जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

२८ फरवरी को राजकमल प्रकाशन के स्थापना दिवस के अवसर पर अजित वडनेरकर को ‘शब्दों का सफर’ के लिए एक लाख का पुरस्कार दिया गया. इस अवसर पर नामवर सिंह जी ने बोलते हुए कई बहसतलब बातें कहीं. एक तो उन्होंने कहा कि रेणु जैसे आंचलिक लेखकों ने आंचलिक प्रयोगों के नाम पर भाषा पर नकारात्मक प्रभाव डाला. दूसरे उन्होंने कहा कि हिंदी गद्य के निर्माण में पत्रकारों की भूमिका अहम रही है, अध्यापकों और शोधकर्ताओं की नहीं. उस संक्षिप्त भाषण का लिप्यन्तरण प्रस्तुत है- जानकी पुल.
मित्रों मुझे नहीं मालूम था कि कोई ऐसी व्याख्यानमाला बन रही है जिसके अंतर्गत मुझे व्याख्यान देना है. मैं टिप्पणी के रूप में कुछ शब्द कहना चाहता हूँ. खासकर अजित वडनेरकर की किताब ‘शब्दों का सफर’, जिसके पहले पड़ाव को मैंने देखा है दूसरा अभी आनेवाला है, उस संबंध में कुछ शब्द मैं कहना चाहता हूँ. था एक ज़माना जब हिंदी में एक-एक शब्द पर चार-चार, पांच-पांच साल तक विचार होता था. २०वीं शताब्दी के आरम्भ में १९०० के आसपास पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भाषा और व्याकरण पर एक लेख लिखा था. उसमें एक वाक्य था कि ‘हिंदी को अब अनस्थिरता लग गई है’. अब यह अनस्थिर शब्द उन्होंने जैसे ही प्रयोग किया कलकत्ता में बैठे हुए बाबू बालमुकुंद गुप्त ने पकड़ा और लिखा कि द्विवेदी जी सारे हिंदी जगत को व्याकरण पढाने चले हैं और खुद उनके व्याकरण का हाल यह है कि अनस्थिरता का प्रयोग कर रहे हैं. अन लगता है जब किसी स्वर से शब्द शुरु हो, व्यंजन में अन नहीं लगता, अनादर होगा लेकिन स्थिर के पहले अन नहीं लगेगा अस्थिर बनेगा. पांच साल यह बहस चली. हिंदी जगत बंटा हुआ था, आचार्य द्विवेदी का प्रताप था…उस समय संपादकाचार्य के रूप में भाषा और साहित्य के बारे में जो रुतबा था वह अद्भुत था आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का. लेकिन गलती तो हो गई थी… पांच साल तक बहस चली…ये तर्क पर तर्क देते रहे लेकिन बार-बार बालमुकुंद गुप्त कहें कि वह सब ठीक है लेकिन यह नहीं ठीक है. जब निधन हो गया बाबू बालमुकुंद गुप्त का १९०५-०६ के आसपास तो आचार्य द्विवेदी ने लिखा उनकी मृत्यु पर कि हिंदी में व्याकरण जाननेवाला और अच्छी हिंदी लिखने वाला केवल एक ही व्यक्ति था और उसकी पहचान थी बाबू बालमुकुंद गुप्त. और कहा कि मुझसे गलती हो गई है. यह स्वीकार किया. यह वह ज़माना था जब खड़ी बोली हिंदी बन रही थी. उस समय एक शब्द पर पांच साल बहस हुई है.
उसके बाद जब हिंदी राजभाषा बनने की प्रक्रिया में थी १९४७ के आसपास, तो फिर हिंदी का स्वरुप क्या होगा उस पर लिखने वाले लोग जो लोग मुख्य मालूम होते हैं, पंडित किशोरीदास वाजपेयी और रामचंद्र वर्मा. काशी में रामचंद्र वर्मा और ब्रज में पंडित किशोरीदास वाजपेयी. किशोरीदास वाजपेयी संस्कृत के पंडित थे, हिंदी व्याकरण उनका लिखा हुआ आज तक सबसे अच्छा है, उसको नागरी प्रचारिणी सभा ने छापा है, बल्कि नागरी प्रचारिणी ने उनसे निवेदन किया कि आप आकर लिखिए. काशी में रहकर बैठकर उन्होंने उसे पूरा किया. वो दिन मैंने देखे हैं. और रामचंद्र वर्मा काशी में ही थे. बहुत-सी किताबें उन्होंने व्याकरण पर लिखी हैं. उस समय व्याकरण का स्वरुप क्या होगा क्योंकि कामता प्रसाद गुरु का व्याकरण था, उस व्याकरण पर क्योंकि वे जबलपुर के थे, उस पर मराठी की बहुत गहरी छाप थी. और उनके सामने मराठी से ज्यादा संस्कृत का व्याकरण था, हिंदी का व्याकरण तो विदेशियों ने लिखी है, हिंदी के अधिकांश व्याकरण विदेशियों ने लिखे, अंग्रेजों ने लिखे. स्वयं हिंदी में किसी हिंदी वाले ने हिंदी का पहला व्याकरण लिखा है तो वह कामताप्रसाद गुरु ने लिखा है. यह मैं आप लोगों को याद दिलाना चाहता हूँ, आप में से बहुत सारे लोग उससे बहुश्रुत हैं, परिचित हैं.
