जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

आज युवा कवि प्रशांत की कविता. एक उम्मीद, विश्वास की तरह ये कविताएँ अपने खिच्चेपन में हमारा ध्यान बड़ी सहजता से खींचती हैं. वैचारिक आग्रहों का दबाव इनमें नहीं दिखता है बल्कि जीवन के पड़ाव दिखते हैं. कवि कुछ देर ठहरकर सोचता है, आगे बढ़ जाता है.  


उम्र की संकरी होती पगडंडी पर चलते
उम्र की संकरी होती पगडंडी पर चलते
हम चावल की गुमशुदा गंध की बात करेंगे
क्यारियों वाले आंगन का
कोयले वाले चूल्हे का
और
बांस की टुकनियों का
आयेगा ज़िक्र हमारी बातों में.
फिर हम 
कुछ अनचिन्हे रंगों, बोझिल वक्तव्यों और
लोहे के स्वाद पर बतियाएंगे.
अघोषित युद्धों – मूक सहमतियों की तफसीलों के दौरान
यत्र-तत्र छपे अपने अंगूठे को
टटोल कर अपने हाथों में
हम आहिस्ता से सहलाएंगे.
उम्र की संकरी होती पगडंडी पर चलते
व्यक्त हो जाएं शायद
कुछ अपूर्ण कामनाएं
पोसी हुई कुंठाएं
और चुपचाप की गई दुष्टताएं
जो सायास रहीं बाहर हमारे आत्मकथ्यों से.
न लिये गये प्रतिशोधों का अफसोस करते
कोशिश करेंगे कि कर सकें याद अपने नामों के हिज्जे
और जरा सा थम कर
दो मिनट के मौन में
अपने मृत देवों का
हम मना लेंगे शोक भी
उम्र की संकरी होती पगडंडी पर चलते
बहुत कुछ बचा रह जाता है
साधारण सी नींद के बाद भी
बची रह जाती है तकलीफ़ उतनी सी
तूफ़ान में हहरा कर गिरे पेड़ की
जड़ें जितनी रह जाती हैं जमीन में
सूखते तालाब के कीचड़ में
कुछ मेंढकों जितना क्षोभ बचता है
और नजर आता है दर्द उतना
महीनों पुराने खून का फीका-सा धब्बा
एक धुले हुए कपड़े पर दिखता है जितना.
स्मृतिलोप नहीं कोई सक्षम सहारा
कि अपने चर्चित एकांत में
विगत के सतह को कुरेदते
ठहर कर उड़ गये पंछियों के झुंड के पीछे
चंद टूटे पंखों जितने
पुराने शब्द उभर आते हैं
और पराभव उतना-सा लौट आता है
घनी दोपहरी में एक पुरानी खिड़की के सुराखों से
बंद कमरे में जितना सूरज आता है
प्रेम एक उजाड़ पुल पर चलते
मटमैले पानी में देखता है अपना अक्स
दूसरी परछाईयों के बीच गहरी सांसे लेता है
कुछ संभलता है फिर लौट आता है
मगर बारिश से ताजा धुली सड़क पर टहलते
चप्पलों से उचक कर जितनी गीली किरकरी रेत
आ बैठती है कुर्ते की पीठ पर
अंजाने ही प्रेम संग लौट आती है
हिंसा भी उतनी-सी.
रात सोने से पहले की गई
रस्मी प्रार्थनाओं और
साधारण सी नींद के बाद भी
जरा-जरा सा बहुत कुछ
बचा रह जाता है.
उधार
लूंगा
कि लिये बगैर अब बसर नहीं
पर लूंगा वही जो लौटा सकूं
बुरे दिनों में भी हो तगादा अगर
आस-उम्मीद या तुमसे मुक्ति नहीं मांगूंगा
प्रेम तो हरगिज़ नहीं
और न ही कोई आकांक्षा तुम्हारी
तिरस्कार का भी मोल है – नहीं लूंगा
कोई अभिमंत्रित फूल नहीं
देवताओं के श्राप
परलोक की आग
और पुरखों की वासनाएं देना मुझे
दे सको तो देना
बची-खुची जद्दोजहद
आँखों में चुभते स्वप्न का एक टुकड़ा
और
फ़ेंकने के बजाय अपने अनुत्तरित प्रश्न सारे
हाशिये पर लिखी कविताएं
पुरानी किताबों के रेखांकित गद्यांश
कुछ अबूझे काले संकेताक्षर
और पथभ्रष्ट शब्द सारे
छोड़ देना मेरे लिये
मैं रख लूंगा
देह के पथरीले पठार पर टूटी हुई नोंक-सी
या इतनी घिस चुकी आत्मा
जो त्यक्त कि जैसे
छिल कर छोटी हुई पेंसिल कोई
तुम्हारे पीछे मैं
टूटी-बिखरी परछाईयाँ
नाखूनों के टुकड़े, मैल
जूतों से झड़ी शमशान की राख और
पसीने की बासी गंध समेट लूंगा.
लूंगा
कि लिये बगैर अब बसर नहीं
मगर कोई उपकार नहीं
लूंगा वही जो न मिले वापस तो
घट गये कबाड़ का हो सुकून तुम्हें
या वो जो
बुरे दिनों में भी
लौटा सकूं.
उम्मीद
बाजार में सजी
पीलेपन की कृत्रिमता ओढ़े फलों के बीच
एक ऐसी रात में जबकि हवा दम लेने को ठहर गई हो
पड़ोसी के आंगन में सूखी पत्तियों पर
धप्प – से गिरे अमरूद में
बची है उम्मीद
लहलहाती फसल को देखता हूं
तो गूंजता है पिता के बचपन का संस्मरण
कि जब उस छोटे से पहाड़ के सामने
खेत नहीं एक जंगल था
जिसके विशाल सागौन के पेड़ों से निकलती थीं
दादी की कई-एक कहानियाँ
और सच कहूं तब अपनी भूख पर हो जाता हूं शर्मिंदा
मगर अब भी
उन्हीं खेतों की मेड़ पर दूर-दूर लगे
बबूल के कुछ बच गये पेड़ों में
बची है उम्मीद
एक आश्चर्य ले कर रोज लौटता रहा
कि उन उंची-उंची चिमनियों के साये से रोज ही गुजरते
बच गया मैं कैसे जब
इन्सान के मशीनों में तब्दील हो जाने के किस्से हैं कई
और बहुत देर से समझ पाया कि
रीढ़ में छोड़ कर मज्जा
वो बस धर देते हैं थोड़ा सा लोहा हृदय में
और एक छोटा सा हूटर मस्तिष्क में
जो अब बजता है मेरे भी अंदर दिन में दो बार
मगर
मीथेन की भीनी खुशबू और गर्द भरी हवा में
सांस ले घर लौटने पर भी
बालकनी में लगे गमलों में उगे इकलौते फूल पर
आ बठी उस नाजुक एकरंगी तितली में
बची है उम्मीद
और
जब विचारों के अंधड़ में
उड़ने लगी पुस्तकें
हो के तार-तार दर्ज़ फ़लसफ़ों के सारे अक्षर
जाड़े में हुई बरसात की तरह बरसने लगे ओले बन कर
हम टूटी छप्परों को आश्रय बनाने को विवश
बुझी आँखों से देखते रहे
अपने सुर्ख सूरज का बोझिल सूर्यास्त
तब भी
इक्वेटर के दूसरी ओर
एक छोटे से देश के बियाबान तट पर
सागर पर छाई धुंध की परतों को चीरते
उगते
एक धुंधले सिंदूरी सूर्य में

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