अज्ञेय जन्मशती पर देश भर में अज्ञेय को आदर से याद किया गया. अज्ञेय के विरुद्ध लम्बी जंग छेड़ने वाले साम्यवादी आलोचक भी अज्ञेय की महानता के गुण गाते देखे गए. मूर्धन्य आलोचक नामवर सिंह ने नेशनल बुक ट्रस्ट के जरिये अज्ञेय की प्रमुख कविताओं का चयन प्रस्तुत किया और अज्ञेय को अपने दौर का (जिसमें मुक्तिबोध, शमशेर, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन आदि अनेक अहम वामपंथी कवि आ जाते हैं) सबसे बड़ा कवि करार दिया. केदारनाथ सिंह, नरेश सक्सेना, डॉ मैनेजर पांडे, उदय प्रकाश, राजेश जोशी, रामशरण जोशी आदि अनेक वामपंथी अज्ञेय की मुक्तकंठ प्रंशसा करते सुने गए. लेकिन इस सब के बावजूद कहीं-कहीं अभी भी अज्ञेय पर छुट्टे आरोपों वाली सुगबुगाहट उभर कर सामने आ जाती है. इसमें अज्ञेय के साहित्य पर कम बात होती है, उनके चरित्र पर ज्यादा. जैसे एक निंदक ने लिखा है कि अज्ञेय की विदेश यात्राओं का पैसा किसने दिया, इसकी जाँच होनी चाहिए! आज के जनसत्ता में वरिष्ठ लेखक राजकिशोर ने इसी मनोवृत्ति की खबर ली है और एक साहित्यकार को उसके लेखन से मापने-तौलने की ज़रूरत बताई है. प्रस्तुत है वह टिप्पणी.
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अज्ञेय हिंदी के एक मात्र नहीं तो अकेले प्रमुख लेखक थे जो शीत युद्ध का शिकार हुए। शीत युद्ध भी आखिर युद्ध ही था। युद्ध के संदर्भ में माना जाता है कि आप मित्र हैं या शत्रु। बीच की कोई जगह नहीं हो सकती। यही पिछड़ी हुई मान्यता अभी भी राज कर रही है। मेरे खयाल से, किसी युद्ध में जब सभ्य लोग शामिल होते हैं (जाहिर है, वे खुद शामिल नहीं होते, इसके लिए उन्हें बाध्य कर दिया जाता है), तो वे युद्ध की परिभाषा ही बदल देते हैं। उनके लिए कोई शत्रु नहीं होता। तब भी नहीं जब कोई उनका नुकसान कर रहा हो। सभ्य आदमी अपने नुकसान को रोकने की कोशिश है, लेकिन इसके लिए वह किसी और का नुकसान नहीं कर सकता। यों कहिए कि उससे कण मात्र भी ज्यादा नुकसान नहीं कर सकता जितना अपना नुकसान रोकने के लिए अपरिहार्य हो। इस नीति के मूल में सभी के प्रति मैत्री भाव है, जिसके बिना सभ्य होने की कल्पना ही नहीं की जा सकती। अमेरिका और सोवियत संघ के बीच जो शीत युद्ध चला था, उसका कम से एक पक्ष अपने सभ्य होने का परिचय दे सकता था। अमेरिका से भी इस तरह की माँग की जा सकती थी, लेकिन उम्मीद नहीं, क्योंकि वह मानता है कि सुखी होने के लिए निजी संपत्ति की संस्था का बने रहना जरूरी है। इस परिभाषा की कोई संगति संपूर्ण विश्व को न्यायपूर्ण और सुंदर बनाने की इच्छा के साथ नहीं है, यह विचार और व्यवहार, दोनों स्तरों पर साबित हो चुका है। लेकिन सोवियत संघ एक नई किस्म का राज्य था। वह कम्युनिज्म के महान आदर्शों से जुड़ा हुआ था। यह विडंबना ही है कि युद्ध के संदर्भ में उसका आचरण युद्ध की पुरानी और ध्वंसात्मक धारणाओं का अनुवाद मात्र था। दुनिया भर के लेखकों को इसकी कीमत चुकानी पड़ी। भारत में यह कीमत अज्ञेय से वसूल की गई।
