हिंदी सिनेमा की भाषा को लेकर हाल के वर्षों में रविकांत न महत्वपूर्ण काम किया है. उनका यह ताजा लेख पढ़ा तो तुरंत साझा करने का मन हुआ- मॉडरेटर.
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हालाँकि फ़िल्म हिन्दी में बन रही है, लेकिन (ओंकारा के) सेट पर कम–से–कम पाँच भाषाएँ इस्तेमाल हो रही हैं। निर्देशन के लिए अंग्रेज़ी, और हिन्दी चल रही है। संवाद सारे हिन्दी की एक बोली में हैं। पैसे लगानेवाले गुजराती में बातें करते हैं, सेट के कर्मचारी मराठी बोलते हैं, जबकि तमाम चुटकुले पंजाबी के हैं।
– स्टीफ़ेन ऑल्टर, फ़ैन्टेसीज़ ऑफ़ अ बॉलीवुड लव थीफ़
पिछले सौ साल के तथाकथित ‘हिंदी सिनेमा‘ में इस्तेमाल होनेवाली भाषा पर सोचते हुए फ़ौरन तो यह कहना पड़ता है कि बदलाव इसकी एक सनातन–सी प्रवृत्ति है, इसलिए कोई एक भाषायी विशेषण इसके तमाम चरणों पर चस्पाँ नहीं होता है। आजकल ‘बॉलीवुड‘ का इस्तेमाल आम हो चला है, गोकि इसके सर्वकालिक प्रयोग के औचित्य पर मुख़ालिफ़त की आवाज़ें विद्वानों के आलेखों और फ़िल्मकारों की उक्तियों में अक्सरहाँ पढ़ी–सुनी जा सकती हैं।[1]ग़ौर से देखा जाए तो बंबई फ़िल्म उद्योग के लिए ‘बॉलीवुड‘ शब्द की लोकप्रियता और सिने–शब्दावली में ‘हिंगलिश‘ की प्रचुरता एक ही दौर के उत्पाद हैं, और यह महज़ संयोग नहीं है। हालाँकि सिने–इतिहास में हमें शुरुआती दौर से ही अंग्रेज़ी के अल्फ़ाज़, मिसाल के तौर पर तीस और चालीस के दशक तक बड़ी मात्रा में प्रयुक्त दुभाषी फ़िल्मी नामों में, मिलते रहे हैं। लेकिन होता ये है कि एक दौर की लोकप्रिय या विजयी शब्दावली पूरे इतिहास पर लागू कर दी जाती है, जिससे एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रक्रिया, और उसके भाषायी अवशेष, इतिहास के कूड़ेदान में चले जाते हैं। मसलन अब एक स्थानवाची शब्द लें: एक शहर का बंबई से मुंबई बनना एक हालिया और औपचारिक/सरकारी सच है, एक हद तक सामाजिक भी, वैसे ही जैसे कि हम जिसे ‘बंबई फ़िल्म उद्योग‘ कहते आए हैं, वह भी एक ऐतिहासिक तथ्य रहा है, लेकिन हमें इस बात की भी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि आज़ादी से पहले, बंबई के सर्वप्रमुख केन्द्र के तौर पर स्थापित होने से पहले, पुणे, कलकत्ता, लाहौर, मद्रास और कुछ हद तक दिल्ली भी सिने–उत्पादन के केन्द्र रह चुके थे।
