जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

अनुराग कश्यप ने सिनेमा की जैसी बौद्धिक संभावनाएं जगाई थीं उनकी फ़िल्में उन संभावनाओं पर वैसी खरी नहीं उतर पाती हैं. ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ का भी वही हाल हुआ. इस फिल्म ने सिनेमा देखने वाले बौद्धिक समाज को सबसे अधिक निराश किया है. हमारे विशेष आग्रह पर कवि-संपादक-आलोचक गिरिराज किराडू ने इस फिल्म का विश्लेषण किया है, अपने निराले अंदाज में- जानकी पुल.
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[गैंग्स ऑफ वासेपुर की ‘कला’ के बारे में बात करना उसके फरेब में आना है, उसके बारे में उस तरह से बात करना है जैसे वह चाहती है कि उसके बारे में बात की जाए. समीरा मखमलबाफ़ की ‘तख़्त-ए-सियाह’ के बाद फिल्म पर लिखने का पहला अवसर है. गर्मियों की छुट्टियाँ थीं, दो बार (एक बार सिंगल स्क्रीन एक बार मल्टीप्लेक्स) देखने जितना समय था और सबसे ऊपर जानकीपुल संपादक का हुक्म था]
अमिताभ बच्चन अपनी फिल्मों में ‘बदला’ लेने में नाकाम नहीं होता. तब तो बिल्कुल नहीं जब वह बदला लेने के लिए अपराधी बन जाय. बदला लेने में कामयाब होना उन कई फार्मूलों में से एक अहम फार्मूला है जो अमिताभ बच्चन के सिनेमा ने बनाया. और यह फार्मूला – ‘व्यक्तिगत’ स्पेस में हुए अन्याय का प्रतिकार कानून और सामाजिक नैतिकता = स्टेट की मशीनरी से बाहर जा कर ही संभव है उर्फ अपराधी होना एंटी-स्टेट होना है – उन कई फार्मूलों में से एक है जिन पर गैंग्स ऑफ वासेपुर बनी है. ‘मर्दानगी’ का ‘प्रदर्शनवाद’ (एग्जिबिशनिज्म) और उसका सफल कमोडिफिकेशन; स्त्री-‘बोल्डनेस’ के दो बेसिक प्रकारों – एरोटिक (दुर्गा) और लिंग्विस्टिक (नग्मा) – का उतना ही सफल कमोडिफिकेशन और ज़बरदस्त संगीत (चाहे वह हमेशा संगत न हो) ऐसे ही कुछ दीगर फार्मूले हैं जिन पर यह फिल्म बनी है, वैसे ही जैसे बहुत सारी फिल्में बनती आयी हैं.

फिल्म का आखिरी दृश्य है. फिल्म के ‘हीरो’ सरदार खान को उसी जगह – एक पेट्रोल पम्प – पर शूट किया जा रहा है जहाँ उसे पहला अपराध करते हुए दिखाया जाता है.
उसे गिर के मर जाना चाहिए, हो सके तो स्क्रीन पर उसका चेहरा नहीं आना चाहिए (वैसे ही जैसे उन बहुत सारे लोगों के चेहरे नहीं आये  मरते वक्त स्क्रीन पर जिनकी वह हत्या करता है:  इसी तरह, पब्लिक स्पेस में). लेकिन एक बेहद वल्गर (पहली बार देखते हुए/ मुझे इस फिल्म में, इसकी गालियों समेत और कुछ भी ‘वल्गर’ नहीं लगा — यह भी वल्गर इस अर्थ में है कि यह देसी मेचोइज्म को एक प्रोडक्ट में बदलता है और बतौर बोनस एक सामूहिक पहचान – बिहारी- को एक उपभोक्ता समूह के तौर पर सीधे एड्रैस करता है ) और बेहद हास्यास्पद (दूसरी बार देखते हुए) दृश्य में वह स्लोमोशन में गिरता है और पार्श्व में उसके हीरोइज्म को सेलेब्रेट करता हुआ एक गीत बजता है जो बीसियों लोगों को क़त्ल कर चुके सरदार खान को ऐसे हीरो के रूप में याद करता है जिसके
“पुरखे जिये अँधेरा
और तूने जना उजाला”
रस ले लेकर हत्याएं करने वाले सरदार ने कौनसा उजाला पैदा किया है इसके बारे में मत सोचिये न ही उसके पिता के कोयला मजदूर और ‘पहलवान’ के तौर पर जिये अंधेरों के बारे में आप कल्पना करिये कि सरदार के बर्फ छीलने वाले पेंचकस से सरे राह हत्या करने वाले हाथ उन कन्धों से जुड़े हैं जिन पर ‘चढ़ के सूरज आकाश में रोज पहुँचता’ (एकदम वीरगाथा काव्य है!) है  और इस तरह याद रखिये कि आपके अपने जीवन के उजाले का बाप भी कौन है.
अगर आप बिहार से हैं तो मनोज वाजपेयी पर बलिहारी होते हुए दुआएं दीजिए कि ‘आपका’ लाला हज़ार साल जिये, बची हुई दो बीवियां और रक्खे, दोनों से ‘प्यारे’ लगने वाले दो-चार ‘सपूत’ और पैदा करे और नाची गाई आपका ‘मनोरंजन’ करता रहे. 
और अगर आप अंग्रेजी में दुनिया देखते हैं तो एग्जोटिका के परफेक्ट एग्जोटिक अंत पर प्रभावित हो जाइये. लिरिक्स पूरी तरह समझ में न आये तो कोई बात नहीं.

