
पिछले दिनों प्रकाशन जगत में अंतर्राष्ट्रीय स्टार पर दो घटनाएँ ऐसी हुई जिनको कोई खास तवज्जो नहीं दी गई, लेकिन उसने लगभग गुमनाम हो चुके एक लेखक को चर्चा में ला दिया. बात इब्ने सफी की हो रही है. उनकी एक किताब का अनुवाद अंग्रेजी के मशहूर प्रकाशन रैंडम हाउस ने प्रकाशित किया. यही नहीं हाल में ही हिंदी प्रकाशन शुरू करनेवाले प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशक हार्पर कॉलिन्स ने उनकी १५ किताबों को प्रकाशित कर एक तरह से जासूसी उपन्यासों के इस पहले भारतीय लेखक कि ओर ध्यान आकर्षित करने का काम किया है. उनकी लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके बारे में एक दौर में कहा जाता था कि चंद्रकांता तथा चंद्रकांता संतति ने बड़े पैमाने पर हिंदी के पाठक तैयार किये, जिस जमीन पर हिंदी साहित्य कि विकास यात्रा आरम्भ हुई, तो इब्ने सफी ने आधुनिक पाठकों कि वह मनःस्थिति तैयार की जिसकी भीत पर आधुनिक हिंदी साहित्य का महल खड़ा हुआ. भले यह बात तंजिया कही जाती रही हो लेकिन इस बार का भी एक आधार है.
१९२८ में इलाहाबाद के नारा में पैदा हुए इब्ने सफी का नाम असरार अहमद था और यह बहुत कम लोगों को पता होगा कि लिखने कि शुरुआत उन्होंने शायरी से की थी और ताउम्र खुद को शायर ही मानते रहे. कहा जाता कि उन्होंने जासूसी उपन्यास लिखना एक चुनौती के तहत शुरू किया. उन दिनों उर्दू में अंग्रेजी से अनूदित जासूसी उपन्यास छपते थे और जिनमें सेक्स पर ख़ासा ज़ोर होता था. उनका मानना था कि बिना सेक्स के भी अच्छे जासूसी उपन्यास लिखे जा सकते हैं. उनके दलीलों को सुनकर एक दिन उनके एक दोस्त ने चुनौती दी की खाली बात करने से क्या फायदा अगर कूवत है तो ऐसा कोई जासूसी उपन्यास लिखकर दिखाओ जिसमें सेक्स का वर्णन भी ना हो और पाठकों को जिसे पढ़ने में भी आनंद आए. कहते हैं शायर असरार अहमद ने इस तरह के बाजारू उपन्यास लिखने के लिए इब्ने सफी का नाम अपनाया. संयोग ऐसा देखिये उसके बाद शायर असरार अहमद का नाम कोई जान नहीं पाया. इब्ने सफी उपनाम उस पर भारी पड़ गया. आज़ादी और विभाजन बाद के दौर में असरार अहमद उर्फ इब्ने सफी के इस नए सफर की शुरुआत हुई. जिसकी बुनियाद में यह बात थी कि उर्दू के पाठकों का ध्यान अश्लील साहित्य कि तरफ से हटाया जाए.
उनके जज्बे से प्रभावित होकर अब्बास हुसैनी ने जासूसी दुनिया नामक एक मासिक पत्रिका की शुरुआत की, जिसके पन्नों पर इब्ने सफी का नाम पहली-पहली बार छपा. इंस्पेक्टर फरीदी और सार्जेंट उनके दो किरदार थे जो बहुत लोकप्रिय हुए. १९५२ में उनका पहला उपन्यास छपा दिलेर मुजरिम. कहते हैं यह उपन्यास विक्टर गन के उपन्यास आयरन साइडस लोन हैंड्स पर आधारित था लेकिन उसके किरदार खालिस देसी. ये पात्र जासूसी दुनिया सीरीज़ के अमर किरदार बन गए. कुछ दिनों बाद ही वे पाकिस्तान चले गए लेकिन जासूसी दुनिया इतनी लोकप्रिय होती जा रही थी कि पाकिस्तान में उन्होंने असरार प्रकाशन शुरू किया तथा हिन्दुस्तान और पकिस्तान दोनों जगहों से जासूसी दुनिया का प्रकाशन होने लगा. १९५५ मन में उन्होंने इमरान सीरीज कि शुरुआत कि जिसको भारत में इलाहबाद के निकहत प्रकाशन ने छापना शुरू किया.
वे मानते थे कि अच्छे जासूसी उपन्यास के लिए यह आवश्यक है कि उसका प्लाट ज़बरदस्त होना चाहिए और लेखक की भाषा में ऐसी रवानी होनी चाहिए कि पाठक उसमें इस कदर बह जाए कि अगर प्लाट में कोई झोल भी हो तो उस ओर पाठकों का ध्यान न जाए. लेखन की इसी तकनीक ने जासूसी दुनिया श्रृंखला के १२५ उपन्यासों तथा इमरान सीरीज के १२० उपन्यासों को अपार लोकप्रियता दिलवाई. कहते हैं कि १९५०-६० के दशक में हिंदी में पाए के रोमांटिक लेखक इसलिए परिदृश्य पर नही आ पाए क्योंकि इब्ने सफी के उपन्यासों में रोमांच के साथ-साथ रोमांस भी ज़बरदस्त होता था. उनके पुराने पाठक तो याद करते हुए कहते हैं कि उसमें हास्य-व्यंग्य भी धाकड़ होता था. लेकिन सेक्स नहीं होता था साहब. असरार अहमद ने अपने दोस्त के सामने अपनी बात साबित करके दिखा दी. भले इस दरम्यान उनको असरार अहमद से इब्ने सफी बनना पद. यही रीत है किसी को मरकर कीर्ति मिलती है किसी को छद्म नाम रख लेने से. कहते हैं कि इब्ने सफी कि मकबूलियत को कम करने के लिहाज़ से कर्नल रणजीत नामक एक छद्म नाम गढ़ा गया. कहते हैं लेखन कि दुनिया के आला दिमाग उस नाम से जासूसी उपन्यास लिखा करते थे. लेकिन इब्ने सफी की लोकप्रियता पर कोई खास असर नहीं पडा.
इब्ने सफी बाद में पाकिस्तान चले गए, लेकिन सीमा के इधर और उधर उनकी ऐसी ख्याति थी कि उनके उपन्यासों के भूगोल में माहौल तो दोनों तरफ के पाठकों को अपना-अपना सा लगता था लेकिन कारगाल, मक्लाक, जीरोलैंड जैसे उनके नाम काल्पनिक होते थे, इसलिए ताकि दोनों तरफ के पाठकों को अपनी ही तरफ का लगे. पाकिस्तान में उर्दू में लिखे गए इमरान के कारनामे हिंदी तक आते-आते विनोद का नाम धर लेती थी. कहा जाता है कि विभाजन के बाद के उन सबसे तल्ख़ दिनों में बस इक इब्ने सफी का नाम ही था जो हिन्दुस्तान-पकिस्तान के अवाम को एक कर देता था. एक दौर तो ऐसा था कि एक महीने में उनके तीन-चार उपन्यास तक आ जाते थे. डर रहता था कि लंबा अंतराल छोड़ने पर कहीं उनके पाठकों का ध्यान ना बंट जाए.
१९८० में महज ५२ साल कि उम्र में इस लेखक का देहांत कैंसर से हुआ जिसने लोकप्रियता के लिए कभी नैतिकता का दामन नहीं छोड़ा.