारी से दो हाथ करने के लिए। जिस तरह बेटी की शादी में गीत गाती माँ के सुरों में पिता का मन मिश्रित हो जाता है, उसी तरह कैंसर को उत्सव मानकर गीत गाता हुआ मरीज कैंसर को भी इस उत्सव में शामिल कर लेता है। तभी मस्ती की एक लय निकलती है, जो कहती है-
गाँठ गाने लगी
आँखों की नदी की लहरों की ताल पर
हैया हो… हैया हो…
माझी गहो पतवार, हैया हो…
उत्सव मनाना एक बात है, और उत्सव के सारे विधि-विधान में सम्मिलित होना दूसरी बात है। यानी इलाज की प्रक्रिया से गुज़रना। जिसमें तकलीफ़ भरे रास्तों से गुज़रने से लेकर अपनी सम्वेदना के खोने तक का एहसास उपस्थित होता है। उम्र का अनुभव बताता है कि किशोरावस्था जब यौवन का संदेश लाती है तो इसे पढ़वाने के लिए सबसे पहले हम दर्पण के पास ही जाते हैं। देह में एक झुनझुनी सी होती है। हर तरफ़ से लाज घेर लेता है। लेकिन बीमारी के दौरान यही लाज अपनी गरिमा न खोने के साथ किस तरह से रूपांतरण होता है। इसका एक उदाहरण-
खुल जाते हैं चोली के बंद
बार-बार लगातार
सूख जाती है लाज हया की गंगा
बैशाख जेठ की गर्मी सी
ख़तम हो जाती है लोक-लाज की गठरी
आँखों में बैठ जाता है सूखे काँटे सा
कैंसर!
उघाड़ते-उघारते
जाँच कराते कराते
सम्वेदनहीन हो जाता है डॉक्टर संग मरीज भी
सम्वेदनहीन हो जाना भी मन का एक तल है। इस तल पर भी जीवन के उत्सव में कोई कमी नहीं आती। जब मरीज कहता है-
मन से बस इतना कहो
यह सबकुछ जो है, अपना है अपना!
जिएँगे इसी अपने की धूप-छाँह के संग
कैंसर हो या काली रात!
या फिर-
आओ मनाएँ जश्न
कैंसर के राग का
केमो के फाग का
यक़ीनन इसी से निकलेगा
राग जीवन का!
सच तो ये है कि हर एक स्थिति में जीवन को भोगने की मानसिकता ही जीवन को उत्सव में बदल देती है। अगर हम ध्यान से देखें तो इस उत्सव के पीछे एक पीड़ा भी है। और हो भी क्यों न? बिना पीड़ा के उत्सव का आनंद भी तो नहीं। ठीक उसी तरह जैसे मुस्कुराती हुई आँखों के पीछे स्वप्न की एक गीली ज़मीन होती है। यह पीड़ा बहुत ही संतुलित तरीके से शब्दों के पीछे छुप गई है-
आप मानें या न मानें
पल भर को हो तो जाता है
भीगे कम्बल सा भारी माहौल
सूखे मलमल सा हल्का भी
जब डॉक्टर करता है मज़ाक
एक हल्की मुस्कान के साथ—
‘वेलकम टू दि वर्ल्ड ऑफ़ कैंसर’
और जब मन ‘वर्ल्ड ऑफ़ कैंसर’ में प्रवेश करता है तो उसका सबसे पहला अनुभव कुछ इस तरह से है-
कर्क का छोट सा बिंदु
फैलते फैलते बन जाता है विशाल वृत
देह देखने की साध दम तोड़ देती है
मन के किसी कोने में।
बजता है दूर कहीं अंतर्मन का राग!
सबसे अच्छी बात ये है कि किसी भी तरह से मरीज हार मानने को तैयार नहीं है। और यही वजह है कि जब अपने आप से दूरी बनाने का जी हो, तब भी मन के किसी कोने में एक राग पैदा हो जाता है। जिसके सहारे यात्रा निरंतर बनी रहती है। इस यात्रा में जो दूसरे सहयात्री मिलते हैं, उनके मन की बात भी दर्ज़ होती है। जैसे-
चार साल पहले हुई थी शादी
दो साल से कराया इलाज फर्टिलिटी का
मिल गया होर्मोंस के इलाज संग
ब्रेस्ट कैंसर का उपहार
और ले गया एक पूरा ब्रेस्ट
सूद के साथ।
एक और उदाहरण-
जुट गई हूँ मैं जीवन के खेत में
बनकर हल और बैल।
दफ़न करती कैंसर की आग को
जगाती जीवन की आग के दहकते फूल को
मैं तैयार हूँ और भाग रही हूँ
एक अहेरी बन
यहाँ-वहाँ… वहाँ-यहाँ!
कैंसर को जीने का बहाना बना लेना। फिर उस बहाने को जुनून में ढाल देना यह सबके बस की बात नहीं है। इतनी हिम्मत, इतना जज़्बा जिसके पास है वही ताल ठोक कर इसे चुनौती दे सकता है और जीत भी सकता है। दरअसल, एक औरत और उसकी जिजीविषा को समझने के लिए औरत का मन चाहिए। अंत में यह सवाल, जिसका जवाब आप ख़ुद से पूछिए-
औरतों की दुनिया कितनी संगीतमय होती है!
साज़ के इन सुरों को क्या कभी बंद कर पाएगा
कैंसर का कर्क-राग?
शुक्रिया त्रिपुरारी। आज तुमने मुझे एक बहुत सुखद संवेदना दी है ।जानकीपुल और प्रभात रंजन का भी आभार । जानकीपुल और प्रभात रंजन हमारी इस यात्रा के साथी बहुत पहले से ही रहे हैं । कई कविताएं उन्होंने छापी हैं । आज तुम्हारे साथ मिलकर उन्होंने मुझे सचमुच कैंसर का राग गाने की अनमोल खुशी दी है और मैं और भी मन से मजबूत हुई हूं । यूं ही साथ बने रहो। साथ चलते रहो । सारी यात्राएं ऐसे ही तय होती रहेंगी।