यही बात ‘हिन्दी‘ विशेषण पर लागू होती है, और भले ही हम सिने–भाषा के लिए ‘ऑल काइन्ड्स ऑफ़ हिन्दी‘[2]कहकर अपनी ओर से दरियादिली का परिचय दे रहे होते हैं, पर दरअसल हम हिन्दी की आड़ में कई दशकों में फैले उर्दू के ऐतिहासिक वर्चस्व को या तो नज़रअंदाज़ कर रहे होते हैं, या फिर अपनी साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षा की नुमाइश कर रहे होते हैं। ऐतिहासिक तौर पर फ़िल्म उद्योग के लिए ‘हिंदी‘ विशेषण पर सर्वसम्मति न होने की वजह से भी ‘बंबई फ़िल्म उद्योग‘ चल पड़ा, और अब ‘बॉलीवुड‘ चल निकला है, और अगर तमाम तरह के सबूत और गवाहों के बयानात के बावजूद फ़िल्म एनसाइक्लोपीडिया में अगर सिर्फ़ पाँच फ़िल्में ‘उर्दू‘ की औपचारिक कोटि में आ पायीं[3], यदि मुग़ल–ए–आज़म के निर्माता–निर्देशक ने सेंसर बोर्ड से हिन्दी नाम का सर्टिफ़िकेट हासिल करना उचित समझा, तो यह आज़ादी/बँटवारे के बाद के माहौल के एक त्रासद सामाजिक तथ्य के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसमें भाषा–विशेष को उसका अपना नाम देना न तो मुमकिन समझा गया, न मुफ़ीद। समझौते की एक कोशिश ‘हिंदुस्तानी‘ नामक व्यक्तिवाची संज्ञा/विशेषण में देखने को मिलती है, जिसे न सिर्फ़ महात्मा गांधी और एक हद तक कॉन्ग्रेस का वरदहस्त मिला हुआ था, बल्कि जिस पर अंग्रेज़ बहादुर की सरकारी मुहर भी लगी हुई थी, और जो वाक़ई हिन्दी–उर्दू के दरमियान फैले विस्तृत ‘नोमैन्स लैण्ड‘ की ज़बान थी। लेकिन हिन्दी–उर्दू के बीच छिड़ी हुई जंग में उसका हश्र तो वही होना था जो ‘टोबा टेक सिंह‘ – व्यक्ति और जगह – का हुआ।[4]
भाषायी इतिहास में यह जंग का रूपक भी कमाल का है: जिस तरह युद्ध में एक विजयी फ़ौज दुश्मन के एक भूभाग पर क़ब्ज़ा जमाकर अगले का रुख़ करती है, उसी तरह अगर हम हिन्दुस्तान में हिन्दी–उर्दू के बीच सिनेमा की पैदाइश से पहले से चल रही जंग की रणनीति को देखने की कोशिश करेंगे तो दिलचस्प परिणाम मिलेंगे। हिन्दी की फ़ौज ने पहले कचहरियों और दीगर सरकारी महकमों पर अपना क़ब्ज़ा जमाया, आहिस्ता–आहिस्ता छपाई यानि अदबी इदारों पर अपना प्रभुत्व क़ायम किया, फिर उसने अपना रुख़ पारसी नाटक, सिनेमा और रेडियो की ओर किया। तक़सीम–ए–हिंद इस जंग का एक ज़रूरी पड़ाव था, पाकिस्तान की सृष्टि एक पुष्टि थी कि जंग जायज़ थी। जायज़ और असमाप्त, सांस्कृतिक तौर पर जिसे जारी रहना था: तभी तो आज़ादी के बाद इन संथाओं की निर्मम साफ़–सफ़ाई की गई, ताकि पतनशील उर्दू–हिंदुस्तानी संस्कारों की कोई दुर्गंध तक शेष न बचे। सांस्कृतिक निर्मलता और राष्ट्रवादी बाड़ाबंदी की मुहिम में पाकिस्तानी सरकार का उत्साह भी भारत से बहुत ज़्यादा अलग नहीं था।
दिलचस्प यह है कि हम छोटे–मोटे डेटाबेस से छिटका–छाँव सबूत का इस्तेमाल कर, जहँ–तहँ खद्योत प्रकाश करते हुए चाहे जो साबित कर डालें, और सिनेमा के लंबे इतिहास को अगर समग्रता में न सही, उसके वृहत्तर कलेवर में देखें, तो मानना पड़ेगा कि लोकप्रिय कलाओं में उस मिली–जुली, बिचौलिया, ज़ुबान का क़ायम रहना इस बात की भी ताईद करता है कि नाम बदल देने से ज़बान