अविनाश आज mohallalive.com के मशहूर मॉडरेटर के रूप में जाने जाते हैं, निर्भीक, संवेदनशील और अपने सरोकारों को लेकर सजग. हम भूल गए हैं कि इक दौर था जब वे युवा कविता की बेहतर संभावनाओं के रूप में देखे-जाने जाते थे. यह मैं नहीं कह रहा हूँ. उन दिनों मैं बहुवचन का संपादक था और पटना में रहने वाले इस युवा कवि की तारीफ़ बिहार के अच्छे-अच्छे लेखक-पत्रकार किया करते थे. सब पीछे छूट गया. लेकिन कविताओं में नहीं. कुछ छूटा हुआ, कुछ टूटा हुआ, कुछ बिखरा हुआ उनकी कविताओं में रूपाकार लेने लगता है और मेरा अपना विस्थापित मन जाने कहाँ खोने लगता है. विडम्बना और व्यंग्यबोध के इस कवि के बारे में कुछ और कहने से बेहतर है कि उनकी कुछ कविताओं से रूबरू हुआ जाए- जानकी पुल.
एक अच्छा देश
एक दिल्ली जो हम सब अपने साथ गांव से लाये
खाली कमरे के कोने में पड़ी हांफ रही है
खुरदरे फर्श पर एक काला रेडियो बोल रहा है
चंद काग़ज़ सादे
जिन पर हम लंबी कहानियां लिखेंगे
पीले बेरोज़गार दिनों के धब्बे बटोर रहे हैं
एक विचार तो ये भी है कि पहाड़ पर एक घर हो
और दिमाग़ में लंबी खामोशी
ये भी कुछ वैसा ही है
जैसे एक अच्छी नौकरी, ऊंचा ओहदा
उन लोगों के फार्म हाउस जैसा जिनका दिल्ली में भी अपना घर होता है!
गांव में चार कट्ठा ज़मीन है
एक टूटता हुआ पुराना घर
संदूक में रखे कुछ सुनहरे बर्तन सदियों की धूल में सने
सब कुछ जैसे एक भरोसा कि जेब भरी हुई है
लेकिन अच्छी खामखयाली गुलज़ार कहें तभी ठीक है
उनके पास हिंदी फिल्में हैं, एक बड़ा प्रकाशक है और डूबी हुई आवाज़ है
हम किरायेदार हैं दीवारों से झड़ती हैं परतें
सुबह पानी के खाली गिलास सी प्यासी, जलते कंठों की कूक में लिपटी हुई
अभी पूरा दिन पड़ा है
देह थकी सदियों सी बेजान
कुछ लोग कभी कोई काम नहीं कर पाते
हाथों की उन लकीरों की तरह जो बेजान होकर भी ज़िंदा दिखते हैं
उन कुछ लोगों के पीछे हम बहुत सारे रोज़ खड़े हो जाते हैं
और दिल्ली है एक छोटा सा दफ्तर
जहां सिफारिशें हैं, रिश्वत है, देह व्यापार है, दलाली है
हम सिर्फ कवि नहीं हो सकते
हम भी हो सकते हैं बेईमान
लेकिन वे बड़े बेईमान हमारी ख्वाहिशों से भी बहुत बड़े हैं
नाम अमर सिंह हुनर चतुराई धंधा राजकाज
खूब चमक रहा है सब कुछ
बेडौल खरबूज-सी देह पर सज रहे हैं चमकीले सूट
जीभ पर लपलपाते हुए शेर मीडिया की वाहवाही लूटते हैं
कमरे में बहुत पुरानी चादर मुड़ी-मुड़ी सी
लकड़ी की एक पुरानी कुर्सी
बरसों पुराना अंधेरा जाना पहचाना किसी उजास से नफ़रत करता
चाहतों के पंख होते हैं
प्रतिभा की दलील होती है
एक अच्छा सिनेमा उतनी ही बड़ी हसरत है जैसे मीना कुमारी
एक अच्छी कविता उतनी ही बड़ी हसरत है जैसे मुक्तिबोध
एक अच्छी कहानी उतनी ही बड़ी हसरत है जैसे प्रेमचंद
एक अच्छी राजनीति उतनी ही बड़ी हसरत है जैसे भगत सिंह
एक अच्छे देश को और अच्छा बनाने की हसरत अभी बाक़ी है
अभी तो ये दलालों के जबड़े में है!