अज्ञेय मानवेंद्र नाथ राय की विचारधारा से प्रभावित थे, ऐसा कहा जाता है। राय से अज्ञेय की मित्रता जरूर थी। पर उनका वैचारिक प्रभाव था या नहीं और था तो ठीक-ठीक कितना था, यह स्पष्ट नहीं है। बेशक अज्ञेय के लेखन में मानववाद के बहुत-से पहलू दिखाई देते हैं। लेकिन आर्थिक तथा अन्य प्रकार की विषमता और उससे पैदा होनेवाली कुरूपताओं की समस्या ने शायद उन्हें बहुत आकुल नहीं किया। कम से कम, यह उनका कोई मुख्य सरोकार नहीं था। गरीबी, अभाव, शोषण, वंचना आदि के चित्र उन्होंने भी उकेरे हैं (जिन्हें दबा कर रखने की कोशिश की गई है – कुछ जानबूझ कर और ज्यादातर अज्ञानवश), लेकिन इस सरोकार का मुख्य होना लेखक होने की एक मात्र कसौटी नहीं है। भारत जैसे समाज में, जहाँ विषमता इतनी ज्यादा और सीधे आँखों में चुभनेवाली दैनिक उपस्थिति है कि कोई चाहे भी तो पूरी तरह मानवीय हो कर नहीं जी सकता, कोई लेखक इस सचाई से कैसे निरपेक्ष हो सकता है? फिर भी ऐसा होता है, इसमें कोई शक नहीं है। हिंदी के ही बहुत-से लेखक, मृत भी और जीवित भी, इसके ठोस उदाहरण हैं।
लेकिन सिर्फ ऐसा होने से हम यह नहीं कह सकते कि वे लेखक ही नहीं हैं। साहित्य और कला की दुनिया रहस्यमयी है और आगे भी ऐसी ही रहेगी, क्योंकि जिसे हम रचना कहते हैं, वह सैकड़ों-हजारों क्रिया-प्रतिक्रियाओं का अंत-उत्पाद होती है। इन क्रिया-प्रतिक्रियाओं के घटना स्थल यानी मानव मन की बनावट पर स्वयं उस मन के स्वामी का बहुत अधिकार नहीं होता। उदाहरण के लिए, मैं लिखना चाहता था क, मगर मेरी उँगलियों ने जो लिखा, वह ख था। क्या मेरी उँगलियाँ मेरे बस में नहीं हैं? या, मैं खुद अपने बस में नहीं हूँ? यह समस्या उन लेखकों को भी कुछ कम परेशान नहीं करती जो सचेत रूप से समाजवादी या कम्युनिस्ट हैं। ऐसे सभी मामलों में कहा यही जाना चाहिए कि हाड़-माँस के आदमी के लिए अंतर्विरोधों से मुक्त रह पाना मुश्किल है। मुश्किल? नहीं, असंभव है।
अज्ञेय कैसे लेखक थे, यह अभी तक तय नहीं हो पाया है। वे ऐसे लेखक हैं जो हिंदी जगत में (हिंदी का लेखक जगत जिसका एक बहुत लघु हिस्सा है) जितना ज्यादा सम्मानित हुए, जितनी श्रद्धा का पात्र बने, उतना समझे नहीं गए। समझने की कोशिश हुई और वे अभेद्य साबित हुए, यह झूठ है। जहाँ तक अज्ञेय के साहित्य को समझने का सवाल है, इसकी तो कोशिश भी नहीं हुई। हिंदी के विद्यापीठों में अज्ञेय को पढ़ाया जाता रहा, आज भी पढ़ाया जाता है, पर विद्यापीठों का व्यवहार विश्लेषण के बजाय व्याख्या के प्रति ज्यादा समर्पित होता है, यह कौन नहीं जानता? जो थोड़ा अधिक जानते हैं, उनका दावा है कि ज्ञान की इन सरकारी मंडियों में व्याख्या भी उतनी ही पर्याप्त मानी जाती है जितने से छात्र एकदम ठगे गए महसूस न करते हों।