की रियाज़तें अचानक नहीं बदल जातीं, बल्कि धीरे–धीरे बदलती हैं और इन पर शुद्धतावादी हुक्मरानी अक्सर चलती नहीं है। यही वजह है कि पाकिस्तान में आज भी आपको शास्त्रीय संगीत के हिंदू धार्मिक बोल सुनने को मिल जाएँगे[5], वहाँ की ग़ज़लों और क़व्वालियों के करोड़ों मुरीद यहाँ मिल जाएँगे, और कहने की ज़रूरत नहीं बच जाती कि इन सबको जगह देने वाले ‘हिन्दी‘ सिनेमा को यहाँ–वहाँ–जहाँ–तहाँ सब जगह सराहा जाता रहा है। दिवंगत पंडित नरेन्द्र शर्मा ने यहाँ पुनर्प्रकाशित अपने लेख में एक मार्के की बात कही थी कि सिनेमा लोक–संस्कृति का धरोहर–व्यवसाय है। चिर–नवीनता उसकी फ़ितरत है, और नवइयत की सतत तलाश उसे नानाविध सामाजिक–सांस्कृतिक–भाषायी स्रोतों से सामग्री उठाने पर मजबूर करती है। यहाँ यह सवाल फिर सिर उठाता है कि सिनेमा ने हिन्दी पर उर्दू को तरजीह क्यों दी? वजह बहुत साफ़ है: छपाई तकनीक के आगमन के बाद हिन्दी आहिस्ता–आहिस्ता खड़ी बोली की चाल पर चलते
shaandaar , naak pakd ke padhwa lene waalaa lekh
आलेख ज्ञानवर्द्धक और सुचिंतित है ,हिंदी-उर्दू के काल्पनिक विभाजन का पुरजोर विरोध करने में सक्षम है ।बधाई रविकांत और प्रभात रंजन जी
शुक्रिया प्रमोद जी, प्रमचंद जी।
भाषा की चर्चा में हमारी भावनाएँ जहाँ ज़ोर मारती हैं, उसका व्यापक इस्तेमाल और स्वरूप पर हमारे निजी ख़यालात से तय नहीं होता। मैं सहमत हूँ कि हमें थोड़ी भावनात्मक दूरी बनाकर भाषायी मसलों पर बात करनी चाहिए, ताकि पहले बात तो समझ में आए कि ऐतिहासिक तौर कब क्या और कैसे हुआ। प्रभात रंजन ने जो जानकारी दी उसे पूरा कर दूँ:
नया पथ(जनवरी-जून 2013), संंयुक्तांक: हिंदुस्तानी सिनेमा के सौ बरस.
बाक़ी आलेखों का अनुक्रम, और अंक को हासिल करने का पता यहाँ मौजूद है:
http://jlsindia.blogspot.in/2013/07/blog-post.html
एक बार फिर शुक्रिया
रविकान्त
बेहद शोधपरक, चिंतनपरक, दिलचस्प और पठनीय…
लेख 'नया पथ' के सिनेमा अंक में प्रकाशित हुआ है.
हाँ मेरी यह जानने की इच्छा भी थी कि यह लेख कहाँ प्रकाशित हुआ है। इसका जिक्र यहाँ है नहीं।
भाषा के विकास और उसके बाजार को समझने के लिहाज से उपयोगी लेख है। हिन्दी के इस्तेमाल को लेकर इन दिनों काफी चर्चा है। खासकर रोमन हिन्दी को लेकर। इस चर्चा में भावनाओं का जोर ज्यादा है। वास्तव में जिन कारखानों या टकसालों में भाषा ढल रही है, उनके भीतर जाकर पढ़ने की कोशिश होनी चाहिए। हिन्दी का सबसे सफल बाजार सिनेमा है। इसके बाद मनोरंजन का दूसरा मीडिया है। इसके बाद समाचार मीडिया है। आशा है इसपर अच्छा काम करने वाले लोग सामने आएंगे। यह काम भविष्योन्मुखी है। इसके समांतर हिन्दी के ऐतिहासिक विकास पर अतीत-मुखी काम भी होने चाहिए। सुन्दर।