अपनी कहानियों और कश्मीर की पृष्ठभूमि पर लिखे गए उपन्यास ‘शिगाफ’ के कारण चर्चा में रहनेवाली लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ किसी परिचय की मोहताज़ नहीं हैं. प्रस्तुत है उनकी रचनाप्रक्रिया– जानकी पुल.
आज साहित्य – जगत अति विषम – ध्रुवीयकण से ग्रस्त है. लिखना, समय के प्रवाह के विरुद्ध बहने जैसा है. मेरे ख्याल से शायद लेखकों की हर पीढ़ी ने आते हुए यही शिकायत की होगी कि हमारा समय, रचना – विरोधी समय है, मगर मेरा अनुभव यह है कि हमारा समय रचना – विरोधी नहीं रचनाकार विरोधी है. किसी समय के नए लेखकों ने व्यापक स्तर पर बाँटे जाने की पीड़ा नही झेली होगी जो हमने झेली है. यकीन मानिए, इस ध्रुवीयकरण से दम घुटता है, हम 200 लेखक से 8 – 8 के समूहों में बँट जाएँगे और एक दिन हिन्दी लेखक की विलुप्त होती प्रजाति पूर्णत: नष्ट हो जाएगी. कला के स्तर पर भी, राजनीति के स्तर पर भी. क्या अब भी कोई रास्ता है कि हम एक अच्छे संयुक्त परिवार की तरह कम से कम बाहर तो ‘एक, संतुष्ट, सौहार्दपूर्ण और ताकतवर परिवार’ की तरह दिखें. हम अंग्रेज़ीदां साहित्योत्सवों पर आँख टेढ़ी करने की जगह, समानांतर कोई आदर्श प्रस्तुत करता हिन्दी का साहित्योत्सव क्यों नहीं मनाएँ ? अपने अपने द्वीपों से निकल कर, धड़ेबाजी से निकल कर. ( विशफुल थिंकिग!!!!)
हम गिने – चुने मुट्ठी भर हिन्दी के लेखक छोटे – छोटे द्वीपों में बँट गए हैं. न केवल बँटे हैं, बल्कि द्वीपों के आगे कँटीली बाड़ भी हमने लगा ली है, किस पत्रिका में छपें, किस में नहीं, किस साहित्यिक कार्यक्रम में शिरकत करें, किस में नहीं. अजीब अविश्वास का माहौल है. इस पर अगर आप लेखिका हैं तो बात अविश्वास से उलझ कर सीधे संदिग्धता की कगार पर आ खड़ी होती है. स्त्री होकर हिन्दी में लिखना आज दुस्साहस का काम है. ईरान, अरब, तुर्की की लेखिकाओं से ज़्यादा दुस्साहस का काम. क्योंकि हमारी जेल ज़्यादा बड़ी है…और हमारी जेल के जेलर हिन्दी के वही प्रबुद्ध हैं जो स्त्री मुक्ति पर गंभीर विमर्श करते हैं.
साहित्यिक संवेदनशीलता हिन्दी साहित्य में बहुत सामंती ढंग से आती है. निज आस्थाओं को नकारते हुए, स्त्री की अस्मिता और निजता को नकारते हुए. उसके हाथ पीछे बाँधते हुए. हमसे बेहतर हैं ईरान, अरब, तुर्की की लेखिकाएँ खुल कर लिखती हैं, विरोध करती हैं, जेल जाती हैं, शायद मार भी दी जाती हो. हम जेल नहीं जाती, दोहरी तलवारों पर चलाई जाती हैं , हमें सबके सामने ज़ोर से ‘कुछ’ और कहा जाता है, वही फुसफुसा कर नेक सलाह भी देते हैं. बानगी देखिए.
प्रगतिशील बनो – ( सेमिनारों में कम दिखा करो, देखा फलां लेखिका घर बैठ कर लिखती है, कहीं दिखती नहीं. उसके बारे में बात होती है कहीं?)
आप को स्त्री के पक्ष में खुल कर लिखना चाहिए, आप तो प्रगतिशील महिला हैं – ( आपकी कमी बस यह है कि आप स्त्री हैं, उस पर सुन्दर)
मैं ने न जाने कितनी बार अकेले में खुद से बहस की है, मनीषा तुम्हारा निजी गुनाह तो बस इतना है कि न केवल तुमने लिखना चुना, लिखना चुना तो घर में बैठती न….अपने कदो – बुत के साथ बाहर क्यों आ गईं? सबसे हाथ मिलाया, नज़र उठा कर बात की. तुमने सोचा कैसे यहाँ वही सम्मान मिलेगा जो तुम्हें फौज में मिलता है! यहाँ कैसे तुम किसी वरिष्ठ को उसके पहले नाम से पुकार सकोगी? खुल कर हँसोगी, साहित्य के किसी अंग्रेज़ीदाँ महोत्सव में देश – विदेश के तमाम लेखकों के साथ संगीत पर थिरक उठोगी….इडियट! भूलो मत तुम हिन्दी के लेखिका हो. “जींस के साथ – साथ सौजन्यता “नॉट अलाउड” !”
