जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

रामेश्वरम तक जाने वाली लोकल

1941 में अमेरिका में जन्मे पॉल थेरो की ख्याति यात्रावृत्तों के चर्चित लेखक के रूप में रही है. ग्रेट रेलवे बाजार(1975) पुस्तक उनके लेखन का शिखर माना जाता है. दुनिया के अनेक मुल्कों की यात्रा करने के बाद उसके अनुभवों को उन्होंने पुस्तक का रूप दिया. वी. एस. नायपाल पर लिखी अपनी पुस्तक के लिए वे विवादों में भी रहे.

प्रस्तुत है उसी पुस्तक का एक अंश जो दक्षिण भारत की उनकी यात्रा के अनुभवों पर आधारित है

भारत में मेरी दो महत्वाकांक्षाएँ थीं: एक सीलोन की यात्रा ट्रेन से करने की, और दूसरी अपने लिए रेल में शयनयान का इंतजाम करने की। मद्रास के एगमोर स्टेशन पर मेरी दोनों इच्छाएँ पूरी हो गई। मेरे छोटे से टिकट के टुकड़े पर लिखा था- मद्रास-कोलंबो फोर्ट, और जब ट्रेन चालू हुई तब अटेंडेंट ने मुझे बताया कि रामेश्वरम तक इस चौबीस घंटे की यात्रा के दौरान शयनयान में मैं अकेला यात्री रहूँगा। अगर मैं चाहूँ, उसने कहा, तो दूसरे डिब्बे में जा सकता हूँ- वहाँ पंखे काम कर रहे थे। वह एक लोकल ट्रेन थी, और चूँकि कोई भी उसमें दूर तक नहीं जा रहा था, इसलिए सबने तीसरे दर्जे का ही चुनाव किया था। बहुत कम लोग रामेश्वरम जा रहे थे, उसने बताया, और इन दिनों सीलोन कोई भी जाना नहीं चाहता, वहाँ उपद्रव चल रहा था, बाजारों में खाने को कुछ भी नहीं मिल रहा था, और प्रधानमंत्री श्रीमती भंडारनायके भारतीयों को पसंद नहीं करतीं। उसे इस बात पर आश्चर्य हो रहा था कि मैं वहाँ क्यों जा रहा था।

घूमने-फिरने, मैंने जवाब दिया।

यह सबसे धीरे चलने वाली ट्रेन है, उसने मुझे रेलवे टाईम टेबल दिखाते हुए कहा। मैंने टाईम टेबल उससे माँग लिया और अपने डिब्बे में आकर उसका अध्ययन करने लगा। धीमी रफ्तार से चलने वाली रेलगाडि़यों में मैं पहले भी बैठ चुका था, लेकिन यह सबसे बुरी थी। प्रत्येक पाँच या दस मिनट पर वह किसी न किसी स्टेशन पर रुकती थी। मैंने गिनना शुरू किया, अपने सफर के दौरान वह कुल चौरानवे(94) बार रुकती थी। मेरी इच्छा तो पूरी हो गई, लेकिन मैं सोच रहा था कि कहीं यह कोई सज़ा तो नहीं।

मैं खिड़की से बाहर देख रहा था कि मुझे एक अजीब दृश्य दिखाई दिया, बच्चे, जिनकी उम्र सात से बारह साल के बीच रही होगी, छोटी उम्र के बच्चे नंगे थे, जबकि कुछ बड़े बच्चों ने शरीर पर धोती लपेट रखी थी, वे पानी भरने वाले बर्तन लेकर ट्रेन की ओर दौड़ रहे थे। वे जंगल में रहने वाले बच्चे थे, उनके लंबे बाल धूप में भूरे हो चुके थे, चेहरे धूल-धूसरित और पिचकी नाक- ऑस्ट्रेलियाई आदिवासियों की तरह- उस सुबह प्रत्येक स्टेशन पर पर वे रेलयान में घुस आये और डिब्बे में बने टॉयलेट के सिंक से पानी लेने लगे। वे पानी के बर्तन भरकर रेल की पटरी के किनारे बने अपने शिविरों की ओर भागते जहाँ दुबले-पतले उम्रदराज़ लोग उनका इंतज़ार कर रहे होते थे, पीले पड़ते घुंघराले बालों वाले उम्रदराज लोग, वहीं औरते बैठकर खाना बनाने में लगी दिखाई दे रही थी। वे तमिल नहीं थे। मैंने अंदाज़ा लगाया कि वे आदिवासी थे, गोंड की तरह। उनके पास बहुत कम सामान थे और उन्हें सुखा सता रहा था, क्योंकि बरसात वहाँ तब तक नहीं आई थी।

मैंने खाने का कोई इंतज़ाम नहीं किया था और मेरे पास खाने को कुछ था भी नहीं। दोपहर के वक्त मैं ट्रेन में काफी दूर तक घूम आया, लेकिन भोजनयान मुझे नहीं मिला। दो बजे के करीब जब मैं उँध रहा था तो खिड़की पर आवाज हुई। यह अटेंडेंट था। बिना किसी आवाज के उसने सींखचों के बीच से खाने की थाली बढ़ा दी। मैंने तमिल अंदाज में खाना खाया, दाएँ हाथ से पहले चावल का गोला बना लिया, फिर उस गोले को रसदार तरकारियों के साथ मिलाकर मुँह में डाल लिया। अगले स्टेशन पर अटेंडेंट फिर आया। खाली थाली उठाकर उसने मुझे उनींदा सलाम किया।

