फौज़िया रियाज़ रेडियो जॉकी हैं. कहानियां भी लिखती हैं. उनकी यह कहानी समकालीन जीवन के उहापोहों को लेकर है और हिंदी में आजकल जिस तरह की कहानियां लिखी जा रही हैं उनसे थोड़ा हटकर हैं. अच्छी है या बुरी ये फैसला आप खुद कीजिये- जानकी पुल.
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वह गिर जाती अगर दीवार ना थामती. अब क्या करे? डाक्टर के पास जाए? एक बार कन्फ़र्म करे? या चुपचाप जाकर टीवी पर एम.टीवी देखकर ‘चिल’ करे. शायद ये सब अपने आप ही ठीक हो जाए, शायद यूंही सीढ़ीयों से उसका पैर फिसले और सब नॉर्मल हो जाए. उसने उन तीन मिनटों में जाने क्या-क्या सोचा. मन ही मन तय किया, ये आखिरी बार था जब उसने शोभित की बात मानी, आगे से वो बिल्कुल नहीं सुनेगी कि ‘जान, खत्म हो गया है… जाकर लाना होगा… बस एक बार… एक बार से कुछ नहीं होगा’ अब उसे खुद पर बहुत गुस्सा आ रहा था, क्युं उसकी बात मानी, जिस्म मेरा तो इसकी ज़िम्मेदारी भी मेरी है, ठीक है वो प्यार करता था लेकिन अगर वाकई करता तो यूं उसे ‘ईमोशनली ब्लेकमेल’ ना करता. उस वक्त वो बस एक मर्द था पर मैं तो औरत ही थी ना, वो सिर्फ़ अपने जिस्म की सुन सकता है पर मैं? मुझे तो समझना चाहिए था ना, आखिर नुकसान मेरा ही होगा…पर उस वक्त कहां होश था. ये तीन मिनट कितने भारी थे वही जानती थी. दुनिया जहान का सही-गलत उन तीन मिनटों में ही दिमाग में उतर रहा था, अभी तक तो जैसे ख्वाब में जी रही थी. फिर जब उसने प्रेग्नेन्सी-टेस्ट में सफ़ेद प्लास्टिक पर दो लाल लाइनों को चमकते देखा उसे लगा वो बाथरूम में चक्कर खा कर गिर जाएगी…जब वो शोभित से अलग हुई थी तब उसे अन्दाज़ा नहीं था कि अगले कुछ हफ़्तों में उसे इतनी बड़ी मुसीबत से दो-चार होना पड़ेगा. शुरु में तो वो समझती रही कि ये ज़हनी तनाव है जिसके सबब इस बार देर हो रही है, फिर जब कुछ हफ़्ते और गुज़रे तो उसका ‘इन्टुशन’ कहने लगा ज़रूर कुछ गड़बड़ है. वैसे भी औरतों का‘इन्टुशन’ अक्सर सही ही होता है. लेकिन जब यही अन्दाज़ा, हिसाब-किताब ग़लत साबित होता है तो तकलीफ़ होने से ज़्यादा खुद पर गुस्सा आने लगता है कि कैसे सच को पहचानने में गलती कर दी. कई दफ़ा तो बहुत वक़्त तक यकीन ही नहीं होता कि जिसे हम आज तक जानते थे वो तो बिल्कुल ग़लत था, हमारे ‘इन्टुशन’ ने हमारे साथ ग़ज़ब का मज़ाक किया है.
समा ने कभी सोचा भी नहीं था शोभित दूर हो जाएगा, वैसे भी कोई भी प्यार करने वाला रिश्ते के पहले दिन ये तो नहीं सोचता कि ये बस कुछ दिनों का लगाव है, कुछ दिनों का साथ है. सब यही सोचते हैं हम अजर-अमर प्रेम का हिस्सा बनने जा रहे हैं और हमारे जैसा कभी किसी ने महसूस ही नहीं किया, हम एक दूसरे के नाज़-नख़रे उठाते हुए युंही हंसते-खेलते जिएंगे, बुढ़ापे में एक छोटे से शहर में बड़ा सा घर लेकर आंगन में शामें बिताएंगे. ऐसे सभी ख़्याल धूल तब चाटते हैं जब एक छोटी-सी तीखी चीज़ से मुलाक़ात होती है यानि ‘हक़ीक़त’.