मैंने आज तक अपने अस्तित्व की स्वतंत्रता को हरसम्भव बचाने की कोशिश की है. सहज ही या लड़ कर, छीन कर और बहला – फुसला कर मैंने इसकी डोर अपने हाथ में रखी है. विचारों की, अभिव्यक्ति की, पहनावे की, खान – पान की या अपने आलस और कामचोरी की आज़ादी भी. विवाह को ‘व्यवस्था’ न बनने देने की ज़िद की आज़ादी. ज़िन्दगी का मोह, आज़ादी का स्वाद, जीवन और मनोलोक को लेकर अनवरत जिज्ञासाओं के उत्तर ढूँढने का पागलपन, इमानदार अभिव्यक्ति का साहस ही मुझे ‘मैं’ बनाता है. तो मैं हिन्दी – जगत में आकर ‘कोई और’ क्यों बन जाऊँ?
आप किसी अच्छे कार्यक्रम में इसलिए नहीं जा सकते कि वह विपरीत धड़े वाले करा रहे हैं. यूँ भी लेखिकाएँ स्त्री होने का प्रतिरोध हर तरफ से झेलती हैं, ऎसे में साहित्य का कँटीला माहौल उनके लिए लिखना भी कठिन बनाता जा रहा है. अकसर गोष्ठियों में मंच पर बोलने वालों में लेखिकाओं की संख्या नगण्य होती है, उस पर साहित्य जगत का ही संकीर्ण रवैय्या उन्हें और पीछे धकेल देता है. साहित्य अकादमी के कार्यक्रमों में आपका मन हो तो आप नहीं जा सकते, हमारे सीनियर (ज़्यादातर पुरुष) तुरंत सलाह देंगे कि किसी लेखिका के लिए ओवर एक्सपोज़र घातक है. किसी उभरती नई लेखिका को डराने, बाहर से समाज नहीं आता, साहित्य के भीतर बैठे तथाकथित उदार प्रगतिशील लेखक आते हैं, आलोचक आते हैं, वही जो स्त्रीलेखन को प्रश्रय देने का ढोंग करते हैं. हमें हमारे वरिष्ठ विरासत में बहुरेखीय, बहुस्तरीय विभाजन देकर और व्यवहार में अविश्वास भर कर जाएँगे.
कभी साहित्य में एक जो बारीक छन्नी हुआ करती थी वह भी तार – तार हो गई है, सम्पादकों की भूमिका का क्या हुआ? लगता तो नहीं कि वे अब भी ‘ख़ेद सहित’ रचनाएँ वापस करते होंगे? साहित्यगत कलात्मकता को कूट – पीट कर समतल बनाने के षड्यंत्र में स्वयं हमारे संपादक शामिल होते जा रहे हैं. अकसर मुझे सुनने को मिलता है, अपनी या अपने समकालीनों की रचनाओं को लेकर, बहुत क्लिष्ट हो गया, या अकादमिक हो गया है? हम सही मायनों में सजग पाठक होते हैं तो ढूँढते हैं किसी खास शब्द का अर्थ और संदर्भ. मज़ा आता है उसमें. मैं जाने – बूझे ज्ञान – बघारू क्लिष्ट साहित्य की पैरवी चाहे न करूँ मगर मुझे अपनी रचना प्रक्रिया में पाठकों की सीमा को ख्याल में रख अपनी रचना को सरलीकृत करना पसन्द नहीं. एक नया शब्द खोज कर जानना, अच्छा है पाठक के लिए, इसमें रस – बाधा नहीं होती बल्कि नया शब्द जान लेने का सुख और फिर एक अच्छे ब्रेक के बाद फिर नए सिरे से रस – प्रवाह होता है कहानी का, नए संदर्भ के साथ.
भाषा, शिल्प, रचना और कला का सरलीकरण कला को डायल्यूट करना है.
इकहरी कहानियाँ, इकहरी कविताएँ, आत्मकेन्द्रित वैचारिक लेखन, समूह केन्द्रित आलोचना. भाषा की गुणवत्ता में क्षरण और शिल्पगत कला का अर्थ सम्पादक की छलनी में से समूचा छन कर बह जाता है..बचता है क्या फिर? वादों/ विमर्शों और लेखन के चलताऊ अतिसरलीकृत फार्मूलों के बीच कई बार शब्द की गरिमा पर से विश्वास उठता है, मगर सजग होकर उसे सँभालना होता है, यहाँ सम्पादक और प्रचलन को उपेक्षित करना होता है. एक कथाकार के जो अनुभव आंतरिक व चेतनात्मक स्तर पर होते हैं वही महत्वपूर्ण होते हैं, वे अनुभव कतई महत्वपूर्ण नहीं होते जो कि लेखक – सम्पादक, लेखक – आलोचक के या लेखक – प्रशंसक – पाठक के बीच होते हैं.
मैं बहुत बरस पहले लिखे निर्मल वर्मा के इस वाक्य पर क्यों ठिठक गई हूँ?
“”जब किसी साहित्य में सार्थक, जीवंत और संयत समीक्षा पद्धत्ति मुरझाने लगती है तो उसके साथ एक अनिवार्यत: एक परजीवी वर्ग, एक साहित्यिक माफिया पनपने लगता है. ऎसी विकट स्थिति में लेखक अपने खोल में चला जाता है.” “
सुशील सिद्धार्थ के संपादन में सामायिक प्रकाशन से शीघ्र प्रकाशित पुस्तक ‘नई सदी की हिंदी कहानी’ में शामिल.
सुशील सिद्धार्थ के संपादन में सामायिक प्रकाशन से शीघ्र प्रकाशित पुस्तक ‘नई सदी की हिंदी कहानी’ में शामिल.