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स्त्री और पुरुष सामाजिक ग़ैर बराबरी को ख़त्म कर अपने हक़ों के साथ रह पाएंगे?

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विभावरी का यह लेख कुछ महत्वपूर्ण सवालों को उठाने वाला है- मॉडरेटर

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ऐसे समय में जब दुनिया में लोकतंत्र की रहनुमाई करने वाली सबसे बड़ी संस्था के बतौर ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ इस वर्ष के ‘महिला दिवस’ को ‘प्लैनेट 50-50 बाय 2030’ कैम्पेन के तहत ‘वूमेन इन द चेंजिंग वर्ल्ड ऑफ़ वर्क’ की थीम के रूप में मना रहा है ठीक  उसी समय में हमारा देश और समाज महिलाओं की अभिव्यक्ति की आज़ादी के सवालों और अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने वाली महिलाओं के ख़िलाफ़ पितृसत्तात्मक धमकियों और हमलों के खतरे से रु-ब-रु है.

8 मार्च को प्रतीकात्मक तौर पर एक ऐसे दिन के रूप में याद करते हुए जब की दुनिया की तमाम महिलाओं ने अपने हक़ो-हुकूक के लिए अपनी आवाज़ बुलंद की, इस सवाल पर सोचना महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि आज जब की मताधिकार सहित स्त्री के तमाम मानवीय और सामाजिक हक़ों के लिए पश्चिम में शुरू हुई लड़ाई को एक सदी से भी ज़्यादा बीत चुके हैं, एक उभरते हुए लोकतंत्र के रूप में महिला अधिकारों के लिहाज़ से हम किस पायदान पर खड़े हैं? और यह एक सवाल हमें सवालों की अंतहीन श्रृंखला से जोड़ देता है. इन महत्त्वपूर्ण सवालों में से एक बड़ा सवाल यह कि क्या एक ऐसी दुनिया संभव है जहाँ स्त्री और पुरुष सामाजिक ग़ैर बराबरी को ख़त्म कर अपने हक़ों के साथ रह पाएंगे? अगर हाँ तो उसकी राह क्या होगी?

पिछले दिनों इस दुनिया और देश में बेहद महत्त्वपूर्ण घटनाएं घटीं. मैं इन्हें दुर्घटना कहना ज़्यादा उचित मानती हूँ. सोवियत संघ के विघटन और वैश्वीकरण के बाद से विश्व स्तर पर उदारवाद और पूँजीवाद के नेतृत्व कर्ता के रूप में अपनी पहचान क़ायम करने वाले अमेरिका ने एक स्त्री के बरक्स एक ऐसे व्यक्ति को राष्ट्रपति के रूप में चुना जो खुले तौर पर स्त्री विरोधी और साम्प्रदायिक सोच से संचालित है. ठीक इसी तर्ज पर तीन साल पहले हमारे देश ने एक ऐसी पार्टी को सत्तासीन किया जिसकी विचारधारा भी मूल रूप से न सिर्फ स्त्री विरोधी है बल्कि साम्प्रदायिक भी. ज़ाहिर है इन घटनाओं के निहितार्थ सीधे तौर पर स्त्री के हिस्से की आज़ादी अथवा उसके अधिकारों से जुड़ते है.

पिछले दिनों अमेरिका में हुई भारतीय इंजीनियर श्रीनिवास कुचिभोटला और व्यापारी हर्निश पटेल की हत्या का मामला हो अथवा दिल्ली के रामजस कॉलेज में ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्’ द्वारा सेमीनार के लिए आइ महिला वक्ताओं सहित तमाम छात्रों के साथ मारपीट और उनके कपडे फाड़े जाने जैसी घटना या फिर कारगिल शहीद की बेटी गुरमीत कौर द्वारा इसका प्रतिकार किये जाने पर उसे दी गयी गैंग रेप की धमकी! ये तमाम बातें एक लोकतांत्रिक विश्व और देश में सह-अस्तित्व की भावना के ख़त्म होते जाने, लोकतांत्रिक मूल्यों को दरकिनार किये जाने और अभिव्यक्ति की आज़ादी को ख़त्म किये जाने से सीधा सम्बन्ध रखती हैं और सबसे ज़रूरी बात यह कि इस पूरी प्रक्रिया में दोनों ही देशों की सत्तासीन पार्टियों की विचारधारा निर्णायक भूमिका में रही है.