शोभित के साथ उसका रिश्ता तीन साल चला. वो समझते कि एक-दूसरे को जानते हैं, इसी से पता चलता है कि इन्सान कितने ख्याली पुलाव पकाता है. कोई शख़्स जब खुद को ही नहीं जान सकता तो किसी और को जानने का दावा कैसे कर जाता है, बस किसी कॉफ़ी-शॉप में कुछ मुलाक़ातें, किसी सिनेमा थिएटर में कुछ हिट-फ़्लॉप फ़िल्में, एक जैसा संगीत पसंद होना, या मनपंसद किताब एक होना, शायद एक जैसा ‘पॉलिटिकल व्यू-पॉइन्ट’ भी मायने रखता है. एक जैसे होने की ख़ुशी आंखों के आगे काला परदा डाल देती है. फिर वो नहीं दिखता जो ज़रूरी है जैसे शोभित ने जब उसपर पहली बार गुस्सा किया था तो बात कितनी छोटी थी, वो शोभित के बात-बात पर रोने को लेकर कितना चिढ़ जाती थी, शोभित ने उसे अपने क़रीब लाने के लिए कई झूठ कहे थे या वो खुद कितनी ‘पोज़ेसिव’ थी. शुरु में ये बातें बेमतलब होती हैं, इन पर हंसा जाता है. मगर जैसे-जैसे वक़्त गुज़रता है एहसास होता है छोटा कुछ नहीं होता, जिसे आज हवा में उड़ाया जा रहा है कल अलग होते वक़्त उसे तीर की तरह इस्तेमाल किया जाएगा. शोभित के जो आंसू उसे पहले कमज़ोर कर देते थे अब पत्थर बना देते थे, उसकी जो टोका-टाकी शोबित को पहले उसकी फ़िक्र का एहसास दिलाती थी अब गले का फंदा लगती है. खैर वो अलग हुए इसकी सीधी-सीधी कोई एक वजह नहीं हो सकती, रिश्ता टूटने की कभी भी कोई एक वजह नहीं होती.
डाक्टर उसे ऐसे देख रहा था जैसे वो सामने वाले बैंक में रॉबरी कर के सीधी इस क्लिनिक में घुस गयी हो और एकलौता वो डाक्टर ही इस राज़ को जानता हो. जब उसने अपना नाम मिसिज़ के जगह मिस के साथ लिखवाया नर्स ने भी उसे कनखियों से देखा था. डाक्टर खुद को सहज दिखाने की कोशिश कर रहा था और समा के लिए इतना ही काफ़ी था, अब उसका यहां गुलदस्ते के साथ स्वागत तो किया नहीं जाता कि ‘मैडम आप दो महीने से प्रेगनेंट हैं और वाह! क्या बात है, आपकी शादी भी नहीं हुई…कमाल कर दिया आपने तो.’
मेट्रो में बैठी वो लेडीज़ कोच के आखिर के हिस्से को हमेशा की तरह देख रही थी, यहां से जनरल कोच शुरु होता है. जब कोई कपल, मिया-बीवी हों या ब्वायफ़्रेंड-ग्रलफ़्रेंड मेट्रो में चढ़ते तो इसी हिस्से में खड़े होते, कई लोग एक दूसरे को यहां ऐसे ढूंढ़ते जैसे ये दो कदम की जगह लम्बा सा प्लेटफ़ॉर्म हो. फिर जब यह मालूम हो जाता कि हां ‘वो’ भी यहीं है तो दोनों के ही चहरे पर मुस्कान नज़र आती. इन्सान कहीं भी हो एक जैसा ही रहता है, कहीं ना कहीं सब एक से ही हैं वरना ऐसा क्युं होता कि जब भी मेट्रो में सफ़र करती इस किनारे पर हमेशा एक जैसी ही बेचैनी, एक-सी ही खोज और फिर एक-सी ही तसल्ली दिखती. वो भी ऐसे ही खड़े होते थे, इधर-उधर देखते नीचे नज़रें किये हुए और फिर कभी मौक़ा पा कर एक दूसरे की आंखों में झांक लेते. बस इतना करने से ही उसके पूरे जिस्म में झुरझुरी दौड़ जाती. बस देख लेना…बस देख लेना ही तो बदल जाता है तभी तो कहते हैं फ़लां की नज़रें बदल गयीं. रिश्ते के आखिरी दिनों में वो समा को कितनी नफ़रत से देखता था, लाल आंखों से ऊपर से नीचे तक जैसे कह रहा हो तुम बेहद घटिया हो, तुम देखे जाने लायक भी नहीं, तुमसे घिन्न आती है’. हां, नज़रे ही बदलती हैं, उसने मेडिकल रिपोर्ट को देखते हुए सोचा.