इस स्थिति का एक बड़ा कारण शीत युद्ध की मानसिकता है। हमारे कम्युनिस्ट लेखकों और आलोचकों ने सिर्फ आरोप लगाने से हट कर अगर अज्ञेय के लेखन का कुछ विश्लेषण किया होता, तो हिंदी के अध्यापक समुदाय को सुविधा हो जाती। शीत युद्ध के परिणामस्वरूप अज्ञेय को शत्रु खेमे में डाल दिया गया। यह कठोर फैसला सुनाने के पहले न्यूनतम साहित्यिक साक्ष्य प्रस्तुत करना भी जरूरी नहीं लगा; इसके लिए उनके जीवन के दो-तीन प्रसंगों का उल्लेख काफी मान लिया गया। यह क्रांतिधर्मिता कुछ समझदार हलकों में आज भी जारी है, यह हमारे साहित्य समय का पाँचवाँ आश्चर्य है।
अज्ञेय को फासिस्ट, अमेरिका का पिट्ठू और जनतंत्र का दुश्मन मान लेते हैं, तब भी, सवाल यह है कि वे लेखक थे या नहीं? सवाल यह भी है कि अज्ञेय के लेखन पर उनकी कथित राजनीतिक (कु)प्रतिबद्धताओं का असर क्या पड़ा है। पश्चिम में ऐसे लेखकों का भी, विस्तार से और गहरा, अध्ययन होता है। नीत्से प्रतिक्रियावादी विचारक के रूप में मशहूर हैं। लेकिन पिछले पचहत्तर वर्षों में उन्हें प्लेटो से कम उद्धृत नहीं किया गया है। अगर पश्चिम के किसी विद्वान ने नीत्से को नहीं पढ़ा है, तो वह साहित्यिक समाज में उठने-बैठने के काबिल नहीं माना जाता। जॉर्ज ऑर्वेल कम्युनिस्ट व्यवस्था के कटु आलोचक थे, फिर भी अंग्रेजी ने उन्हें जाति से बहिष्कृत नहीं किया। बल्कि इसकी वजह से उनकी इज्जत बढ़ी। हमारे कम्युनिस्ट मित्र अगर ‘एनिमल फार्म‘ (जो हिंदी में हिंदीसमय.कॉम पर भी उपलब्ध है) को महीने में एक बार पढ़ लिया करें, तो उनका, हिंदी और हमारे समाज का बहुत भला हो। फिर हिंदी में ही ऐसा क्यों हुआ? हिंदी में ही ऐसा क्यों होता है? ‘घृणा के प्रचारक प्रेमचंद‘ जैसी रचना हिंदी के अलावा और किस भाषा में लिखी गई है?
शीत युद्ध का गरम दौर खतम हो चुका है। पर उसकी तासीर गई नहीं है। वातावारण में कुछ परिवर्तन आने से अज्ञेय के साहित्य के प्रति हिंदी की लेखक जमात का रुख बदल रहा है, लेकिन पुरानी हिचकिचाहटें जाना नहीं चाहतीं। यह देख कर पीड़ा होती है कि अन्यथा बुद्धिमान आलोचक भी अज्ञेय की किसी अप्रसिद्ध कविता से ‘चुका‘ शब्द खोज कर उन्हें चुका हुआ बताने में मजा लेते हैं। यह भी सच है कि अज्ञेय-अज्ञेय करने से कोई अज्ञेय का साहित्यिक उत्तराधिकारी नहीं हो जाता। हमारे अपने पुण्य और हमारे पाप हमारे ही साथ रहेंगे। यह जिज्ञासा ज्यादा अहम है कि क्या आज हम आज एक ऐसे नवयुग की कल्पना कर सकते हैं जो साहित्य जगत में वीटो, सुरक्षा परिषद, नाटो, वारसा पैक्ट आदि को संग्रहालय की वस्तु बनाने और लोकतंत्र को उसकी समस्त मर्यादाओं और सम्मान के साथ स्थापित करने के लिए हम सब को आमंत्रित करे?राजनीति और समाज में लोकतंत्र का हाल हम देख ही रहे हैं। क्या साहित्य में भी लोकतंत्र एक दिवास्वप्न बना रहेगा?