हम लोग समुद्र तट के समांतर यात्रा कर रहे थे, तट से कुछ मील अंदर की ओर, और डिब्बे में चल रहे पंखे की हवा उमस से कोई खास राहत नहीं दिलवा पा रही थी। ट्रेन इतनी धीमी रफ्तार से चल रही थी कि खिड़की पर समुद्री हवा भी नहीं आ रही थी। अफनी सुस्ती को तोड़ने के लिए मैंने कंडक्टर से एक झाड़ू और कुछ चिथड़े मांगे, मैंने सारे डिब्बे की धुलाई की और खिड़कियों को साफ किया। फिर मैंने अपने कपड़े धोए और उनको गलियारे में हुक से टाँग दिया। सिंक में खुद को धोया, दाढ़ी बनाई, और चप्पल-पायजामे पहन लिए। आखिर वह मेरा अपना शयनयान था।

विल्लूपुरम रेलवे स्टेशन पर ट्रेन में बिजली की इंजन की जगह भाप की इंजन लगाई गई, उसी स्टेशन पर मैंने बियर की तीन गर्म बड़े बोतलें खरीदी। डिब्बे में मैं अपने तकिए से उठंग गया, मेरे कपड़े सूख रहे थे, मैं बियर पीता हुआ तमिलनाडु राज्य की साधारणता को देखता रहा- हर स्टेशन पहले से छोटा होता गया और लोगों के शरीर पर कपड़े भी पहले से कम होते गए। चिंगलेपुत के बाद किसी के शरीर पर कमीज दिखाई नहीं दी, विल्लूपुरम के बाद बनियान भी गायब हो गई, उसके बाद लुंगियों के आकार छोटे होते गए।

उस दोपहर मुझे बहुत चिढ़ भाप के इंजन से निकलने वाले धुएँ के कारण हुई। खिड़की से धुएँ ने अंदर प्रवेश किया और सतह पर उसकी परत-सी जम गई और डिब्बे में जलते कोयले की गंध भी भर गई- वही गंध जो भारत के हर रेलवे स्टेशन पर होती है। अंधेरे के घिरते ही डिब्बे में पहले बत्ती गुल हुई, फिर पंखे ने चलना बंद कर दिया। मैं सोने चला गया, एक घंटे के बाद-साढ़े नौ बजे बिजली फिर आ गई। मैं किताब में वह जगह ढ़ूंढने लगा जिसे मैं पढ़ रहा था, इससे पहले कि मैं एक पैराग्राफ भी पढ़ पाता कि ट्रेन की बिजली फिर गुल हो गई। मैने चिढ़कर बत्ती का स्विच ऑफ कर दिया, शरीर पर मच्छर भगाने का लोशन लगाया और मुँह ढककर सो गया, मेरी नींद तिरुचिरापल्ली में जाकर खुली, जहाँ मैं सिगार का पैकेट लेने उतरा।

सुबह के वक्त अटेंडेंट फिर आया।

बस, कुछ देर की यात्रा और रह गई है, उसने कहा। मुझे लगता है कि आप इस ट्रेन में सफर करके पछता रहे होंगे।

नहीं, मगर मुझे ऐसा लग रहा था कि यह ट्रेन धनुष्कोडि तक जाएगी। मेरा नक्शा भी यही बता रहा है।

हाँ, इंडो-सीलोन एक्सप्रेस पहले धनुष्कोडि जाती थी।

अब क्यों नहीं जाती?

उसने बताया कि 1965 में एक चक्रवात आया था, जिसने धनुष्कोडि को बालू के ढेर में तब्दील कर दिया। वह शहर इस तरह गायब हो गया कि वहाँ अब मछुआरे भी नहीं रहते।

रामेश्वरम ज्यादा अच्छी जगह है, अच्छे मंदिर हैं, यहाँ का वातावरण पवित्र है।

रामेश्वरम से सीलोन की यात्रा स्टीमर से तय करनी पड़ती थी। तीन घंटे में स्टीमर रामेश्वरम से सीलोन के तलाईमन्नार पहुँचती थी। जिस तरह भारत में हर आदमी मुझसे यह पूछता था कि मैं सीलोन क्यों जा रहा हूँ, जहाज के एक कर्मचारी ने भी कहा कि मैं बेवकूफ हूँ जो सीलोन जा रहा हूँ। लेकिन उसने वहाँ न जाने के जो कारण बताए वे औरों से अलग थे। उसने बताया कि जाफना में हैजा फैला हुआ है और ऐसा लग रहा है कि उसका प्रकोप कोलंबो में भी फैल रहा है। उसने सीलोनवासियों के बारे में खूब खरी-खोटी बताई, वैसे वह भारतीयों से भी कोई खास खुश नहीं लग रहा था। मैंने उसे ध्यान दिलाया कि इससे उसे परेशानी होती होगी, क्योंकि वह स्वयं भारतीय है।

हाँ, लेकिन मैं कैथोलिक हूँ। मैं मंगलोर का रहने वाला हूँ, उसने मेरी तिरुचिरापल्ली में खरीदी सिगार को पीते हुए बताया।

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