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क्या मुझे रोना नहीं आएगा? वो रात को तकिए पर सर टिकाते हुए थोड़ी ऊंची आवाज़ में खुद से सी बोली. कहीं से, किसी भी सन्नाटे से कोई आवाज़ पलट कर नहीं आई. अकेले सोना कितना भारी होता है, कोई सर पर हाथ रखने वाला नहीं, कोई ऐसा नहीं नींद में जिसकी कमर में हाथ डाला जा सके. उसने करवट बदल कर तकिया ज़ोर से भींच लिया, चादर के अन्दर चेहरा किया और तकिए में मुंह छुपा कर ज़ोर से चीखी, फिर तकिया ज़मीन पर फेंका, फोन में गाने चलाए, बिस्तर पर पैर पटके, उंगलियां बालों में घुसाईं, एक बार फिर दबी आवाज़ में चिल्लाई पर उसे रोना नहीं आया. रोने के लिए इतनी मशक्कत करनी पड़ रही है ये सोच कर उलटा खुद पर हंस पड़ी. अभी तक तय नहीं किया था करना क्या है, शोभित को वो कुछ भी बताना नहीं चाहती थी, वो नहीं चाहती थी कि किसी भी तरह का इमोशनल ड्रामा शुरु हो, अगर वो शोभित को कुछ बताती तो वो लौट आता बेशक, पर ये सही नहीं होता. उनके बीच हालात जिस हद तक बिगड़ चुके थे वो अब ठीक नहीं हो सकते थे बल्कि अब वो कुछ ठीक करना भी नहीं चाहती थी. जीवन होता है तब जीवन-साथी होता है, अगर साथी की वजह से जीवन पर ही खतरा मंडराने लगे तो ऐसे में आगे बढ़ जाना चाहिए. साथी और मिल जाएंगे जीवन नहीं मिलेगा. समा की सांस ना आती थी ना जाती थी बस अटकी रहती थी कि अब क्या कह देगा, अब क्या कर लेगा, कहीं खुद को कुछ ना कर ले, खुद को पीटना, बेल्ट से मारना, सड़क पर चीखना-चिल्लाना, खुद को थप्प्ड़ मारना. सर दीवार में पटकना, गाली-गलोज करना और फिर घंटों तक रोना. समा तंग आ गयी थी फिर भी सोचती शायद सब ठीक हो जाए पर नहीं. कुछ रोज़ सब ठीक रहता और फिर वही कहानी शुरु. तो वो शोभित को कुछ नहीं बताना चाहती थी, उसमें इस बात की हिम्मत तो थी कि सब कुछ अकेले संभाल ले पर फिर से अंधेरे कूंए में जाने की ताक़त नहीं थी. और फिर कौन जाने शोभित कह देता इसके लिए मैं ज़िम्मेदार नहीं. जो कुछ वो समा को कह चुका था, उसके बाद वो कुछ भी कह सकता था. यक़ीन एक बार उठ जाए तो उसके दोबारा विराजमान होने की गुंजाइश नहीं होती.