शाहिद खान के एक बेटा है. सरदार.
सरदार के दो स्त्रियों से चार बेटे हैं.
रामाधीर सिंह के एक बेटा है.
सुल्तान की शायद शादी नहीं हुई है.  
बदले, अपराध और राजनीति का यह व्यापार पूर्णतः मर्द व्यापार है – हत्याएं, गैंगवार, और हिंसा का उत्तराधिकार.  पिता और पुत्र के बीच एक अनिवार्य साझेदारी. अगर सरदार खान के एक बेटी होती तो वह उससे भी मज़ाक करता, काम पर या धंधे में? 

अकेला कोयला ही ‘गैंग्स’ पैदा नहीं करता.
कथा में कोयला बैकड्रॉप है. उसकी जगह आयरन स्क्रैप आ सकता है, मछलियों से भरा हुए तालाब आ सकता है .. हिंसा वैसे ही जारी रहती है.

पार्ट १ के ‘हीरो’ सरदार का बचपन एक घटना ने बदल दिया – यह जानकारी कि उसके पिता की हत्या की गयी और हत्यारा कौन है.
पार्ट २ के ‘हीरो’ फैज़ल का बचपन भी एक घटना ने बदल दिया – उसकी माँ का एक रिश्तेदार से शारीरिक सम्बन्ध (“शारीरिक सम्बन्ध’ जैसा युफेमिज्म इस्तेमाल करने के लिए आप चाहें तो मेरी धज्जियां उडाएं या कह कर कुछ और करें).
हेमलेट के पिता को उसका अंकल मार देता है. वही अंकल उसकी माँ से शादी कर लेता है.
सरदार और फैज़ल मिलकर हेमलेट का केस बनते हैं.
सरदार की मुक्त हिंसा का उसके मुक्त लिबिडो से सीधा सम्बन्ध है.  फैज़ल का अवरुद्ध जमा हुआ लिबिडो यादव की हत्या से  पिघल गया है. अब वह पिता की जगह लेने के लिए तैयार है.

लेकिन शेक्सपियर से कोई साम्य इसके बहुत आगे नहीं जाता, न वासेपुर का न ओमकारा या मकबूल का. कैथार्सिस के लिए कोई जगह नहीं है. यहाँ नैतिक द्वंद्व नहीं है. कोई चयन नहीं है. इसलिए यह सिनेमा एक स्तर पर अमिताभ बच्चन के सिनेमा की ओर हमेशा हसरत और डाह से देखता रहेगा. 
बदले और मर्दानगी के एक ज्यादा ‘देसी’ कल्ट के लिए एक टेरिटरी बन गयी है. (लेकिन यह ‘मुझे जीने दो’ या ‘बैंडिट क्वीन’ की नहीं ओमकारा की  टेरिटरी है) १८ करोड़ की प्रोडक्शन लागत और १७-२६ करोड़ के विज्ञापन (स्रोत: गूगल सर्च) को कवर ही नहीं कर लिया गया है, मुनाफ़े की लकीर शुरू हो गयी है.
मार्किट इसी तरह काम करता है शायद. जैसे सरदार की जो गुंडई और लुच्चई विमर्श में सामाजिक-राजनैतिक चीज़ है थियेटर में देसी मेचोइज्म का थ्रिल और कॉमेडी हो जाती है और उसी तरह नग्मा और दुर्गा की कथा जो विमर्श में त्रासदी है, थियेटर में कॉमेडी हो जाती है. इतनी हिंसा के बीच इतनी कॉमेडी से मार्किट बनता है.
फिल्म साहसिक ढंग से उस ‘मुस्लिम-छवि-विमर्श’ में हिस्सेदारी करती है जो हिन्दू सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ने निर्मित किया है. साहसिक इसलिए कि वह इस बात की परवाह नहीं करती कि वह कई स्तरों पर उस ‘मुस्लिम-छवि-विमर्श’ को अप्रूव भी करती है, लेकिन इरादतन या बदनीयती से नहीं.
७.१
इन किरदारों की ज़िंदगी में मज़हब, अपना या अपने दुश्मन का, कितनी अहमियत रखता है?
रामाधीर मुसलमानों से लड़ने के लिए मुसलमान ढूँढता है. उसके घर में दो तरह के बर्तन और बर्ताव हैं.
पीयूष मिश्र का किरदार अपने प्राइवेट स्पेस में खुद को सजा देता है – लेकिन महज़ दो बार. दीन-ओ-ईमान का उसका अपना विचार एक निजी चीज़ है – वह हत्या या हिंसा को जायज़ मानता है लेकिन अपने ‘मालिक’ से बेवफाई को नहीं. 
बीच सड़क पर कोई गाता है ऐ मोमिनों दीन पर ईमान लाओ!

फिल्मकार बार बार साफ़ साफ़ दो टूक कह चुका है उसे ‘पक्षधरता’ पसंद नहीं है (अफोर्ड भी नहीं कर सकता) लेकिन उसके विमर्शकार पक्षधरता के विमर्शकार हैं.  उसके दोनों हाथों में चेरी है.
कई बार कला पोलिटिकल करेक्टनेस के कारण कमज़ोर हो जाती है, वासेपुर कहीं कहीं उसकी कमी के चलते.
१०
कथा में किस राजनैतिक पार्टी की बात हो रही है किस ट्रेड यूनियन की ऐसी अन्य जिज्ञासाओं के लिए थोड़ी रिसर्च खुद भी करिये.
फुट नोट: कहते हैं कहानी पर बात करनी चाहिए कहानीकार पर नहीं. इसीलिए भंते, अब पहली और आखिरी बार इस लिखे में ‘अनुराग’ शब्द.
गिरिराज किराड़ू
गिरिराज किराडू से rajkiradoo@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
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