ज़ाहिर है जब तक सत्तासीन वर्ग स्त्रियों के प्रति एक ख़ास तरह के प्रतिक्रियावाद और रूढ़िवाद से संचालित रहेगा महिला अधिकारों के लिए किये जा रहे प्रयास अधूरे रहेंगे।

इस पूरी बहस में धर्म, परिवार और विवाह जैसी वे तमाम संस्थाएं भी सवालों के घेरे में आतीं हैं जिन्होंने स्त्री के दोयम सामाजिक दर्जे को बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है.  स्त्री की ‘पवित्रता’ और उसकी ‘दैहिक शुचिता’ को हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर इन संस्थाओं ने पितृसत्ता का वर्चस्व क़ायम रखने में अहम् योगदान दिया है. इस नुक़्ते से देखें तो कह सकते हैं कि समाज में पितृ सत्ता से संचालित ये तमाम संस्थाएं जब सत्तासीन वर्ग की विचारधारा का अहम् हिस्सा होतीं हैं तो स्त्री के अधिकारों के लिए प्रयासरत परिवर्तन कामी शक्तियों का प्रतिकार सांस्थानिक रूप अख्तियार करता है और लगातार तेज़ होता जाता है. कह सकते है कि  विश्व स्तर पर आज का समय बेहद चुनौतीपूर्ण है  बावजूद इसके कि आज की स्त्री, समाज द्वारा उसके लिए तय की गयी तमाम भूमिकाओं के साथ-साथ ऐसे प्रोफेशंस में भी अपना दखल कायम कर रही है जो कुछ समय पहले तक उसका क्षेत्र नहीं माने जाते थे. शिक्षा प्राप्त कर आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो रही स्त्री जहाँ आज उम्मीद पैदा कर रही है. इतिहास गवाह रहा है कि स्त्रियों ने अपने तमाम सामाजिक, राजनीतिक और नागरिक हक़ों को अपने संघर्षों से हासिल किया है. लेकिन उनके हिस्से का आकाश मिलना अभी बाकी है.

फीमेल फीटिसाइड से लेकर सरोगेसी के सवाल हों या तीन तलाक़ से लेकर राजनीति में आरक्षण का मुद्दा, स्त्री की ‘यौन शुचिता’ से लेकर परिवार में उसकी बराबरी का सवाल हो या बाज़ार द्वारा स्त्री के वस्तुकरण से लेकर उसके खिलाफ यौन हिंसा के प्रश्न; इनके वाजिब हल तभी तलाशे जा सकते हैं जब एक समाज के बतौर हम राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ इन प्रश्नों का न सिर्फ सामना करें बल्कि ईमानदारी और पूर्वग्रह रहित नजरिया विकसित करें। इस प्रक्रिया में स्त्री के प्रति किसी भी प्रकार का रूढ़िवाद अथवा कट्टरपंथी सोच इन सवालों को और कठिन बनाएगा।  ज़ाहिर है संघर्ष लंबा है और कठिनाइयां दुरूह। सबसे मुश्किल बात यह कि धारा के विरुद्ध चल कर अपने अधिकारों तक पहुंचना दुसाध्य कार्य है. सबसे काले समय में रौशनी की तलाश जैसा! यह सच है कि चुनौतियां बड़ी हैं लेकिन उनसे निपटना नामुमकिन नहीं है. ज़रुरत है तो ईमानदार प्रयास और सतत संघर्ष की. पाश की पंक्तियाँ याद आ रही हैं:

हम लड़ेंगे जब तक

दुनिया में लड़ने की ज़रूरत बाक़ी है

जब तक बन्दूक न हुई, तब तक तलवार होगी

जब तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी

लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की ज़रूरत होगी

और हम लड़ेंगे साथी

हम लड़ेंगे

कि लड़े बग़ैर कुछ नहीं मिलता

हम लड़ेंगे

कि अब तक लड़े क्यों नहीं

हम लड़ेंगे

अपनी सज़ा कबूलने के लिए

लड़ते हुए जो मर गए

उनकी याद ज़िन्दा रखने के लिए

हम लड़ेंगे

……………………….

 
      

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3 comments

  1. मैं इस लेख की काफी बातों से सहमत हूँ कि ट्रम्प खाली इसलिए नई जीता क्योंकि उसके आगे हिलेरी थी। हिलेरी के अन्दर भी कमियाँ थी। उसकी हार को उसके केवल स्त्री होने से जोड़ना सरलीकरण करना होगा।

    इसके साथ दूसरी दुर्घटना की बात जो कि है उसमे जिस सरकार को सत्ता मिली है वो इसीलिए नहीं मिली है कि वो स्त्री विरोधी है। वो इसलिए मिली है क्योंकि उससे पहली वाली सरकार नाकामयाब रही है। लोगों के पास कोई विकल्प नहीं था। वरना दूसरे दल के नेताओं के विचार एच आर डी मिनिस्टरी को संभालने वाली महिला के प्रति क्या था ये भी सर्व विदित है। कहने का मतलब ये है कि इधर कोई भी दल दूध का धुला नहीं है। सब में औरतों को दबाने वाले लोग बैठे हैं इसलिए एक दल को साफ़ और दूसरे को स्याह कहना गलत है।

    धर्म और परिवार में औरत के दोयम दर्जे वाली बात से पूर्ण सहमत।

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