सुबह सूजी हुई आखों के साथ ऑफ़िस पहुंची, लिफ़्ट के शीशे में खुद को देखा तो झिझक कर खुद से ही नज़रें चुरा लीं. कोई भी फ़ैसला लेने से पहले उसे अच्छे से सोचना होगा. क्या उसे ये बच्चा चाहिए या नहीं चाहिए. तय करना आसान नहीं था. अकेले रहती है, उम्र अभी 26 साल है, नौकरी करती है, बच्चा पैदा करने के लिए वो कभी उत्तेजित नहीं रही. पर अब जब वो प्रेग्नेंट है तो अबॉरशन के नाम से पूरे जिस्म में कंपन सी दौड़ जाती है. आखिर अपने जिस्म से छेड़छाड़ करना आसान काम नहीं है. इस फ़ैसले से उसकी आने वाली ज़िन्दगी बदल जाएगी. उसके अन्दर की औरत बार-बार जज़्बाती हो जाती और उसके अन्दर की चन्चल लड़की अभी आज़ादी से उड़ना चाहती. अपने वर्क स्टेशन पर उसने कुर्सी से पीठ टिकायी तो देखा साथ बैठने वाली मधू अभी नहीं आयी. उसने अपनी फ़ाइलें निकालीं और बॉस के कैबिन में जाने से पहले एक नज़र दौड़ाने लगी, पर ध्यान मधू की तरफ़ भटक चुका था. मधू उसके साथ इस ऑफ़िस में पिछले एक साल से काम कर रही है, मधू ने 18 साल की उम्र में घर से भाग कर शादी कर ली थी और 19 साल की उम्र में तलाक़ हो गया था. अब ऐसे में ना तो वो अपने मां-बाप के पास लौट सकती थी और ना ही कोई दोस्त ऐसा था जो उसकी मदद करता. मधू के चेहरे पर चोटों के निशान साफ़ दिखते हैं. वो बताती है कि उसका पति जो कभी उसका प्रेमी हुआ करता था कैसे उसे बाल खींचते हुए पीटता था. वजह कोई भी हो सकती थी, जैसे इस लड़के से क्युं बात की और उस आदमी को पलट कर क्युं देखा. या फिर जींस क्युं पहनी जब मां चाहती है तुम साड़ी पहनो. कभी उसका पति सिखाता कि सास से कैसे बात करते हैं तो कभी ये कि ससुर के सामने गर्दन कितनी नीची होनी चाहिये. जबकि वो खुद अक्सर अपनी मां और पिता से बदतमिज़ी करता, आस-पड़ोस के लोगों से झगड़ा करता, किसी को भी पीटने पर फ़ौरन उतारू हो जाता. ऐसे लोग जो खुद नैतिकता के मामले में गोल होते हैं अक्सर अपनी पत्नी और बच्चों पर संस्कार लादने की कोशिश करते हैं, पर क्युंकि उन्हें खुद ही मालूम नहीं होता कि असल में नैतिकता है क्या, वो रटे-रटाए फ़ॉरमुलों का इस्तेमाल करते हैं और अपने परिवार को संस्कार की जगह कड़वाहट सौंपते हैं. मधू हिम्मती थी जो एक साल के अन्दर उस जंजाल से निकल गयी. हर कोई ऐसा कहां कर पाता है. “हाय जानेमन, इतनी गौर से देखोगी तो फ़ाइल में ऐटीट्यूड आ जायेगा” मधू ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा. “ओह! तुम आ गयीं, बस तुम्हारे बारे में सोच रही थी”