विनम्रता
वह सब लिखा जा चुका
जो सबसे बेहतर हो सकता है
जिन्न की कहानी
परियों की कविता
गणित के सवाल
विज्ञान की बारीकी
विचार ज़िंदगी की उधेड़बुन में फूटते हैं
एक अच्छा मकान
चिकनी सड़क
साफ हवा
सीधी धूप वाली बालकनी
बैंक की आसान सुलझी हुई किस्तें विचार के रास्ते में बाधा हैं
एक नये बनते शहर में पुराने विचार ज्यादा काम आते हैं
वह सब सोचा जा चुका जो सबसे बेहतर हो सकता है
जाति के समीकरण
मज़दूरों की मुक्ति
दलितों का समाजशास्त्र
आधुनिकता का उत्कर्ष
सादा काग़ज़ खाली दिमाग़ अनबुझी प्यास
उत्तम रचना के लिए ख़तरनाक है
जहां मेट्रो की सरपट लाइनें बिछ रही हैं
वहां बेरोज़गारों का क्या काम
वे सारी भर्तियां हो चुकीं जो सबसे बेहतर हो सकती हैं
बैंक में क्लर्क
रेलवे में गार्ड
मीडिया में नौकर
होटल में बैरा
इस हरी-भरी पनियल धरती पर अनगिन मकान
काली गंधाती सड़ी हुई नदी के किनारे अनगिन झुग्गियां
वे कहां जाएंगे जिनका पुश्तैनी घर किसी गांव में था
बचपन के दोस्त की आखिरी चिट्ठी में ढह चुका
अखबार के वर्गीकृत विज्ञापनों में वे सारी हसरतें भरी जा चुकीं
जो सबसे बेहतर हो सकती हैं
सोसाइटी में फ्लैट
एक अच्छी वधू
विदेश की उड़ान
लॉटरी के नंबर
वो गीत लिखा जा चुका जो सबसे बेहतर हो सकता है
छोटे-छोटे शहरों से ऐसी भोर-दुपहरों से हम तो झोला उठा कर चले
अब क्या बचा है इस शहर में जहां प्रधानमंत्री रहते हैं
न सोचने की ताक़त न जीने की चाह
सफल लोगों की दुनिया में सबसे अधिक बसते हैं हारे हुए लोग
हम हारे हुए लोग
बेहतर रचना की प्रतीक्षा में
रिक्त होते जाएंगे
और वे उतनी ही पुरानी कविता उतना ही पुराना विचार सुनाएंगे
जितना पुराना अहंकार है
विनम्रता इस दुनिया की सबसे हसीन चीज़ है
जो किसी भी रचना नौकरी मकान गीत विचार से बेहतर
हारे हुए लोगों की सबसे बड़ी हिम्मत है!
अब मैं यहीं ठीक हूं
एक गांव था जो कभी वही एक जगह थी जहां हम पहुंचना चाहते थे
एक घर बनाना चाहते थे जिंदगी के आखिरी वर्षों की योजना में खाली पड़ी कुल चार कट्ठा ज़मीन पर
एक दालान का नक्शा भी था जहां खाट से लगी बेंत की एक छड़ी के बारे में हम सोचते थे
बाबूजी के पास कुछ सालों में नयी डिजाइन की एक छड़ी आ जाती थी
बाबा के पास एक छड़ी उस रंग की थी, जिसका नाम पीले और मटमैले के बीच कुछ हो सकता है
उनके चलने की कुछ डूबती सी स्मृतियां हैं जिसमें सिर्फ़ आवाज़ें हैं
खट खट खट एक लय में गुंथी हुई ध्वनि
अक्सर अचानक नींद से हम जागते हैं जैसे वैसी ही खट खट अभी भी सीढ़ियों से चढ़ कर ऊपर तक आ रही है
वही एक जगह थी, जहां जाकर हम रोना चाहते थे
लगभग चीखते हुए आम के बगीचों के बीच खड़े होकर
रुदन जो बगीचा ख़त्म होने के बाद नदी की धीमी धार से टकरा कर हम तक लौट आती
सिर्फ़ हम जानते कि हम रोये
थकान और अपमान से भरी यात्राओं में बहुत देर तक हम सिर्फ़ गांव लौटने के बारे में सोचते रहे
सोचते हुए हमने शहर में एक छत खरीदी
सोचते हुए हमने नयी रिश्तेदारियों का जंगल खड़ा किया
साचते हुए हमने तय किया कि ये दोस्त