कहना यह है कि इस पृष्ठभूमि में एक बार फिर जब हिंदी की जगह हिंगलिश लेने लगी है, और यही नहीं हिंदी में अंग्रेजी के शब्द आ रहे हैं बल्कि शब्द ही नहीं आ रहे हैं वाक्य-विन्यास भी अंग्रेजी के आ रहे हैं. और मीडिया की वजह से खासतौर से जो इलेक्ट्रोनिक मीडिया है… शब्द में तो गनीमत है…अखबार में भी अब भाषा की परवाह करने वाले नहीं हैं…सच्चाई यह है कि हिंदी का वर्तमान रूप जो हासिल हुआ है उसमें हमारी हिंदी पत्रकारिता ने बड़ा काम किया है, खड़ी बोली हिंदी का गद्य जो है वह पत्रकारों का बनाया हुआ है, यह अध्यापकों और रिसर्च करने वालों का बनाया हुआ नहीं है. हिंदी बनी हैं हिंदी पत्रकारिता से, लेकिन आज ये ज़िम्मेदारी वे कितनी निभा रहे हैं उस पर मैं कुछ नहीं कहूँगा. कौन मोल ले सांड की सींग से, खबर ही नहीं छापेंगे कि हमलोगों के खिलाफ बोल रहा था और छापेंगे तो गत बना देंगे, इसलिए वह ज़िम्मेदारी जो मीडिया नहीं निभा रहा है तो पूरी की पूरी ज़िम्मेदारी लेखकों पर आती है पहले.
इसमें बड़ी गडबडी यह हुई कि आंचलिक कथाकार जो पैदा हुए फणीश्वरनाथ रेणु जैसे, तो इन लोगों ने स्थानीयता की छौंक देने के लिए कुछ छौंक बघार ज्यादा ही दे दी उन्होंने. हास्य रस पैदा करने के लिए, लोकतत्व ले आने के लिए भाषा को इतना मांज दिया कि लगा यही स्टैण्डर्ड हिंदी है, यह उन्होंने जानबूझकर नहीं किया, वे यथार्थवाद दिखा रहे थे, उन्होंने समझा कि यथार्थवाद यही है कि लोग जैसे बोलते हैं वैसा ही दिखाया जाए, यह यथार्थवाद नहीं होगा नेचुरलिजम जिसे कहते हैं यह प्रकृतवाद होगा…यथार्थवाद नहीं है. बहरहाल, ऐसे माहौल में मैंने कह कि पत्रकारिता जब नहीं निभा रही है तो कोई न कोई तो आदमी ऐसा हो जो… मुझे खुशी है कि वडनेरकर ने यह ज़िम्मा लिया…उन्होंने यह किताब लिखी है मैंने पढ़ी है किताब…आदमी की जन्मकुंडली बनाना तो सरल है शब्दों की जन्मकुंडली बनाना बड़ा कठिन है…कैसे पैदा हुए…कब पैदा हुए…यह बड़ा मुश्किल काम है. मैं एक ही उदाहरण देता हूँ- फ़कीर एक शब्द है…कैसे पैदा हुआ? मैंने कभी ध्यान ही नहीं दिया…आप लोगों में से कुछ ने शायद दिया हो…वडनेरकर ने लिखा है फ़कीर में है फ उर्दू का पे और फ से बनता है फाका…फिर है काफ से किनायत जिसका मतलब होता है संतोष, फिर र है उर्दू का रे, उसका मतलब होता है रियाज़त जिसका मतलब होता है समर्पण… इस तरह फे काफ और रे से बना हुआ, जो फाका करने वाला आदमी हो, जो संतोष करने वाला आदमी हो और जिसमें समर्पण का भाव हो, ऐसा आदमी होता है फ़कीर. अब गलत है या सही है इस पर विद्वतजन निर्णय करेंगे.. यह बहुत दूर से खींच कर लाइ गई कौड़ी है. लेकिन अपने आपमें यह दिलचस्प है. शब्दों की व्युत्पत्ति पर ध्यान देना… मनुष्यों की उत्पत्ति और शब्दों की व्युत्पत्ति इस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए… क्योंकि यह सारी की सारी हमारी संपत्ति है…
मुझे खुशी है की धुन के पक्के हैं वडनेरकर…नाम से मराठी लगते हैं… इस तरह के काम में अपना पूरा जीवन लगा देने वाले लोग महाराष्ट्र में हुए. संस्कृत का कोश आज भी आप्टे का ही माना जाता है. सम्पूर्ण महाभारत का प्रामाणिक पाठ भंडारकर इंस्टिट्यूट ने तैयार किया… यह पांडित्य जो है वह परम्परा महाराष्ट्र की है. मुझे खुशी है कि एक मराठी भाषी आदमी ने यह कोश तैयार किया है जो हम हिंदी वालों के लिए चुनौती है… इसका दूसरा खंड आएगा उसकी प्रतीक्षा है और जानता हूँ कि तीसरा खंड भी आएगा…
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