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हिन्दी फ़िल्मों ने अबॉरशन को इतना ड्रामैटिक बना दिया है कि ऐसा ख्याल मन में आते ही समा खुद को ’पापिन‘ टाइप महसूस करने लगती. उसे याद आता कैसे ‘क्या कहना’ कि प्रीटी ज़िन्टा अपने पेट पर हाथ रख कर ‘फ़ीटस’ से बातें करती, उसे पुरानी हिन्दी फ़िल्मों की वो वैम्प याद आती जो अबॉरशन करवा कर, अपने शरीफ़ पति को चोट पहुंचाती है, वो महंगी साड़ी पहनती है, शराब पीती है और किटी पार्टियों में ताश खेलती है. समा खुद को उस रूप में इमाजिन करके मुस्कुरा देती. औरत की एक नपी तुली खास छवि बनाने में हिन्दी फ़िल्मों का बहुत बड़ा योगदान रहा है. सिनेमा थियेटर से बाहर निकलते हुए वो फ़िल्मों को मन ही मन गालियां दे रही थी. अब बताओ ये भी कोई बात हुई फ़िल्म के आखिर में ’सिल्क’ ने आत्महत्या कर ली. ‘डर्टी पिक्चर’ की बहुत तारीफ़ सुनी थी, आफ़िस में सुमन्त कह रहा था “ऐसी फ़िल्में बननी चाहिएं” वहीं गौरव का मानना था “हर औरत को सिल्क बन जाना चाहिए”. समा के बॉस और उनकी वाइफ़ सिल्क के किरदार को बज़ारू कह रहे थे. हर किसी की फ़िल्म के बारे में अपनी राय और समझ थी इसीलिए फ़िल्म हिट साबित हो गई थी. समा सोच रही थी, हर औरत को सिल्क क्युं बनना चाहिए, क्या हर औरत को अपना काम निकलवाने के लिए जिस्म का इस्तेमाल करना चाहिए या हर औरत को शादीशुदा मर्द के साथ जि़स्मानी और जज़्बाती हो जाना चाहिए. फिर जब पैसा और कामयाबी साथ छोड़ दे तो खुदकुशी कर लेनी चाहिए. समा ’सिल्क’ नहीं बनना चाहती थी, ना ही वो किसी भी औरत को सिल्क बनते देखना चाहती थी. समा के लिए ’सिल्क’ होना तारीफ़ की बात नहीं थी, उसे ‘सिल्क’ से सहानुभूति थी. उसके लिए ‘सिल्क’ होना गर्व की बात तब होती जब वो मुश्किल हालात से नहीं घबराती, जब वो जिस्म से ऊपर उठकर एक शख्सियत बनते हुए, बुढ़ापे की दहलीज़ पर खड़ी होकर भी दुनिया की वाह्ट लगाती. उसके लिए एक बंगला बिकना मायने नहीं रखता. जब वो एक छोटे से फ़्लैट में भी उसी जोश के साथ ज़िन्दगी जीती. ऑटो में बैठते हुए जब समा को चक्कर महसूस हुए तब जाकर वो असली दुनिया में वापस आई. मेडीकल रिपोर्ट मिले दो दिन हो चुके थे और वो अभी तक किसी नतीजे तक नहीं पहुंची थी. घर जाते हुए उस पर फिर सोच सवार हो गई थी. दर्द का सामना करते हुए, मुश्किलों से निपटते हुए और तकलीफ़ों का मज़ा चखते हुए कई बार एहसास होता है कि ज़िन्दगी कितनी मज़ाकिया है. अपनी प्रेगनेंसी की बात वो किसी को नहीं बता सकती थी और उसने अभी तक तय भी नहीं किया था कि करना क्या है. मगर फिर भी पिछले पंद्रह मिनटों में उसके दुख की वजह सिर्फ़ और सिर्फ़ हिन्दी फ़िल्म इन्डस्ट्री थी.
26 साल की उम्र शुबह से भरी होती है. आप पिछले कुछ सालों में चुने गए रास्तों और रिश्तों को लेकर खुद से सवाल करने लगते हैं. सारी उम्र 20 साल के होने का इंतज़ार किया, बीस से हुए, उस उम्र में आप जोश से भरे रहे. हर सवाल का चुटकियों में जवाब हाज़िर होता है और फिर ठीक पांच साल बाद बेहद सख़्ती से आपको ज़िन्दगी की असली परीक्षा के आगे बिना कागज़-कलम के पटक दिया जाता है. ये परीक्षा वैसी ही होती है जिसमें आप देर से पहुंचे हों, जिसमें बार-बार पैन की इंक खत्म हो रही हो, हर सवाल का सवाब आप जानते हैं लेकिन समझ नहीं पा रहे लिखा कैसे जाए. कुछ सवालों को देखकर लगता है कि अरे! ये तो मैंने पढ़ा था, मगर जवाब याद नहीं आ रहा. नौकरी है लेकिन ये वो तो नहीं जो हम चाहते थे, प्रेमी है मगर ये वैसा तो नहीं जैसा हमने सोचा था, अरे! मैं तो घूमना चाहती थी, ड्राइविंग सीखना चाहती थी, अब तक तो मुझे प्यानो बजाना आ जाना चाहिए था. उफ़! मैं ऐसी ज़िन्दगी तो नहीं चाहती थी, मैं पीछे रह जाऊंगी, मैं नाकाम इन्सान बन कर रह जाऊंगी. मैं किन मुसिबतों में फंसी हूं, कैसे लोगों के बीच अपना वक्त बर्बाद कर रही हूं. मुझे कुछ कड़े फ़ैसले लेने होंगे, कुछ सख्त कदम आगे बढ़ाने होंगे. मैंने कदम बढ़ा लिया है, मेरी ज़िन्दगी रातों रात बदल गई है, मैं प्यानो बजा रही हूं, मैं गाड़ी चलाना सीख रही हूं, मैं मज़बूत फ़ैसले ले रही हूं, मैं सधी हुई, खुद की तय की हुई ज़िन्दगी जी रही हूं. अब मैं मुस्कुरा रही हूं. “समा, क्या सोच-सोच कर मुस्कुरा रही हो” मधू ने पानी रखते हुए पूछा. ‘ओह्ह्ह…धत तेरे की…सोचती रह जाऊंगी और वक़्त हाथ से निकल जाएगा’ समा ने ग्लास लिया और पानी ऐसे खत्म किया जैसे ये पानी ही उसके और उसके कड़े फ़ैसलोंके बीच रुकावट बना हुआ था.
“मधू मैं प्रेगनेंट हूं” समा ने थोड़ी ऊंची आवाज़ में कहा
“क्या?” मधू ने इधर-उधर देखते हुए फुसफुसा कर पूछा
“मुझे पता नहीं क्या ठीक होगा” समा ने अपने सर पर हाथ रखते हुए कहा
“तू पागल हो गई है” मधू को अब तक यकीन ही नहीं आया था
“मैं सच कह रही हूं” समा ने मधू की तरफ़ देखा.
“ये कैसे, आई मीन…तेरा तो ब्रेकअप…ओफ़्फ़ो” मधू सोफ़े से खड़ी होकर टहलने लगी थी.
समा संडे की छुट्टी पर सुबह-सुबह मधू के घर पहुंच गई थी. चार दिन बीत चुके थे और उसे आज ही कोई फ़ैसला लेना था. मधू के अलावा वो और कहीं जा भी नहीं सकती थी. समा के आस-पास इस मामले में मधू से ज़्यादा तजुरबा और किसी के पास नहीं था.
“कितने महीने?” मधू ने पूछा
“दो” समा मिमियाई
“शोभित?” सवाल दाग़ा गया
“और कौन?” समा ने चिढ़ कर कहा
“कमीना” मधू बड़बड़ाई.
“यार, सिर्फ़ उसकी गलती थोड़े ना है” समा ने बराबर की ज़िम्मेदारी ली.
“अच्छा….क्यों? सिर्फ़ उसकी गलती कैसे नहीं है? बेशक उसी की है, सौ प्रतिशत उसी की” मधू फुंकारी.
समा हथियार डाल चुकी थी
“साला…बच्चा बाप के नाम पर जाना जाएगा, कहलाएगा इनके खानदान का, होगा इनके घर का चिराग, तलाक ले लो तो बच्चा छीनने के लिए ये मुकदमा करेंगे, इन्हें पालो-पोसो बड़ा करो फिर भी एडमिशन करवाते वक्त सबसे पहले बाप का नाम पूछा जाएगा, जब बच्चा होने के बाद पहला हक़ इनका है तो बच्चा ना हो इसकी ज़िम्मेदारी भी इनकी है” मधू लगभग चिल्ला रही थी
समा ने धीरे से कहा “लेकिन शरीर तो हमारा है, नुकसान तो हमारा होगा”
“वो तो है ही, मर्द मौकापरस्त होते हैं और कुदरत इनका साथ देती है. सीधी सी बात है जिसका हक उसकी ज़िम्मेदारी. यार, गोलियां खा-खा कर मेरे चेहरे और जिस्म पर बेशुमार दाने हो गए थे, फिर पति महाशय कहते हैं कॉपर-टी लगवा लो, वो भी किया. पता है समा, मुझे कितनी ज़्यादा ब्लीडिंग होती थी? इन्फ़ेक्शन हो गया था, डॉक्टर को दिखाया तो पता चला ठीक से लगी नहीं थी, ठीक करवायी, फिर कुछ हफ़्तों बाद वही हाल” मधू धीरे-धीरे कह रही थी
“लेकिन वो तो सेफ़ होती है ना” समा ने पूछा,
“हां होती है लेकिन शरीर से तो छेड़छाड़ ही है ना, सही-गलत हो सकता है, डॉक्टर पर भी डिपेंड करता है, यार…मैं ये कहना चाहती हूं कि इतना झंझट ही क्यों जब आदमी के पास इससे कहीं ज़्यादा आसान उपाय मौजूद है? बली की बकरी हम बने ही क्यों जब इसकी कोई खास ज़रूरत नहीं है. मधू फिर गुस्से में आ गई थी.
“तू सही कह रही है. अगर मर्द अपनी प्रेमिका या बीवी के जिस्म से ऐसी छेड़छाड़ ना होने देना चाहे तभी तो ज़िम्मेदारी लेगा. गलती हम लड़कियों की भी है, हम अपने लिये खड़ी नहीं होतीं, बस प्रेमी का दिल खुश करने में लगी रहती हैं. खुद को उनकी जायदाद समझ लेती हैं. हमें खुद से प्यार करना सीखना होगा. खुद को सबसे ज़्यादा एहमियत देनी होगी. अपने लिये लड़ना होगा, रोज़ रात दासी बन कर पति के सामने हाज़िर नहीं होना, बल्कि अपने भले के लिये विरोध करना सीखना होगा” समा अपनी जगह से उठकर खिड़की के पास आ गई थी. सामने वाली बालकनी में एक नई-नवेली दुल्हन अपने बाल सुखा रही थी. उसके हाथों की महंदी बिल्कुल लाल थी. उसकी आंखों में वो शर्म थी जो उसे बचपन से घुट्टी बना-बना कर पिलाई गई थी.
“मधू, मुझे ये बच्चा नहीं चाहिए” समा ने खिड़की की तरफ़ से मुंह मोड़ लिया था.
“अच्छे से सोच ले” मधू समा की तरफ़ गौर से देखते हुए बोली,
“मैंने सोच लिया है, ये मेरा शरीर है. अगर बच्चा होता है तो उसे मुझे पालना होगा. अभी मेरे दिल में बच्चा पालने की कोई ख्वाहिश नहीं है. अगले कुछ सालों में भी मैं ऐसा कुछ नहीं चाहती.” समा आराम से कह रही थी.
“तुम्हे पता है, धर्म इसे हत्या मानता है” मधू अब मुस्कुरा रही थी, जैसे कह रही हो देखो अपने साथ क्या खेल खेला गया है.
“धर्म तो मुझ जैसी अविवाहित स्त्री को कोड़े मार-मार कर मौत के हवाले कर देने का आदेश भी देता है. वही धर्म मर्द को ऐसी कोई सज़ा नहीं सुनाता. जबकि औरत और मर्द एकसाथ हम बिस्तर होते हैं. लेकिन सज़ा सिर्फ़ औरत को. सब खेल है मधू, सदियों पुराना बुना गया जाल जो तुम्हें और मुझे फंसाता है.” समा बैग कंधे पर लटका चुकी थी.
“तो ये एक ज़िन्दगी खत्म करना नहीं है” मधू समा की आंखों में देख रही थी, जैसे भरोसा चाहती हो.